मुसाफिर भाई के प्रति आभार प्रकट करता हूँ कि उन्होंने ठंडे दिमाग से मेरा लेख ‘प्रेम न जानै जात’ पढ़ा। वरना मेरा नाम सुनते ही कई लोगों के दिमाग गरम हो जाते हैं और आलेख पढ़ते हुए इतने उबल जाते हैं कि उनकी बुद्धि भाप बनकर उड़ जाती है। उस बुद्धिहीन अवस्था में वे ऐसी टिप्पणियाँ कर जाते हैं, जो उनका ही उपहास उड़ाती हैं। लेकिन सिर्फ ठंडा दिमाग काफी नहीं है। चित्त का शांत होना जरूरी है। किसी की बातों को ठीक-ठीक समझना एक साधना है; क्योंकि पढ़ते वक्त बिलकुल तटस्थ हो जाना पड़ता है। अपने पूर्व अर्जित ज्ञान की छाया से उस वक्त बाहर हो जाना पड़ता है। खासकर वहाँ जहाँ ऐसी बात कही जा रही हो, जिससे हम पहले से उतने परिचित नहीं होते।
मुसाफिर भाई के अनुसार मेरे लेख की मूल भावना है - ‘वैवाहिक संबंध का आधार आपस का नैसर्गिक@ प्राकृतिक प्यार होना चाहिए।’ उनके इसके वाक्य के अनुसार मेरे कथन की मूल भावना यह है कि प्राकृतिक प्रेम आधार है और विवाह आधेय। प्राकृतिक प्रेम नींव है और विवाह इमारत। मैं सोचता हूँ कि क्या मेरे लेख की यही मूल भावना है ? क्या मैंने ऐसा लिखा है ? नहीं, मेरा ऐसा लिखना नहीं है। मेरा कहना है कि प्राकृतिक प्रेम नींव है और इमारत भी। प्राकृतिक प्रेम बीज भी है और फूल भी। प्राकृतिक प्रेम बीज से फूल तक की यात्रा है। वह विवाह का साधन नहीं है। वह साधन भी है और साध्य भी। वह मंजिल भी है और मार्ग भी। विवाह उसकी मंजिल नहीं, किसी सुविधा के ख्याल से बीच में विवाह आ जाय तो अलग बात है। यह बात शुरू में ही स्पष्ट हो जानी चाहिए कि सामाजिक प्रेम और प्राकृतिक प्रेम के बीच विभाजक रेखा विवाह नहीं है।
उनकी टिप्पणी से ऐसा प्रतीत होता है कि सामाजिक प्रेम और प्राकृतिक प्रेम के भेद को लेकर उनके समक्ष एक भ्रम की स्थिति बनी हुई है। उन्होंने लिखा है- ‘सामाजिक प्रेम और प्राकृतिक प्रेम जैसा कोई विभेदक वर्ग अस्तित्ववान नहीं हो सकता। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और समाज है तभी प्रेम है।’
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, इससे कौन इंकार करेगा भला ? लेकिन कोई अगर इसका अर्थ यह समझे कि मनुष्य समाज का गुलाम प्राणी है, तो इस अर्थ में मनुष्य को सामाजिक प्राणी कहना घातक है। मनुष्य सामाजिक प्राणी है, लेकिन समाज का दास नहीं है। मनुष्य सामाजिक प्राणी इस अर्थ में है कि व्यक्तित्व के विकास के लिए, अनेक जरूरतों की पूर्ति के लिए समाज अनिवार्य है। लेकिन समाज ठीक इसके उलट काम करना शुरू कर दे तो उस समाज को बदलने की जरूरत है। पुराने जर्जर समाज को विदा करने और नये प्राणवान समाज को अस्तित्ववान करने की जरूरत है। जो समाज व्यक्ति के स्वतंत्र विकास में सहायक नहीं, वह कुरूप है। जो समाज व्यक्ति के अलग अलग व्यक्तित्व को खिलने न दे, उसे एक खास सांचे में ढाले, वह जीवंत नहीं।
समाज में ही बुद्ध हुए, कबीर हुए, मीरा हुईं। क्या इन लोगों का प्रेम वही है जो समाज में चलता है ? इनका प्रेम विरल है, लेकिन समाज के हित में है, उसके लिए प्रेरक है, मशाल है, आदर्श है। समाज में प्रचलित प्रेम का जो रूप है, वह उसे गर्त में ले जा रहा है। समाज सुंदर बनेगा तब जब वह प्रेम के प्राकृतिक रूप को समझ कर उसे निखारेगा। प्राकृतिक प्रेम से मेरा तात्पर्य वह प्रेम जो प्रकृति के अनुकूल हो। जो प्रेम प्रकृति के अनुकूल न होकर जड़ मान्यताओं का शिकार होकर भटक गया है , उसी को मैंने सामाजिक प्रेम कहा है। इसे कुरूप, विकृत, रुग्ण, असहज, अस्वाभाविक, कृत्रिम, कपटपूर्ण आदि नामों से भी पुकारा जा सकता था। दोनों की तुलना इन शीर्षकों से की जा सकती थी - कुरूप प्रेम और सुंदर प्रेम, रुग्ण प्रेम और स्वस्थ प्रेम, कृत्रिम प्रेम और प्राकृतिक प्रेम, अस्वाभाविक प्रेम और स्वाभाविक प्रेम, पाखंडपूर्ण प्रेम और सहज प्रेम आदि। लेकिन ऐसा न कर मैंने जान बूझकर दोनों प्रकारों को क्रमशः सामाजिक प्रेम और प्राकृतिक प्रेम नाम दिया है। मुख्य कारण यह है कि सामाजिक प्रेम नैसर्गिकता से दूर वर्जनाओं की बन्द कोठरी मंे दम तोड़ रहा है। प्राकृतिक प्रेम को स्वाभाविक प्रेम, सहज प्रेम, नैसर्गिक प्रेम, स्वच्छंद प्रेम आदि कुछ भी कहा जा सकता है। सामाजिक प्रेम और प्राकृतिक प्रेम जीने की दो भिन्न शैलियाँ हैं, दो भिन्न जीवन दृष्टियाँ हैं। सामाजिक रीति से किये गये विवाह के भीतर भी प्राकृतिक प्रेम हो सकता है और इससे अलग प्रेम विवाह भी सामाजिक प्रेम में तब्दील हो सकता है। प्रेम विवाह करने वाला व्यक्ति भी अगर जाति, संप्रदाय आदि संकीर्णताओं से मानसिक तौर पर जुड़ा है तो वह सामाजिक प्रेम के अंतर्गत ही आएगा। जब तक यह भाव मन में न आए कि हम सब एक ही वृक्ष की शाखाएँ हैं, तब तक प्रेम प्राकृतिक नहीं हो सकता। इन दोनों प्रकार के प्रेम को ठीक ठीक समझने के लिए दोनों के बीच जो मूलभूत अंतर हंै, उन पर नजर डालना जरूरी है। कुछ मुख्य भेदों को मैं रखना चाहूँगा।
1. सामाजिक प्रेम जाति के दायरे में होता है, जबकि प्राकृतिक प्रेम किसी भी जाति में हो सकता है। यहाँ इस बात को ख्याल में रखना जरूरी है कि प्राकृतिक प्रेम का मतलब हमेशा अंतरजातीय प्रेम या विवाह नहीं होता, क्योंकि वह अपनी जाति में भी हो सकता है और अपनी जाति के बाहर भी। मुख्य बात यह है कि उसे समाज निर्मित कृत्रिम जाति से कोई मतलब नहीं रहता।
2. सामाजिक प्रेम का आधार धर्म या संप्रदाय है, प्राकृतिक प्रेम दो संप्रदायों के बीच भी हो सकता है। वह अंतरपं्रातीय, राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय कुछ भी हो सकता है।
3. सामाजिक प्रेम में लड़का-लड़की की उम्र करीब करीब बराबर होती है, इसमें भी इस बात का ख्याल रखा जाता है कि लड़की चार पाँच वर्ष छोटी होनी चाहिए, ताकि मरने से पहले बूढ़े की सेवा के लिए बुढ़िया स्वस्थ और मजबूत रहे ! प्राकृतिक प्रेम में उम्र की कोई बंदिश नहीं होती। स्त्री पुरुष में कोेई भी छोटा बडा हो सकता है और वह फासला कुछ भी हो सकता है।
4. सामाजिक प्रेम में लड़का-लड़की का मानसिक और दिली धरातल पर मेल न कराकर, बाहरी तत्वों का मेल कराया जाता है, जैसे- कंुडली, खानदान, हैसियत इत्यादि। प्राकृतिक प्रेम हृदय का मिलन है। इसीलिए सामाजिक प्रेम में शहनाई बाहर बजती है, जबकि प्राकृतिक प्रेम में दिल के अंदर।
5. सामाजिक प्रेम एक प्रकार का व्यापार है। दहेज की लेन देन, भाव मोल, उसके लिए मुँह फुल्ला फुल्ली, गरमा गरमी, उससे उत्पन्न संबंधों में कटुता और ऊपर से विनम्रता का दिखावा इसके लक्षण हैं। जिनके घरों में बेटियों की संख्या ज्यादा है , वे भगवान से यही प्रार्थना करते हैं- ‘हरहु नाथ मम संकट भारी।’ दहेज का प्रेत अंत अंत तक पीछा करता है। कभी-कभी घरेलू हिंसा का रूप लेते हुए अंत में लड़की की हत्या या आत्महत्या में तब्दील हो जाता है। जहाँ इस तरह की अतिवादी घटनायें नहीं भी घटती हंै वहाँ भी मनुष्य की संवेदना इतनी भोथरी हो चुकी होती है कि यह पशुुवत खरीद बिक्री उन्हें अखरती नहीं। प्राकृतिक प्रेम में इस तरह की बातें कल्पना से परे है।
6. सामाजिक प्रेम एक आडंबर बनकर रह गया है। बारात की हुड़दंग, पटाखों के द्वारा ध्वनि एवं वायु प्रदूषण, असांस्कृतिक नाच गान, आग्नेयास्त्रों का प्रदर्शन, दुर्घटना आदि विवाह के भूषण हैं। शादी में तथाकथित बड़े लोगों की जुटान, गाड़ियों की लंबी कतारें, उनके आन बान और शान की द्योतक मानी जाती हैं। इस आडंबर की होड़ में गरीब को भी जबरन शामिल होना ही पड़ता है और इसी में वे बिक जाते हैं। कोई ऐसा न करे तो उसे लोक निंदा का शिकार होना पड़ता है। यह अमानवीय परंपरा समाज को न केवल मान्य है बल्कि आदर्श रूप में प्रतिष्ठित भी है !
7. सामाजिक प्रेम में बालिग लड़के-लड़िकयाँ भी अयोग्य मानी जाती हैं और वे अपने साथी के चुनाव में स्वतंत्र नहीं हैं। इसलिए उनकी जोड़ी उनके माता पिता और परिवार के लोग लगाते हैं। दोनों पक्षों में झूठ सांच बोलकर बरतुहारी तय की जाती है ! इसमें लड़का-लड़की के रूप, गुण, कमाई वगैरह बढा़ चढा़ कर बताया जाता है ! ऐब छिपाये जाते हैं जो आगे प्रकट होने पर संबंधों में कलह उत्पन्न करते हैं !
8. विवाह मंडप पर कन्या के भरण पोषण एवं जन्म जन्मांतर तक प्रेम निबाहने की जो प्रतिज्ञा करवायी जाती है, वह अपने आप में हास्यास्पद है; क्योंकि जो प्रेम अभी पैदा ही नहीं हुआ है भविष्य में होना है, उसके निर्वाह की प्रतिज्ञा कैसे की जा सकती है ? दूसरी समझने योग्य बात यह है कि क्या प्रेम को प्रतिज्ञा लेने की जरूरत पड़ती है ? प्रतिज्ञा तो प्रेम के अभाव की पूर्ति है। प्रतिज्ञा प्रेम का उपहास है ! इसीलिए प्राकृतिक प्रेम में प्रतिज्ञा का कोई स्थान नहीं है। क्या किसी ने कभी देखा-सुना है माँ को अपने नवजात शिशु के लिए प्रतिज्ञा करते हुए कि हे पुत्र ! मैं अग्नि को साक्षी मानकर प्रतिज्ञा करती हूँ कि तुम्हारा लालन पालन बड़े प्यार से करूँगी ?
9. सामाजिक प्रेम में लड़का-लड़की अयोग्य और अक्षम माने जाते हंै, इसलिए उनके प्रेम के संचालन की बागडोर कई लोगों के हाथों में होती है। लड़की अपनी माता, पिता, भाई, बहन, भौजाई से मार्गदर्शन लेती है कि पति और ससुराल के अन्य लोगों के साथ कैसा व्यवहार किया जाय और लड़का अपने मां बाप आदि से। इस क्रम में अक्सर पति पत्नी के बीच संबध बनने के बजाय और बिगड़ जाता है। सास पतोहू , ननद भौजाई का झगड़ा भी शुरू हो जाता है। लेकिन प्राकृतिक प्रेम स्वविवेक और आपसी समझ से संचालित होता है। इसलिए बाहरी हस्तक्षेप से सामाजिक प्रेम में जो गड़बड़ियाँ पैदा होती हैं, वे यहाँ नहीं हो पातीं।
10. सामाजिक प्रेम में विवाह पहले होता है, प्रेम बाद में। बाद में भी प्रेम होगा या नहीं इसकी क्या गारंटी है! प्राकृतिक प्रेम में प्रेम पहले होता है, बाद में विवाह हो भी सकता है और नहीं भी। इस तरह सामाजिक प्रेम विवाह प्रधान होता है और प्राकृतिक प्रेम प्रेम प्रधान।
11. सामाजिक प्रेम का आदर्श है उसका टिकाऊपन। जो प्रेम टिकता है उसे सफल माना जाता है। उसकी बड़ी सराहना होती है। टूटे हुए प्रेम की निंदा होती है। इसलिए इसमें प्रेम के टिकने पर सर्वाधिक जोर होता है, जबकि प्राकृतिक प्रेम क्षणिक उन्मेष है। वह क्षण फैल भी सकता है, पूरे जीवन तक चल सकता है और दूसरे क्षण विलीन भी हो जा सकता है। प्राकृतिक प्रेम का जोर उसके टिकाऊपन पर नहीं होता, उसकी गुणवत्ता पर, उसके आनंद की सघनता पर होता है। वह जानता है कि प्रेम की वर्षा ऊपर से हुई है, कब बंद हो जायेगी, नहीं मालूम। लेकिन जितनी देर तक प्रेम की झमाझम बारिश होती है उतने पल ही वर्षों के सामाजिक प्रेम पर भारी पड़ जाते हंै। सामाजिक प्रेम पतला होता है, प्राकृतिक प्रेम में घनत्व होता है।
12. सामाजिक प्रेम में जिम्मेदारी का निर्वहन बहुत बडे क्रेडिट का काम माना जाता है। जिम्मेदारी के निर्वहन में ही इस पर प्रेम की इतिश्री हो जाती है। प्राकृतिक प्रेम में जिम्मेदारी का निर्वहन बिना प्रयास के आनंद से अपने आप हो जाता है। जिम्मेदारी का पालन आनंद के पीछे छाया की तरह चलता है। एक में जिम्मेदारी का पालन सायास किया जाता है, कभी कभी अनिच्छापूर्वक भी जबकि दूसरे में अनायास हो जाता है, आनंदपूर्वक।
13. सामाजिक प्रेम पुरुष प्रधान होता है, स्त्री गौण होती है। परिवार में वह दोयम दर्जे की नागरिक होती है। वह बोझ मानी जाती है और अक्सर भू्रण में ही उसको मार भी दिया जाता है। वहाँ पुरुष स्वतंत्र और स्त्रियाँ अपेक्षाकृत परतंत्र होती हैं। प्राकृतिक प्रेम में स्त्री पुरुष दोनों के व्यक्तित्व स्वतंत्र होते हैं। वह दो स्वतंत्र सत्ताओं का मिलन है। स्त्रियों को व्यक्तित्व तो यही प्रेम देता है। जिस परिवार में प्रेमी प्रेमिका अथवा पति पत्नी बराबर हैसियत से रहेंगे, निश्चय ही वहाँ बच्चों के लालन पालन और शिक्षा दीक्षा में बराबरी का ध्यान रखा जाएगा। बेटी को कभी भी शिक्षा के किसी भी अवसर से वंचित नहीं किया जाएगा।
14. सामाजिक प्रेम के केन्द्र में वर्जना होती है, इसलिए उसकी प्रतिक्रिया में उच्छृंखलता पैदा होती है। वर्जना और उच्छृंखलता सामाजिक प्रेम के अनिवार्य अंग हैं। सामाजिक प्रेम, प्रेम के दो ही रूपों को जानता है- एक, दबा हुआ प्रेम जिसको वे मर्यादित प्रेम कहते हैं, दूसरा दबाव की प्रतिक्रिया में उत्पन्न प्रेम जिसे वे उच्छृंखल प्रेम कहते हैं। इसलिए इस श्रेणी के लोग उस प्रेम की कल्पना भी नहीं कर पाते हैं जो न दबा होता है और न उच्छृंखल। प्राकृतिक प्रेम अपने में मस्त रहने वाला और दूसरों की मस्ती का ख्याल रखने वाला सहज स्फूर्त प्रेम होता है। उसकी स्वच्छंदता किसी प्रतिक्रिया की देन नहीं, वह हृदय का उल्लास है।
15. सामाजिक प्रेम में वर्जना के कारण अनेक विकार पैदा होते हैं। अपने ही कुटुम्ब में चुपके से यौन संबंध स्थापित हो जाता है। प्राकृतिक प्रेम वर्जनारहित होने के कारण इस विकार से रहित होता है।
16. सामाजिक प्रेम में प्रायः सभी दूसरे की घरों की स्त्रियों पर नजर गड़ाये रखते हैं और अपने घर की स्त्री पर पहरा देते हैं। इसकी वजह से सभी पाखंडपूर्ण जीवन जीते हैं, क्योंकि अंदर का मन ललचाया रहता है, ऊपर का मन शराफत दिखलाता है। प्राकृतिक प्रेम मनुष्य की इस प्रवृत्ति को सहजता से स्वीकार करता है, इस आकर्षण को सुंदर रूप में ढाल देता है और उसे कभी अशोभन नहीं होने देता।
वर्जना के कारण समाज में लूहेड़ों, लफंगों, विकृत ढंग के शर्मीलों की संख्या बहुतायत होती है। सड़कों, बाजारों, शिक्षण संस्थानों में स्त्रियों को घूरना, छेड़छाड़ करना वर्जना का प्रतिफल है।
प्राकृतिक प्रेम में इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती, क्योंकि ये विकार दूरी के कारण उत्पन्न होते हैं। प्राकृतिक प्रेम स्त्री पुरुष को साथ रहने-जीने का अवसर देता है, इसलिए इसकी जरूरत ही नहीं पड़ती।
17. सामाजिक प्रेम में बुढ़ापे तक यौन अभिलाषा दबी अवस्था में बनी रहती है। जबकि प्राकृतिक प्रेम में एक अवस्था के बाद यौन लिप्सा समाप्त हो जाती है।
18. सामाजिक प्रेम प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से सेक्स की खरीद बिक्री की धुरी पर टिका होता है। वेश्यालय, कॉल गर्ल आदि खरीद बिक्री के प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। लेकिन सामाजिक जीवन में जो सेक्स के पेशेवर व्यापारी नहीं हैं, वे भी किसी न किसी स्वार्थवश सेक्स की खरीद फरोख्त करते हैं। कभी कोई सुविधा, कभी रिजल्ट, कभी नौकरी, कभी प्रमोशन आदि प्रदान कर नाना रूपों में अंदर अंदर सेक्स खरीदा जाता है। विवाह, जिसको हम अत्यन्त पावन संबंध मानते हैं, जिस पर गर्व करते हैं, वहाँ भी जीवन भर के लिए सेक्स का सौदा होता है। शुरू में दहेज के रूप में लड़के खरीदे जाते हैं, बाद में पति सेक्स की कीमत जिंदगी भर की कमाई पत्नी को देकर चुकाते हंै।
प्राकृतिक प्रेम सेक्स के लिए कोई चार्ज नहीं करता, उसे उन्मुक्त रखता है- बिल्कुल फ्री। वह सिर्फ दो व्यक्तियों की इच्छा पर निर्भर है।
19. सामाजिक प्रेम में स्त्री पुरुष एक दूसरे को बाँधकर रखना चाहते हैं, प्राकृतिक प्रेम एक दूसरे की स्वतंत्रता का सम्मान करता है। यह बात ध्यान में रखने की है कि अगर लव मैरिज करने वाले प्रेमी जोड़े एक दूसरे को स्वतंत्रता न दें, बाँधकर रखें, ईष्र्या से भर जायँ, तो वह भी सामाजिक प्रेम ही होकर रह जायेगा। इसीलिए प्राकृतिक प्रेम एक साधना है। तपस्या के बिना इस प्रेम का रस नहीं चखा जा सकता है। तपस्या के अभाव में सामाजिक प्रेम के भीतर ईष्र्या, द्वेष, कलह, क्रोध, आरोप-प्रत्यारोप, हिंसा, गुलामी, पाखंड आदि का साम्राज्य रहता है, जबकि प्राकृतिक प्रेम मंे सद्भाव, मैत्री, सहयोग, करुणा, अहोभाव और उमंग की तरंगें उठती हैं।
20. एक विचित्र विरोधाभास है कि सामाजिक प्रेम में पति पत्नी एक दूसरे को गुलाम बनाकर भी बाँध नहीं पाते, वे उससे छिटक जाना चाहते हैं और कभी छिटक भी जाते हैं; जबकि प्राकृतिक प्रेम मंे एक दूसरे को दी गयी स्वतंत्रता ही उन्हें एक दूसरे से बाँध देती है।
सामाजिक प्रेम की एकनिष्ठता समाज, परिवार, परंपरा, कानून आदि द्वारा आरोपित है। प्राकृतिक प्रेम की एकनिष्ठता आत्मा द्वारा प्रेरित, ऐच्छिक है।
21. सामाजिक प्रेम का केन्द्र बिन्दु है ईष्र्या। समाज के लगभग सारे नियम, कानून और नैतिकता ईष्र्या को केन्द्र में रखकर बनाये गये हैं। प्राकृतिक प्रेम का केन्द्र बिन्दु है स्वतंत्रता। अगर प्रिय पात्र की भावधारा दैवयोग से किसी अन्य की ओर बहने लगे और यह बात अखरने लगे तो भी उसका विवेकशील मन कोई अशोभनीय काम नहीं करेगा। प्राकृतिक प्रेम ज्यादा से ज्यादा अनुनय विनय कर सकता है, उसे एकांत तपश्चर्या में तब्दील कर सकता है, लेकिन किसी भी हालत में अपने प्रिय पात्र को ठेस नहीं पहुँचा सकता है।
सामाजिक प्रेम इसकी परवाह नहीं करता। वह येन केन प्रकारेण अपने प्रिय पात्र को हासिल करना चाहता है। हासिल न होने पर वह हिंसक हो सकता है। जिस पर कल तक मरता था, आज उसी को मारने को उतारू हो जाता है।
22. सामाजिक प्रेम को प्राकृतिक प्रेम की आजादी सुहाती नहीं। वह पूछता है, यह कैसा प्रेम है जो किसी एक को तड़पता छोड़ कर दूसरा किसी अन्य के पास चला जाता है! वास्तव में किसी को तड़पता छोड़ कर किसी दूसरे के पास जाना केवल सामाजिक प्रेम में होता है। कोई किसी के लिए सच्चे भाव से तड़पे और प्रेमी उसे छोड़कर दूसरे के पास चला जाय, यह संभव नहीं। प्यार की तड़प और अधिकार भावना के मद में किसी को जबर्दस्ती बाँधकर अपने अधीन रखने की तड़प में आकाश पाताल का अंतर होता है!
23. सामाजिक प्रेम का आधार पाखंड है। स्त्री पुरुष एक दूसरे से भय के कारण छिपाव रखते हैं। अंदर कुछ, बाहर कुछ। प्राकृतिक प्रेम में हृदय निर्मल रहता है। कोई दुराव छिपाव नहीं। अंदर बाहर की एकता बनी रहती है। इसलिए कोई भेद खुलने का डर नहीं रहता। भय सामाजिक प्रेम को अंदर ही अंदर खोखला कर देता है, क्योंकि जहाँ भय है, वहाँ प्रेम नहीं हो सकता। तुलसीदास जब कहते हैं- ‘बिनु भय होहिं न प्रीति’- तो यह मनोविज्ञान की कसौटी पर सही नहीं उतरता। वास्तविकता यह है कि प्रेम और भय एक दूसरे के विपरीत हैंं। दोनों एक जगह निवास नहीं कर सकते।
24. सामाजिक प्रेम माता-पिता, परिवार और समाज के द्वारा नियमानुसार प्रायः सबको मिल जाता है। प्राकृतिक प्रेम प्रकृति का मनुष्य को सर्वोत्तम उपहार है। लेकिन इस उपहार को बचाये रखने के लिए परिवार और समाज से कड़ा संघर्ष करना पड़ता है, कभी कभी कानून से भी। सामाजिक प्रेम मुफ्त मंे मिलता है, इसलिए उसकी कोई ज्यादा कीमत नहीं होती। प्राकृतिक प्रेम लड़कर हासिल करना पड़ता है, इसलिए भी बेशकीमती हो जाता है।
25. प्राकृतिक प्रेम को सामाजिक प्रेम से डर नहीं लगता, लेकिन सामाजिक प्रेम प्राकृतिक प्रेम के भय से थर थर काँपता है। अपनी सुरक्षा को लेकर वह इतना भयभीत रहता है कि प्राकृतिक प्रेम पर अनेक तरह से हमला बोल देता है। कारण क्या है ? प्राकृतिक प्रेम अपने आप में संतुष्ट रहता है। वह सामाजिक प्रेम की तरफ ललचायी नजरों से नहीं देखता, लेकिन सामाजिक प्रेम अतृप्त रहने के कारण प्राकृतिक प्रेम की ओर हसरत भरी निगाह से देखता है। दुखियों की बस्ती में कोई एक सुखिया हो तो उसका सुख कैसे देखा जायेगा ? उसे अपने जैसा बना लेने से थोड़ी तसल्ली दिल को मिलती है। इसलिए वह उस पर हमला होता है। अपने जैसा बनाने की चेष्टा सामाजिक प्रेम की ओर से सदैव चलती रहती है।
26. प्राकृतिक प्रेम ताकतवर होता है। प्रकृति की सत्ता में अपनी सत्ता लय करने के कारण प्रकृति की शक्ति उससे आ मिलती है; लेकिन सामाजिक प्रेम प्रकृति से अपने को काट लेने के कारण पुरुषार्थहीन हो जाता है, दुर्बल, क्षीणकाय और रुग्ण। यही कारण है कि लाखों सामाजिक प्रेमियों पर एक प्राकृतिक प्रेमी भारी पड़ जाता है। इसलिए सामाजिक प्रेमियों में जो कुटिल होते हैं, अतिशय रूढ़िअंध होते हैं, वे आक्रामक हो उठते हैं। लेकिन सामाजिक प्र्रेमियों में जो लोग सरल, निश्च्छल और सहृदय होते हैं, उन्हें प्राकृतिक प्रेमियों से मिलकर सुकून मिलता है। उन्हें लगता है- यही मेरी भी मंजिल थी, लेकिन दैवयोग से पा न सका। वह उसके समर्थन में खड़ा हो जाता है। उसके पक्ष में दलीलें देने लगता है और चाहने लगता है कि ऐसा ही प्रेम फैले ताकि एक संुदर प्रेमपूर्ण समाज बन सके। प्राकृतिक प्रेम के पक्ष में ऐसे लोगों के खड़े हो जाने से विरोध और समर्थन का एक संतुलन बन जाता है। इस तरह प्राकृतिक प्रेमियों को इन दरिंदों से अक्सर सुरक्षा मिल जाया करती है।
27. सामाजिक प्रेम में तलाक की प्रक्रिया बहुत जटिल है, क्योंकि इसमें खासकर स्त्रियाँ मानसिक और आर्थिक रूप से गुलाम होने के कारण तलाक के लिए तैयार नहीं होती हैं। वे बिना प्रेम के भी संबंध को चलाना चाहती हैं। लेकिन प्राकृतिक प्रेम में किसी का मन उखड़ जाए तो वे प्रेम से एक दूसरे को धन्यवाद देते हुए अलग हो सकते हैं। कारण, इसमें कोई किसी के गुलाम नहीं होते। दोनों प्रायः आत्मनिर्भर और स्वतंत्र हुआ करते हैं।
संबंध विच्छेद की घड़ी में सामाजिक प्रेम अपना छिपा हुआ कुत्सित रूप प्रदर्शित कर देता है। गाली गलौज, मार पीट, केसा केसी, थुक्कम फजीहत, इज्जत उतारने, नीचा दिखाने, बदला लेने आदि की प्रवृत्तियाँ अंदर से बाहर निकलकर अपना वास्तविक रूप प्रकट कर देती हैं।
सामाजिक प्रेम जब टूटता है तो कहता है- न हम जीयेंगे, न तुम्हें जीने देंगे। प्राकृतिक प्रेम जब टूटता है तो कहता है- तुम भी जीयो, हम भी जीयें। विच्छेद के बाद भी वे एक दूसरे के जीने में मदद करते हैं।
28. सामाजिक प्रेम सेक्स को गंदा समझता है। सेक्स के प्रति गंदी दृष्टि का व्यापक प्रभाव सामाजिक जीवन पर पड़ता है। व्यक्ति सेक्स का भरपूर आनंद नहीं उठा पाता, क्योंकि उसके चेतन अथवा अवचेतन मन में उसके प्रति खराब भाव रहता है। शायद इसीलिए वह सोचता है, सेक्स आनंद उठाने के लिए नहीं, बच्चा पैदा करने के लिए बना है। चूँकि गंदे काम से बच्चा आता है, इसीलिए उससे भी इस वास्तविकता को छिपाया जाता है। एक बड़ा बच्चा जब देखता है कि घर में एक नया बच्चा आ गया है तो अत्यंत कुतूहल से कभी कभी वह पूछता है- बौआ कहाँ से आया ? माता पिता कहते हैं- बाजार से खरीद कर लाये हैं। एक झूठ का संस्कार उसके बालपन में ही बो दिया जाता है।
प्राकृतिक प्रेम सेक्स को परम पावन समझता है। इसीलिए वह सेक्स को लेकर अपराध बोध से ग्रसित नहीं होता। वह निद्र्वन्द्व भाव से सेक्सानंद उठाता है। वह सेक्स को ब्रह्मचर्य में रूपांतरित करने की कला भी सीखता है। महान सद्गुरु ओशो ने दमनमूलक ब्रह्मचर्य की रुग्णता से मनुष्य जाति को बचाने के लिए सहज ब्रह्मचर्य के प्रतिफलन का मार्ग प्रशस्त किया। उनकी मूल देशना है- न दमन, न भोग बल्कि रूपांतरण। सेक्स का रूपांतरित करने की कला उन्होंने दुनिया को सिखाकर उसे घातक बीमारी से बचा लिया है।
29. सामाजिक प्रेम मृत्यु से भयभीत रहता है, प्राकृतिक प्रेम मृत्यु से निर्भय होता है और उसे जानना चाहता है। वह एक प्रकार से मृत्यु से साक्षात्कार भी कर चुका होता है। उसके पास जो कुछ पुराना होता है, समाज का दिया हुआ पुराना संस्कार, स्वार्थांध पारिवारिक सामाजिक संबंध आदि प्रेम की अग्नि में भस्मीभूत हो जाता है और एक नये मनुष्य का जन्म होता है। नवीन भाव, नयी अनुभूति उसके पास होती है और इस अनुभूति के सहारे मृत्यु को जानने के लिए लालायित हो उठता है और अगर प्यास सघन हो तो वह जान भी सकता है।
30. सामाजिक प्रेम और प्राकृतिक प्रेम दोनों को प्रशिक्षण की जरूरत होती है। सामाजिक प्रेम के प्रशिक्षक हैं परिवार, समाज और परंपरा। प्राकृतिक प्रेम के प्रशिक्षक होते हैं सद्गुरु। जिनके माता पिता अच्छे हैं, परिवार अच्छा है, उन्हें एक हद तक सही शिक्षा मिलती है, लेकिन जिनके माता पिता ही नासमझ हों, उनके तो भगवान ही रखवाले ! सही शिक्षा के अभाव में सामाजिक प्रेम में लोमहर्षक घटनाओं की खबरें हर दिन आती ही रहती हैं। हाल में दरभंगा जिले के टकनीया गाँव के हीरा यादव ने क्रोधोन्मत्त होकर अपनी पत्नी रीना देवी का सर काता से काट लिया। एक हाथ में मुंड का बाल पकड़े और दूसरे हाथ में काता लेकर माँ काली जैसा विकराल रूप धारण कर वह गाँव में निकल पड़ा !
प्राकृतिक प्रेम सद्गुरुओं के मार्गदर्शन में उत्तरोत्तर आनंद की ओर बढ़ता चला जाता है। जिन्हें अनुकूल सद्गुरु पकड़ा गया, उनका बेड़ा पार है।
31. एक तरह की शिक्षा होने के कारण सामाजिक प्रेम एक समान, सपाट और सतही होता है। लेकिन व्यक्ति की प्रकृति के अनुकूल प्राकृतिक प्रेम भिन्न भिन्न हुआ करता है। स्वार्थमूलक शिक्षा के कारण सामाजिक प्रेम परिवार कल्याण तक ही सीमित रहता है, जबकि प्राकृतिक प्रेम विश्व कल्याण की ओर अग्रसर होता है। सामाजिक प्रेम का परिवार वहीं तक होता है, जहाँ तक उसके रक्त संबंधी होते हैं। प्राकृतिक प्रेम का परिवार वहाँ तक फैला होता है जहाँ तक उनके भाव फैले होते हैं, हृदय मिलते हैं। यानी सामाजिक प्रेम का परिवार यौन संबंध पर टिका होता है, जबकि प्राकृत प्रेम का परिवार भाव संबंध पर। सामाजिक प्रेम का परमार्थ एक ढोंग होता है। उसके परमार्थ के भीतर भी स्वार्थ छिपा होता है। प्राकृतिक प्रेम के स्वार्थ के भीतर भी परमार्थ होता है। तुलसी का ‘स्वान्तः सुखाय’ भी परमार्थ से पूर्ण है जबकि देशप्रेम का राग अलापने वाले नेताओं का परमार्थ भी कुत्सित स्वार्थ से ग्रस्त।
32. सामाजिक प्रेम अंधा होता है, क्योंकि उसमें वासना की प्रधानता होती है और वासना अंधी होती है। प्राकृतिक
प्रेम के पास आँखें होती हैं। वे आँखें भाव की, हृदय की और आत्मा की होती हैं।
33. सामाजिक प्रेम में जड़ता होती है, प्राकृतिक प्रेम में जागरुकता।
34. सामाजिक प्रेम यथार्थ है, प्राकृतिक प्रेम आदर्श। सामाजिक प्रेम सर्वत्र व्याप्त है, प्राकृतिक प्रेम कहींं कहीं खिलता है- लाखों में कोई एक प्राकृतिक प्रेम को उपलब्ध होता है।
35. सामाजिक प्रेम कोई कला नहीं है, प्राकृतिक प्रेम एक कला है। जिस दिन वह कला का दामन छोड़ देगा उस दिन प्राकृतिक प्रेम भी सामाजिक प्रेम की तरह मरियल और निष्प्राण हो जायेगा।
ऊपर हमने दोनों प्रेमों के बीच जितने भेद गिनाये हैं, वे उतने भर ही नहीं हैं, और भी हैं। लेकिन इन भेदों का सिलसिला यहीं समाप्त करता हूँ , क्योंकि इतने भी यहाँ पर कम नहीं हंै।
अंत में पुनः स्पष्ट कर दूँ कि यह विभाजन गुण की प्रधानता के आधार पर किया गया है। कोई भी विभाजन प्रधानता के आधार पर ही होता है। सामाजिक प्रेम में भी प्राकृतिक प्रेम के कुछ अंश हो सकते हैं और प्राकृतिक प्रेम में भी सामाजिक प्रेम के कुछ अंश। यहाँ मैंने कसौटी रखी है जिस पर कोई भी आदमी अपने प्रेम को जाँच सकता है। जिसके प्रेम में जिस श्रेणी के लक्षण ज्यादा पाये जायेंगे उसका प्रेम उसी श्रेणी में आयेगा।