बुधवार, सितंबर 14, 2011

भ्रष्टाचार समाप्ति के तीन उपाय




भ्रष्टाचार जिन कारणों से पैदा होता है, उनका निवारण कर समस्या का निराकरण किया जा सकता है। देखा गया है कि भ्रष्टाचार के पीछे दो मूलभूत कारण हैं-  नीड और ग्रीड ( जरूरत और लोभ )। कुछ लोग मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति इस दोषपूर्ण व्यवस्था में नहीं कर पाते हैं, इसलिए वे विवश होकर भ्रष्टाचार का सहारा लेते हैं। अतः पहले प्रकार के भष्टाचार को दूर करने के लिए जरूरी है कि जीवन की तमाम भौतिक जरूरतों की पूर्ति सुगमता से हो सके। इसके लिए दो काम करने होंगे। पहला, देश की आबादी घटा दीजिए और दूसरा, उत्पादन को जरूरत से ज्यादा बढ़ा दीजिए। जब जरूरत से ज्यादा उत्पादन और उसका सम्यक् वितरण होगा तो आवश्यकता आधारित भ्रष्टाचार स्वयंमेव खत्म हो जाएँगे। लेकिन, विगत 64 वर्षों में स्वतंत्र भारत के राजनेता ये दो काम करने में विफल रहे हैं। इसका कारण क्या है ? कारण यह है कि हमारी अवैज्ञानिक चुनाव प्रणाली दृढ़ इच्छाशक्ति वाले ईमानदार जनसेवकों को संसद और विधानमंडलों तक पहुँचने से रोकती है। यह चुनाव प्रणाली धनबलियों, बाहुबलियों और सत्ताधारियों के लिए तो प्रशस्त राजमार्ग है, लेकिन साधनहीनों और ईमानदारों के लिए अत्यंत संकीर्ण गली। चुनाव में पूँजीपति पार्टी एवं उनके नेताओं को चंदा के रूप में मोटी रकम देते हैं, जिसे जीतने पर वसूलते हैं। इस तरह पूँजीपतियों और राजनेताओं के बीच सांठ-गांठ हो जाती है और ये दोनों एक-दूसरे के हित में काम करते हैं। नेता जनता को भुलावे में रखकर और उसकी गरीबी एवं अज्ञानता का पोषण कर उससे रैली वगैरह का काम लिया करते हंै। इसलिए राजनीतिक व्यवस्था बदलने के लिए चुनाव प्रणाली में सुधार नहीं, आमूल परिवर्तन की नितांत आवश्यकता है।
देशवासियों को एक ऐसी चुनाव प्रणाली की कल्पना करनी होगी जो नगण्य खर्च में संपन्न हो, जिसमें 95 से 100 प्रतिशत मतदाताओं की सुगमता से भागीदारी हो, जिसमें पुनर्वापसी की सरलतम व्यवस्था हो और जिसमें धनबल, बाहुबल और सत्ताबल निष्प्रभावी कर दिये जायँ। उस मौलिक कल्पना को समाज के बीच रखा जाय और प्रयोग के द्वारा उसे सिद्ध करके दिखाया जाय ताकि जनता का ध्यान उस ओर आकृष्ट हो। विनम्रतापूर्वक कहना चाहता हूँ कि मैंने इस तरह की प्रणाली की कल्पना की है और साधन उपलब्ध होते ही इस पर प्रयोग किया जाएगा।
भ्रष्टाचार का दूसरा सबसे बड़ा कारण है मनुष्य का असीम लोभ या उसकी दुष्पूर महत्वाकांक्षा। लोभ पर विजय पाने के लिए शिक्षा प्रणाली को जड़ से बदलकर उसके केन्द्र में प्रेम को लाना होगा। अभी शिक्षा के केन्द्र में अहंकार है। अहंकार आदमी को आदमी से तोड़ता है, जबकि प्रेम जोड़ता है। अहंकार कहता है मैं बड़ा, प्रेम कहता है तुम बड़े। अहंकार अपने सुख के लिए दूसरों का उपयोग करता है, प्रेम का सारा सुख दूसरों के लिए जीने में है। जब दूसरा, दूसरा न रह जाए अपना हो जाए तो वही है प्रेम। जब प्रेम पराकाष्ठा पर चला जाता है तो दूसरा अपने प्राणों से भी अधिक प्यारा हो जाता है। अपने प्राण का बलिदान कर भी आदमी अपने प्रिय को बचा लेना चाहता है। जब मनुष्य प्रेम की इस मनोदशा में आएगा तो क्या स्वप्न में भी उससे भ्रष्टाचार होगा ?
वर्तमान शिक्षा प्रेम की दुश्मन है। कैसे ? क्योंकि इसके केन्द्र में भीषण प्रतियोगिता है। हम बचपन से ही बच्चों को सिखाते हैं कि कक्षा में प्रथम आओ, दूसरों को पछाड़ कर आगे निकल जाओ। पड़ोस के बच्चों का उदाहरण देते हुए उन्हें सिखावन देते हैं कि देखो, चिक्कू कितना तेज है, कितना बुद्धिमान और तुम कितने बुद्धू हो ! इस तरह उसके भीतर हीनता और ईष्र्या की ज्वाला पैदा करते हैं। दूसरों से आगे निकलने की होड़ में वह तनावग्रस्त हो जाता है। दूसरा उन्हें दुश्मन दिखने लगता है और यह ज्वरग्रस्त दौड़ विश्वविद्यालय से होते हुए नौकरी पाने तक चलती है। इतने लंबे समय के अभ्यास से प्रतिस्पद्र्धा उनकी रगों में दौड़ने लगती है। मनुष्य हर क्षेत्र में दूसरों से आगे निकल जाना चाहता है और इसके लिए हर तरह के भ्रष्टाचार का दामन थाम लेता है।
कहा जाता है कि आगे बढ़ने के लिए और विकास में गति लाने के लिए प्रतियोगिता जरूरी है। लेकिन दीर्घकालीन अभ्यास के कारण ऐसा लगता है। वास्तव में ऐसा है नहीं। फिर भी जो व्यक्ति महसूस करते हैं कि प्रतियोगिता के बिना वे आगे नहीं बढ़ पायेंगे, उन्हें अपने आप से प्रतियोगिता सिखायी जानी चाहिए। यानी आज हमने
ेजहाँ तक विकास किया है, कल उससे आगे निकलना है। कल हम अपने को ही पीछे छोड़ देंगे।
वास्तव में किसी भी विषय में गति पाने का मूलाधार है उस विषय से प्रेम। किसी विषय के प्रेम में डूबकर अनायास आदमी उतना सीख लेता है, जितना प्रतिस्पद्र्धा में कभी नहीं सीख सकता। प्रतिस्पद्र्धा बेचैनी पैदा करती है, जिससे हमारी ऊर्जा नष्ट होती है। प्रेम शांति पैदा करता है, जिससे हमारी ऊर्जा बचती है और सृजन में लगती है। सृजन बहुत बड़ा सुख है। प्रेमाधारित शिक्षा में परस्पर एक-दूसरे की सहायता करते हुए हम आगे बढ़ते हैं। साथ-साथ विकास करने से हमारा आनंद बढ़ता है। लेकिन जो शिक्षा किसी को सता कर, पीछे धकेलकर, किसी को ऊँचे सिंहासन पर स्थापित करती है, वह वास्तव में उसे ज्वालामुखी पर्वत पर ही बैठाती है जहाँ किसी भी समय विस्फोट हो सकता है। शिक्षा में प्रतियोगिता का जहर इतना फैला हुआ है कि साहित्य, संगीत एवं अन्य कलाएँ भी सौन्दर्यबोध और प्रेम पैदा करने में असमर्थ हो गयी हंै !
प्रेम स्वतःस्फूर्त होता है। सिखा पढ़ा कर किसी के भीतर प्रेम पैदा नहीं किया जा सकता। सही शिक्षा के द्वारा सिर्फ प्रेम पैदा होने की परिस्थिति पैदा की जा सकती है। प्रेम उत्पन्न होने के दो मुख्य स्रोत हैं- सेक्स और ध्यान। सेक्स मनुष्य को प्रकृति का अनुपम उपहार है, जबकि ध्यान साधनागत है। सेक्स उस मनोरम जंगल की तरह है जिसके ऊपर हरियाली है और नीचे सांप-बिच्छू हैं। सेक्स से प्रेम भी उत्पन्न हो सकता है तथा हिंसा और द्वेष भी। हमें ऐसी शिक्षा चाहिए जो युवाओं को सेक्स की सभी संभावनाओं से अवगत कराए और उसके अनुभवात्मक ज्ञान के द्वारा उत्पन्न प्रेम का पोषण करे। युवाओं के आरंभिक सेक्सुअल लव के प्रति अगर स्वस्थ दृष्टि अपनायी जाय और उसे सही ढंग से विकसित किया जाए तो वह मनुष्य और जीवमात्र के प्रेम में बदल सकता है।
हमें ऐसी शिक्षा चाहिए जिसका अनिवार्य अंग योग और ध्यान हो। अगर प्रेम अपने आप उत्पन्न नहीं हुआ तो ध्यान के द्वारा उसे उत्पन्न किया जा सकता है। ध्यान अपनी गहराई में अहं को विसर्जित कर देता है और उससे जो आनंद की शिखा जलती है उसका प्रकाश ही प्रेम है। प्रेम आनंद से पैदा होता है और उस आनंद को समाज में फैलाता है। केवल दुखी व्यक्ति भ्रष्टाचार के द्वारा सुख पाना चाहता है।
यह शिक्षा टॉपर को सम्मानित करती है और शेष में हीनता पैदा करती है। हीनता ग्रंथि से उबरने के लिए शेष लोग उच्चता गं्रथि से ग्रसित हो जाते हैं और हर तरह के भ्रष्टाचार में लिप्त होते हैं। ध्यान और प्रेम हीनता का हरण करता है और उच्चता ग्रंथि को पनपने नहीं देता।
लोभ का मतलब क्या होता है ? जो दूसरों के पास है, वह मुझे खींच रहा है और जो संपदा मेरे पास है, वह दिखाई नहीं दे रही। मेरे पास अपार धन होना चाहिए; लंबी, चमकदार एसी कार होनी चाहिए, आलीशान मकान होना चाहिए, ऊँचे से ऊँचा पद होना चाहिए, प्रतिष्ठा होनी चाहिए, नाम होना चाहिए। हर हालत में मुझे कुछ न कुछ होना ही चाहिए। मजे की बात यह है कि यह सब हो जाने पर भी आदमी शांत और आनंदित नहीं हो पाता, क्योंकि उसके आगे हमेशा कोई न कोई लक्ष्य होता है जिसको पाने के लिए वह पागल की तरह दौड़ता रहता है। सुंदर, सुसज्जित डाइनिंग हॉल में बेहतरीन वॉल टेलीविजन लगा है, लेकिन देखने की फुरसत नहीं है। करोड़ों की शानदार कार है, पर पिकनिक पर जाने का समय नहीं। सुंदर बिस्तर है, पर नींद नहीं। घर में चुनकर लायी गयी खूबसूरत पत्नी है, पर उसके सौन्दर्य और प्यार में डूबने का वक्त नहीं। वह और की दौड़ में पड़ा हुआ है और जीवन पीछे छूट गया है ! सोचता हूँ कि मनुष्य इतना विक्षिप्त क्यों हो गया है ? तो इसकी जड़ें शिक्षा में मिलती हैं जो अहंकार और महत्वाकांक्षा की बुनियाद पर खड़ी है।
प्रकृति ने प्रत्येक व्यक्ति को एक दूसरे से भिन्न बनाया है। सबके भीतर किसी न किसी प्रकार की खासियत है। सबके भीतर कुछ संभावनाएँ हैं। अगर शिक्षा उनके भीतर छिपे हुए बीज को पहचाने और उसे अंकुरित करने की सुविधायें जुटा सके और एक-एक व्यक्ति की आत्मा को जगा सके तो जो आत्मतृप्ति उपलब्ध होगी वह अतुलनीय होगी। ऐसा चेतनशील व्यक्ति कभी जड़ वस्तुओं में सुख की खोज नहीं करेगा और न उसके लिए भ्रष्टाचार करेगा। मनुष्य का सुख इस बात में नहीं है कि उसके पास कितनी चीजें हैं। मनुष्य का सुख इस बात में है कि जो भी उसके पास है उसका उपयोग वह कैसे करता है। हमारे पास कुछ न भी हो तो भी दो आँखें तो हैं जिनमें सौन्दर्य भरकर इस सृष्टि को निहार सकते हैं और उसके प्रेम में डूब सकते हैं। जो चाँद, तारों, पहाड़ों, झरनों, जंंगलों, नदियों के सौन्दर्य से अभिभूत होने से वंचित है, उससे अधिक अभागा कौन होगा ? हमारे पास हाथ-पांव हैं जिनसे हम अपनी जीविका चला सकते हैं। अन्ना के पास तो कोई भौतिक संपदा नहीं है, लेकिन उनके दिल में जनता के प्रति प्यार है तो क्या नहीं है ! वही प्यार उनके चेहरे को हमेशा खिलाये रखता है। वह प्रेम की ऊर्जा ही है जो प्रतिदान के रूप में दूसरों से लौट कर उन तक आ जाती है और उन्हें दीर्घ अनशन की घड़ी में भी स्वस्थ, प्रसन्न बनाये रखती है।
इसलिए अगर भ्रष्टाचार को पूर्णतः समाप्त करना हो तो शिक्षा के इस ढाँचे को तोड़कर प्रेम केन्द्रित शिक्षा लानी होगी। अगर अंशतः दूर करना हो तो केवल चुनाव प्रणाली में आमूल परिवर्तन करना होगा और तात्कालिक राहत पानी हो तो जन लोकपाल विधेयक को कानून का रूप देना होगा। भ्रष्टाचार दूर करने के ये तीन उपाय हैं। तीनों की जरूरत है। जब किसी बीमारी के कारण शरीर का बुखार 106 डिग्री फारेनहाइट हो जाय तो सबसे पहले बुखार को तुरत नीचे उतारना होता है। जन लोकपाल विधेयक उस बुखार को उतारने वाली दवा है। रोग है व्यवस्था में और मन में। चुनाव प्रणाली में आमूल परिवर्तन से परिस्थिति बदली जा सकती है और शिक्षा में आमूल परिवर्तन से मनःस्थिति। मन के रूपांतरण का अर्थ है कि ईष्र्या और घृणा प्रेम में बदल जाय, लोभ आत्मतोष में और क्रोध करुणा में। खुशी की बात है कि अभी तक अन्ना का प्रयास क्रमबद्ध ढंग से सही दिशा में, सही तरीके से चल रहा है।

मटुक नाथ

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

ब्लॉग आर्काइव

चिट्ठाजगत

Add-Hindi



रफ़्तार
Submit
Culture Blogs - BlogCatalog Blog Directory
www.blogvani.com
Blog Directory
Subscribe to updates
Promote Your Blog