बहुत दिनों के बाद फेसबुक पर बैठा, तो मित्रों ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी कि आपने ‘आप’ में क्या देखा जो शामिल होने का मन बना लिया ? अलग अलग कितना जवाब दूँ। एक ही साथ सबके काम आ जाय, इसलिए अपने दिल की बात बता रहा हूँ ।
मैं अपने को क्रांतिकारी समझता हूँ और शिक्षा, समाज, राजनीति आदि के सम्पूर्ण ढाँचे में परिवर्तन चाहता हूँ। इस देश में हजारों साल से कोई क्रांति नहीं हुई। भगवान बुद्ध के द्वारा एक वैचारिक क्रांति अवश्य हुई थी, लेकिन शंकराचार्य आदि पुरातन धर्मावलंबियों के प्रयास ने भारत में उसके पाँव उखाड़ दिए।
महात्मा गाँधी के नेतृत्व में एक क्रांति हुई जिसमें गोरे की जगह काले लोग सत्ता में समासीन हो गए, ढाँचा वही का वही रह गया ! अगली क्रांति जयप्रकाश के नेतृत्व में हुई जिसमें परंपरागत राजनीति के लोग ही ज्यादा सक्रिय थे, जिनका छद्म रूप सत्ता में आने के बाद प्रकट हो गया !
जयप्रकाश की विफलता के बाद हम जैसे छोटे छोटे क्रांतिकारी लोग छटपटा के रह गए। कुछ कर नहीं पाए। जब अन्ना आंदोलन छिड़ा तो मैं सजग होकर देखने लगा। मुझे इसकी बड़ी विशेषता यह नजर आयी कि इसने अपने मंच पर राजनेताओं को चढ़ने नहीं दिया। इतने में मैं इसका समर्थक हो गया। उनके समर्थन में पटने के कारगिल चैक पर कुछ मित्रों के साथ धरना भी दिया।
अन्ना के सामने भ्रष्ट राजनीति ने एक चुनौती भेज दी- अनशन पर बैठते हो, जरा चुनाव में जीत कर तो दिखाओ। इस चुनौती के सामने अन्ना लड़खड़ा गये ! अब देश से ज्यादा उन्हें अपना व्यक्तित्व प्यारा लगने लगा ! कहीं राजनीति के कीचड़ में फँसकर उनकी साफ सुथरी छवि में दाग न लग जाय ! कहीं चमकती छवि धूमिल न हो जाय ! वे पुरानी गलती के शिकार हो गए ! भारतीय परंपरा उसको आदर देती है जो त्यागी होते हैं। गाँधी ने त्याग किया था, जयप्रकाश ने किया था। उसी की नकल अन्ना ने की। अगर गाँधी खुद देश के प्रधानमंत्री हुए होते तो देश की राजनीतिक दशा कुछ और हुई होती। गाँधी ने सबकुछ त्यागा, लेकिन छवि-मोह नहीं त्याग सके। इससे देश को नुकसान हुआ।
जब भ्रष्ट नेताओं की ललकार का सामना करने की दूर दृष्टि और साहस गुरु ने नहीं दिखाया तो चेला स्वयं झंडा लेकर आगे बढ़ गया और दहाड़ उठा- अगर राजनीति कीचड़ है, तो हम उसके भीतर घुसकर उसे साफ करेंगे। बस इसी वक्त मैं अरविन्द और उनके साथियों पर न्योछावर हो गया। राजनीति की बुराई राजनीति से दूर रहकर दूर नहीं की जा सकती। उसमें घुसना ही होगा। आलोचना सहनी होगी। छवि मोह छोड़ना होगा। छवि धूमिल होने के डर से भागना पलायन है। आप क्या सोचते हैं कि अभी जो कांग्रेस ने जनलोकपाल बिल पास किया है, क्या उसमें अन्ना के अनशन का हाथ है ? नहीं ! केजरीवाल की बढ़ती शक्ति को रोकने का निष्फल प्रयास भर है - तुम जो करोगे, लो, मैं पहले ही कर देता हूँ। लेकिन मैं तुमको हीरो नहीं बनने दूँगा। यह मंशा है ! अगर अन्ना के अनशन से लोकपाल आया होता तो उसी समय आ गया होता जिस समय वे पूरे 13 दिनों तक अनशन पर रहकर मरणासन्न हो गए थे।
तो मैं ‘आप’ को इसलिए पसंद करता हूँ कि ये लोग बहादुर हैं। इन्होंने भ्रष्ट राजनीति को उसकी ही माँद में घुसकर उसे एक बार थर्रा दिया है।
दूसरा कारण यह है कि ये राजनीति से वीआईपी संस्कृति को नष्ट करना चाहते हैं। वी. आई. पी. संस्कृति नष्ट करने का सतही अर्थ है- आलीशान बंगले में न रहना, लाल-पीली बत्ती न लगाना, सुरक्षा न लेना इत्यादि। लेकिन इसका दूसरा अर्थ गहराई में है और वही महत्वपूर्ण है। वह है सत्ता का उपयोग अपने लिए न कर जनता के लिए करना। सत्ता साधन है, जनता की खुशहाली साध्य है। राजनीति से वी. आई. पी संस्कृति ध्वस्त करने का मतलब है- सत्ता का विकेन्द्रीकरण। पंचायत से लेकर प्रखंड,, जिला, कमिश्नरी, राज्य और केन्द्र के बीच सत्ता-शक्ति को बाँटना। सत्ता-शक्ति एक जगह केन्द्रीभूत न हो। वी. आई. पी. संस्कृति समाप्त करने का मतलब है कि राजनेता सारा सम्मान अपने लिए न बटोर ले- सारी जनता के सम्मानित होने में ही वह अपना सम्मान समझे। वह उद्घाटन, शिलान्यास और आत्मप्रचार में समय नष्ट न करे। धन संग्रह न करे, पद के अतिशय लोभ में न पड़े। विधायक, सांसद, मंत्री बनने के लिए बेचैन न रहे। ऐसे आदमी हीन भावना से ग्रसित होते हैं और बहुत ही खतरनाक होते हैं। ‘आप’ में पदाकांक्षा पीड़ित व्यक्ति के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए। आम आदमी पार्टी क्रांति की कोख से पैदा हुई है और क्रांतिकारियों की कोई जात नहीं होती, मजहब नहीं होता। विचारधारा ही उसकी ताकत है।
यह पार्टी जात-पात के आधार पर न तो उम्मीदवार खड़ा करेगी और न वोट माँगेगी। अगर ऐसा किया तो यह अपने लक्ष्य से चूक जाएगी। अगर वोट के लोभ में ‘आप’ ने भी पुराना तरीका अपनाया तो मेरे लिए यह अप्रासंगिक हो जाएगी। ‘आप’ की खूबी यह होगी कि इसका हर सदस्य आम होगा, खास नहीं। राजनीति में इतनी मारामारी खास बनने के लिए ही होती है। आम आदमी पार्टी इसकी जड़ें काटेगी।
भ्रष्टाचार के विरोध में ‘आप’ का जन्म हुआ है। मैं समझता हूँ कि भ्रष्टाचार समस्या का कारण नहीं है, वह मूल रोग का सिम्पटम मात्र है। बहुत सारी बीमारियों में बुखार होते हैं। वहाँ बुखार कारण नहीं है, वह बाहरी लक्षण मात्र है। बीमारी मिटेगी तो बुखार चला जाएगा। भ्रष्टाचार भी बुखार मात्र है। मूल रोग कुशिक्षा, अशिक्षा और गलत चुनाव प्रणाली है। कैसे यह मूल रोग है इसकी व्याख्या जब करूँगा तो मेरा यह कथन ज्यादा स्पष्ट होगा। फिलहाल इतना ही कहना चाहूँगा कि मैं इस दिशा में रास्ता ढूँढ़ने में पार्टी की मदद करूँगा ।
इधर अखबारों में जो खबर छपी है कि मुझे न्यौता मिला है, वह गलत है। मुझे न्यौता नहीं मिला है। दरअसल मैंने ही अपनी इच्छा जाहिर की है। इस इच्छा के पीछे बड़ा मकसद यह है कि इस यज्ञ में अपनी तरफ से भी एक लकड़ी डाल दूँ। पार्टी का प्रयास है कि 26 जनवरी तक 1 करोड़ लोग सदस्य बन जायँ। उस एक करोड़ में मैं भी एक होना चाहता हूँ।
‘आप’ की तरफ मेरे आकर्षण के बड़े कारण प्रो. आनंद कुमार हैं जो बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। उनकी विद्वता, उदार विचार, प्रेमपूर्ण हृदय, अकूत कार्यक्षमता और विजन का कायल हूँ। मैंने जब फोन पर उनसे कहा- भैया, मैं आपकी पार्टी में शामिल होना चाहता हूँ , तो वे बड़े प्रसन्न हुए। कहा- ‘‘स्वागत है, आप जैसे लोगों को इसमें आना चाहिए। देरी न कीजिए।’’ मैंने पूछा- ‘कहाँ सदस्यता लूँ ?’ वे बोले- ‘‘तीन जगहें हैं। आप आॅनलाइन ले सकते हैं, पटने में ले सकते हैं। दिल्ली आकर ले सकते हैं। जिस तरह से आपको आनंद आए, वैसा करें। अगर आप दिल्ली आते हैं तो आपको लेकर मैं पार्टी आॅफिस चलूँगा और पार्टी के अन्य लोगों से भी परिचय करा दूँगा। ठीक है ?’’ ‘ठीक है भैया। मैं सोचकर बताऊँगा।’ सोचने के बाद मुझे लगा, अगर दिल्ली जाकर सदस्यता लेता हूँ तो योगेन्द्र यादव, केजरीवाल, मनीष सिसौदिया आदि से भी परिचय हो जाएगा। अच्छा रहेगा, वहीं जाकर लूँ। तीन चार दिनों के बाद मैंने रेल में आरक्षण कराया और तीन दिन वहाँ ठहरने का कार्यक्रम तय किया। यह सब मैंने आनंद भैया से समय निर्धारित किए बिना अपने मन से किया।
उसके बाद मैंने आनंद भैया से जानकारी ली तो मालूम हुआ कि वे इन तीन दिनों में वे दिल्ली से बाहर अलग अलग जगहों में व्यस्त रहेंगे। उन्हेांने सलाह दी कि अब आप पटने में ही सदस्यता ले लें। बिहार-झारखंड प्रभारी सोमनाथजी 16 जनवरी को जा रहे हैं। वहाँ पार्टी आॅंफिस बन गयी है।
मैंने सोमनाथ त्रिपाठीजी से टेलीफोन पर बात की और सदस्य बनने की इच्छा व्यक्त की। उन्होंने जो बात कही, वह मुझे जँची। उन्होंने कहा कि मैं पहले वहाँ के सदस्यों से इस पर बात करूँगा, फिर आपसे बात करूँगा। तब इस पर निर्णय लूँगा। ऐसा होना ही चाहिए, क्योंकि अगर यहीं के लोग पार्टी में मेरे आगमन पर आपत्ति करेंगे, तो मैं पार्टी में अप्रासंगिक हो जाऊँगा।
मैं ‘आप’ में इसलिए शामिल नहीं होना चाहता कि आम से खास हो जाऊँ। मैं इसलिए शामिल होना चाहता हूँ कि अपनी दृष्टि और मूल्यों से पार्टी को मजबूत करूँ।
मैं ‘आप’ में शामिल होना चाहता हूँ , क्योंकि यह वर्तमान दूषित राजनीति का विकल्प बनकर खड़ी है- ‘आप’ बेईमान राजनीति की जगह ईमानदार राजनीति का उद्घोष है। जनता में खैरात बाँटने की जगह सत्ता सौंपने वाली पार्टी है। पुराने खतरनाक ढाँचे की जगह नवीन ढाँचे को लाने का इरादा रखनेवाली पार्टी है। यह तभी संभव होगा जब संविधान में संशोधन होगा और संशोधन तभी होगा जब इसे दो तिहाई बहुमत मिलेगा। लेकिन बहुमत लेने के लिए हमें क्रांति के पक्ष में पूरे देश में हवा बहानी है। इस बात के प्रति सजग रहना है कि हमारे बीच पुरानी राजनीतिक मानसिकता के लोग हावी न हों। ‘आप’ चुनाव हार जाय, यह मुझे मंजूर है, लेकिन वोट के लिए पुरानी राह पर चल पड़े , यह नामंजूर है। जो सफलता को मुट्ठी में बाँधकर चलना चाहते हैं, वे गलत लोग हैं। आज की राजनीति में यही तो है- हर हाल में चुनाव जीतो, चाहे इसके लिए जो भी करना पड़े। इसी राजनीति ने तो तबाह किया है देश को।
क्रांतिकारी वह है जो पुराने नियम और नैतिकता पर पुनर्विचार करता है और जरूरी होने पर उसे बदलता है। इसी के लिए वह कुर्बानी देता है। आज देश को ऐसे ही लोगों की जरूरत है। ‘आप’ ऐसे लोगों को एक मंच प्रदान करे, यही मेरी कामना है।
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