इधर कुछ दिनों से पटना विश्वविद्यालय अख़बारों की सुर्खियों में रह रहा है. हिंदुस्तान का चौथा पेज तो लगभग पूरा का पूरा पटना विश्वविद्यालय की सुर्खियों को समर्पित है. दरभंगा हाउस में हिंदी विभाग की छात्राओं के साथ बाहरी तत्वों ने छेड़खानी की है. विरोध होने पर विभागाध्यक्ष के कमरे में घुसकर मारपीट की है . इसके पहले बी. एन. कॉलेज के प्रथम वर्ष के बी. बी. ए के एक छात्र ने उसी कोर्स की तीसरी वर्ष की छात्रा के साथ अभद्र वयवहार किया था और जब छात्रा प्राचार्य कक्ष पहुंची तो वहां भी साथ-साथ गया और प्राचार्य के समक्ष दुर्व्यवहार का दुस्साहस किया. ठीक इसके पहले दरभंगा हाउस में दर्शनशास्त्र की छात्रा के साथ छेड़खानी की घटना घटी thi . बी. एन. कॉलेज में तोड़-फोड़ करते छात्रों का फोटो छापा है . इसका कारण कैम्पस में असामाजिक तत्वों का जमावडा बताया जाता है . प्राचार्य कहते हैं , हॉस्टल के छात्र शैक्षणिक माहौल को बिगाड़ रहें हैं . कुछ दिन पहले छात्रों और असामाजिक तत्वों के बीच भिडंत हुई थी और कॉलेज मैदान पानीपत के मैदान मे बदल गया था. छात्रों की शिकायत है कि छात्रावास में पेयजल और गंदगी का संकट है . चारों तरफ गंदगी है और प्रशासन बेपरवाह है. इसलिए उन्होंने आक्रोश में आकर विश्वविद्यालय गेट तोड़ने की कोशिश की.
इधर मगध महिला कॉलेज प्रथम वर्ष की छात्राएं बड़ी संख्यां में वैकल्पिक पत्र में फेल कर दी गयीं हैं . कुलपति से शिकायत करने वे कार्यालय पहुंची. उन्होंने अनसुनी की. छात्राओं ने जब हंगामा खडा कर दिया तब कुलपति के कान खड़े हुए. कुछ दिन ही पहले सायंस कॉलेज में केजुअल नामांकन में हुई धांधली को लेकर छात्रों ने प्राचार्य कक्ष में हंगामा किया, तोड़फोड़ की. इसके पहले वाणिज्य महाविद्यालय और दरभंगा हाउस में इसी बात को लेकर नामांकन बंद करवा दिया था. छात्रों के साथ धोखेबाजी को लेकर छात्र प्रतिनिधिमंडल कुलपति से मिला और उनसे शिकायत की कि पत्रिका के लिए छात्रों से शुल्क लिए जाते हैं, लेकिन पत्रिकाएं नहीं छपतीं और न तो पत्रिकाएं खरीदी जाती हैं. मेडिकल फीस के नाम पर छात्रों से नामांकन के समय पैसे वसूले जाते हैं, लेकिन वे पैसे समय पर और सम्पूर्णता में सेंट्रल डिस्पेंसरी नहीं पहुंचते. यहाँ तक कि यू. जी. सी से प्राप्त पैसे भी आधे-अधूरे दिए जाते हैं और वे भी किस्तों में. इसका दुष्परिणाम है कि छात्रों को दवाएं नहीं मिलती. बी. एड. की प्रवेश परीक्षा में हुई धांधली के आरोपों की जाँच के लिए छात्रों के दवाब में कुलपति को जाँच कमिटी बैठानी पड़ी. कहाँ तक गिनाया जाये - हरि अनंत हरि कथा अनंता है. छेड़खानी , हंगामा, धरना, तोड़-फोड़, मारपीट, गोलीबारी परीक्षा में अनियमितता, घोटाला यही पटना विश्विद्यालय की पहचान है.
छात्रों के क्षणभंगुर हिंसक आन्दोलन होते हैं , शिक्षकों के नपुंसक आन्दोलन होते हैं, कर्मचारियों के उग्र आन्दोलन होते हैं. ये सभी आन्दोलन निजी स्वार्थ की मांगे रख्नने के लिए होते हैं. सुनवाई नहीं होने पर ये अधिक से अधिक यही मांग करते हैं कि कुलपति हटाओ, कुलसचिव भगाओ. लेकिन कोई भूल से भी नहीं कहता कि इस कुशिक्षा को मिटाओ. कुलपति के हटने से कुछ नहीं होता. एक हटते हैं, या हटायें जाते हैं फिर उसी नस्ल के दूसरे आदमी बैठा दिए जाते हैं. कुछ दिनों तक राहत रहती है. फिर वही सिलसिला ... वीसी का बदलना एक बहाना है . प्यार का सिलसिला पुराना है!
अब देखिये न, एक हास्यास्पद घटना. जिस कार्यालय में कुलपति प्रतिदिन बैठते हैं उसी का औचक निरीक्षण करने कल वे निकल पड़े थे. यह कैसा तमाशा है! विश्विद्यालय कार्यालय एक शरीर की तरह है. कुलपति मस्तिष्क हैं, अन्य अधिकारी एवं कर्मचारी उसके अंग उपांग हैं. फाइलों का चढ़ना- उतरना रक्तसंचार है. इसके माध्यम से अपने अंगों की हर गतिविधि का पता कुलपति को चलना चाहिए . कहीं कुछ गडबडी होती है तो मस्तिष्क को तुरत खबर होती है. कहीं आपने सुना है की पैर में दर्द हुआ तो सर उसे देखने के लिए पैर पर चला गया है? लेकिन हमारे कुलपति सर चले गए थे !
मेरे अब तक के जीवन में केवल एक बार १९७४ में एक छात्र आन्दोलन शुरू हुआ था, जिनकी चार प्रमुख मागों में एक शिक्षा में परिवर्तन थी. वह मांग भी मेरा ख्याल है कि जयप्रकाश की सलाह से रखी गयी होगी. जेपी इस देश के अंतिम बड़े क्रांतिकारी थे . उनकी क्रांति पूर्णतः विफल हुई, क्योंकि तैयारी के बिना उन्ही राजनीतिक दलों का साथ उन्हें लेना पड़ा था, जिनके सरीखे तत्वों के विरूद्व वह आन्दोलन खडा हुआ था. एक आन्दोलन की विफलता आगे आनेवाले कई आंदोलनों के लिए बंजर भूमि का काम करती है. आज विश्वविद्यालय एक बंजर भूमि है. इस बंजर के विरूद्व एक पेड़ हरियाली के साथ लहरा रहा था. उसे काटकर कैम्पस से बाहर कर दिया गया. क्योंकि बार-बार वह बंजर के खिलाफ आवाज बुलंद कर रहा था. बंजर की छवि इससे धूमिल होती थी. बंजर की महत्ता इस बात में है कि वहां एक भी हरा पेड़ पैदा न हो! सुधा सराहिअ अमरता गरल सराहिअ मीचु. तुलसीदास कहते हैं, वह अमृत असली है जो अमरता दे , वह विष असली है जो मौत दे दे . अपनी असलियत की रक्षा के लिए विश्ववविद्यालय को एक शिक्षक को बाहर फेंकना पड़ा. विजातीय तत्व था !
मुझे महान क्रांतिकारी शायर फैज अहमद फैज की मशहूर नज्म याद आ रही हैं-
निसार मैं तेरी गलियों पे ऐ वतन, कि जहाँ
चली है रस्म कि कोई न सर उठाके चले
जो कोई चाहनेवाला तवाफ़ को निकले
नजर चुराके चले, जिस्म -औ-जाँ बचाके चले
फैज क्रांतिकारी थे, देशभक्त थे, विजातीय थे , इसीलिये जेल में थे. यह कविता उन्होंने वहीँ लिखीं हैं. उनके शब्दों का सहारा लेकर कहना चाहूँगा कि ऐ पटना विश्वविद्यालय, मैं तुम पर बलि-बलि जाऊं कि तुम्हारे यहाँ ऐसी रस्म चली है कि कोई सुशिक्षा, स्वाभिमान, सत्य, शौर्य, साहस, ईमानदारी और प्रेम की बात न करे. अगर किसी में ऐसे कीटाणु हों भी तो वे कैम्पस से बाहर नजर चुरा के, जिस्म औ जान बचाके चले, वरना खैर नहीं.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें