गुरुवार, सितंबर 08, 2011

एक महिला की मेहरबानी




एक महिला ने मुझे फेसबुक के माध्यम से सलाह भेजी है और उस पर गौर करने को कहा है। उस स्त्री का नाम है प्रिया हल्दोनी, पति का नाम संदीप हल्दोनी। रहती हैं नयी दिल्ली में। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से पढ़ाई की है। सम्प्रति दिल्ली स्थित ‘नेशनल इन्स्टीच्यूट आॅफ पैथोलॉजी एंड बायोमेडिकल रिसर्च’ में शोध कर रही हैं। अपने बारे में इतनी जानकारी उन्होंने फेसबुक पर दी है।
मैं स्त्री-पुरुष दोनों को प्यार करता हूँ। लेकिन जैविक कारणों से स्त्रियाँ हठात् आकर्षित कर लेती हैं। इसलिए उनकी उपेक्षा नहीं कर पाता हूँ। मैं प्रिया की बातों पर अवश्य गौर करूँगा- गहराई तक उतरने का प्रयास करूँगा। उनकी बातों का अर्थ क्या है, कहाँ से पैदा होती हंै ऐसी बातें, क्यों पैदा होती हैं, सही बात क्या हो सकती है, इन सब पर विचार करूँगा। पहले देख लेते हैं कि उनकी सलाह क्या है-
‘‘आपने अपनी एक्स वाइफ का साथ छोड़ा एक ऐसी उमर में जब उन्हें आपकी बहुत जरूरत थी, क्योंकि अभी तक उन्होंने ही आपका साथ दिया था, तो आपको भी उसके साथ रहना चाहिए। यदि सभी लोग ऐसा ही करेंगे, तो क्या होगा हमारी उम्रदराज माँ और बहनों का। इसलिए इस पर गौर करें। प्यार सब कुछ नहीं होता, कुछ रिश्ते हमें समाज में रहने के लिए निभाने पड़ते हैं। आपका ये कर्म समाज को गलत मैसेज देता है। हो सके तो इसे समझने का प्रयास करें।’’
प्रिया की सबसे बड़ी चिंता है कि मैंने जो किया, उससे समाज को गलत संदेश मिल रहा है। ‘यदि सभी लोग ऐसा ही करेंगे तो क्या होगा हमारी उम्रदराज माँ और बहनों का।’ दरअसल यह अकेले प्रिया हल्दोनी की चिंता नहीं है, भारतवर्ष के लाखों-करोड़ों स्त्री-पुरुषों की चिंता है। इसलिए मामला गंभीरता से विचार करने योग्य है।
एक बात स्पष्ट है कि मैंने जो किया है उससे समाज आंदोलित हुआ है। यह अच्छी बात है, क्योंकि आंदोलन से जड़ता टूटती है। लोग चली आ रही मान्यताओं पर नये सिरे से विचार करते हैं।
मेरे कर्म का प्रभाव एक ही जैसा हर जगह नहीं है। अलग-अलग आदमियों पर अलग-अलग प्रभाव है। व्यक्ति भेद से प्रभाव बदल जाता है। तीन-चार साल पहले की बात है। एक दिन मैंने टीवी खोला तो अचानक देखा कि कवि सम्मेलन चल रहा है और एक कवि मेरे ही ऊपर कविता पढ़ रहा है। कविता में उपमानों की झड़ी थी। मुझे सिर्फ एकाध बात ही याद है। कवि महोदय मंच पर आते हैं। कहते हैं- आपलोगों ने टीवी पर एक प्रेमी जोड़ा देखा होगा। और शुरू हो जाते हैं- ‘जैसे कौवे की चोंच में जलेबी’, इत्यादि।
पूरी कविता कवि की लोलुप दृष्टि को दर्शाती है। कवि को लगता है, हाय रे, मैं कितना हतभाग्य। जलेबी तो मेरी चोंच में होनी चाहिए, कौवे की चोंच में कैसे चली गयी ? अशोभनीय ! निंदनीय !! मनुष्य के हृदय में निवास करने वाली ईष्र्या बहुत ही दमदार भाव है; क्योंकि जरा सा अवसर मिलते ही क्षण मात्र में भड़क जाती है। अगर हम अपने नैतिक मूल्यों पर विचार करें तो पता चलेगा कि उनमें से बहुतों के केन्द्र में ईष्र्या है। जो नैतिकता ईष्र्या के पेट से पैदा होगी, वह न जाने मनुष्य को किस गड्ढे में धकेल देगी !
जुलाई, 2006 में मुझे एक पोस्टकार्ड मिला, जिसमें मेरे और जूली के प्रेम पर दो पंक्तियाँ लिखी थीं-
‘‘पहलु-ए-हूर में लंगूर, खुदा की कुदरत
कौआ के चोंच में अंगूर, खुदा की कुदरत’’
कौवा मुझे बहुत सुंदर पक्षी मालूम पड़ता है, पता नहीं क्यों कविगण कौवों पर इतने खफा रहते हैं ! लंगूर की भी अपनी खूबसूरती होती है, लेकिन केवल हूर पर ही लुब्ध रहने वाले शायर लंगूर के सौन्दर्य से वंचित हो जाते हैं। इसके लिए थोड़ा गहरा सौन्दर्य बोध चाहिए। बहरहाल, कवि ने अपना नाम ‘एक तिड़कमी शायर, फारबिसगंज’ बताकर असली नाम छिपा लिया है। भय के कारण आदमी अपना नाम छिपाता है। वह भय समाज का हो या जिसको लिखा है उसका हो, या पाप बोध का हो, भय किसी का भी हो, इतना स्पष्ट है कि ऐसा लिखते हुए कवि काँप रहा है ! क्या भयभीत व्यक्ति समाज को रास्ता दिखा सकता है ? इस पत्र में भी शायर की ईष्र्या ही मुखर है।
ईष्र्या दो प्रकार की होती है- एक , जो दूसरे को मिला है, वह उसे न मिलकर मुझे मिल जाय। दो, मुझे नहीं मिला तो किसी को न मिले। दूसरी ईष्र्या ज्यादा विनाशकारी है।
इस तरह मेरे कर्म से अनेक प्रकार के लोग अनेक तरह से आंदोलित हुए। किसी की सोयी रसिकता अचानक  जाग गयी! किसी का आया बुढ़ापा भाग गया! किसी को अपने को श्रेष्ठ साबित करने का मौका मिला ! कोई दूसरे को नीचा दिखाने में रस लेने लगा ! किसी का मन मसखरी के लिए मचल उठा ! किसी को उपदेश देने का स्वर्णिम सुयोग मिल गया ! कुछ शिक्षक मन ही मन उत्साहित हो गए ! कुछ शिक्षक स्वयं के बेनकाब होने के भय से अत्यधिक क्षुब्ध और क्रुद्ध हो गए ! कोई पत्नी अपने पति से सशंकित रहने लगी ! कोई पति पत्नी से सावधान हो गया! कहीं  पति पत्नी दोनों प्रसन्न हो गये! एक पति ने मेरे प्रति आभार प्रकट करते हुए कहा- झेला आपने, फायदा हुआ मुझे। मैंने पूछा- कैसे ? बोले- अब पत्नी पहले से ज्यादा प्रेम देने लगी है ! इस तरह अनेक प्रकार की प्रतिक्रियाएँ हुईं।  प्रतिक्रियाओं के असंख्य रूपों में एक खास रूप श्रीमती प्रिया हल्दोनी का है। यहाँ वही विचारणीय विषय है।
प्रियाजी समाज पर मेरे गलत प्रभाव पड़ने की आशंका से परेशान हंै। प्रभाव एक प्राकृतिक क्रिया व्यापार है। हर आदमी दूसरे को प्रभावित कर रहा है और स्वयं उससे प्रभावित हो रहा है। इससे तो बचा नहीं जा सकता। प्रिया भी मुझसे प्रभावित हैं और मैं भी उनसे प्रभावित हूँ। यह प्रभावित होने वाले व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह कौन सा प्रभाव लेता है और कौन सा छोड़ देता है। गलत या मूच्र्छित आदमी अच्छे कर्म से भी गलत प्रभाव ले लेता है और अच्छा एवं सजग आदमी गलत काम से भी कुछ अच्छा निकाल लेता है। इसलिए प्रभावित करने वाले को न पकड़कर प्रभावित होने वाले आदमी को पकड़ना चाहिए। वर्षा की बूँदें समुद्र में गिरती हंै तो समुद्र हो जाती हंै, गंगा में गंगा और नाले में नाले का गंदा पानी ! एक दिन मैंने गंदे नाले के पानी को शोर मचाते सुना- ‘वर्षा बंद करो, वर्षा बंद करो। उसके जल ने मुझे गंदा कर दिया है !’ लोग नाले के इस शोर शराबे पर हँसकर कहने लगे- अरे गंदा पानी, वर्षा की बूँदें गंदी नहीं हैं, तुम गंदे हो। तुम्हीं ने अपनी गंदगी मिलाकर उस स्वच्छ जल को गंदा कर दिया है। मेरा भी मन कहता है कि प्रियाजी से पूछूँ- क्या आपने भी प्रेम की निर्मल बूँदों को गंदा नहीं कर दिया है ? प्रिया लिखती हैं- ‘‘प्यार सब कुछ नहीं होता, कुछ रिश्ते हमें समाज में रहने के लिए निभाने पड़ते हैं।’’ अगर आपने प्यार को गंदा न किया होता तो ऐसा कभी नहीं कहतीं। प्यार की पावनता का आपको पता होता तो आप कहतीं- ‘प्यार ही सबकुछ होता है और इसी से समाज के सारे रिश्ते ढंग से निभते हैं।’ पति अथवा पत्नी तिजोरी में बंद कर रखने वाली वस्तु नहीं होते प्रियाजी। जिस कुएँ का पानी नहीं निकाला जाता है, वह सड़ जाता है। तालाब का पानी गंदा हो जाता है, लेकिन बहता पानी निर्मला। पति पत्नी के संबंध पर पहरेदारी मत कीजिए। ईष्र्या और एकाधिकार से संबंध जहरीला हो जाता है। पति को अगर गुलाम बनाइयेगा तो प्रेम खो जायेगा, पत्नी पर कोई सवार रहेगा तो प्रेम मिट जायेगा। हमारे समाज में तो प्रेम की भू्रण हत्या होती है, पैदा होने से पहले ही उसे मार दिया जाता है। मरा हुआ प्रेम ढोने को ही आप निभाना कहती हैं- जैसे बंदरिया मरे हुए बच्चे को ढोती रहती है ! बहुत मुश्किल है ईष्र्या और अधिकार भावना से बाहर होना। यह तपश्चर्या है। इस तपस्या के बिना समाज प्रेमपूर्ण नहीं हो सकता।
मटुक का मतलब है घोर अभाव और कठिनाइयों में भी आनंदित रहने की क्षमता ! मटुक का मतलब है प्रेम के लिए संसार की सारी प्रेम विरोधी शक्तियों से एक साथ टकराने का अदम्य साहस। उनसे लड़ते लड़ते वीरगति पाने की उत्कट लालसा। मटुक का मतलब है अंदर और बाहर की एकता। मटुक का मतलब है सबके प्रति सद्भाव। मटुक का मतलब एक ऐसे समाज का निर्माण है जिसके केन्द्र में प्रेम हो। जहाँ प्रेम होगा, वहाँ शोषण नहीं हो सकता। जहाँ शोषण नहीं होगा वहाँ धन इकट्ठा करने वाला कुबेर न होगा। जहाँ कुबेर न होगा, वहाँ कोई चोर भी न होगा, न भ्रष्टाचार होगा। मटुक का मतलब है एक ऐसी विचारधारा जिसमें अपनत्व हो, मैत्री हो, प्रेम हो, कोई किसी का मालिक न हो। व्यक्ति स्वयं अपना मालिक हो। मटुक का मतलब है स्त्री पुरुष के सहज नैसर्गिक प्रेम की स्वीकृति और उसके फलने फूलने के लिए पूर्ण स्वतंत्रता। गलत संदेश मेरी तरफ से नहीं जा रहा है। समाज पहले से ही गलत संदेश से ग्रसित है, क्योंकि प्यार से उसे डर लगता है और उससे परहेज करता है। मैं तो तपस्यारत हूँ। मुझसे अगर कोई संदेश निकलेगा तो तप का ही निकलेगा। लेकिन आप तप करने को राजी नहीं हैं। आप पति या पत्नी पर मिलकियत छोड़ने को तैयार नहीं हैं। संदेश न लेना आपकी स्वतंत्रता है। जैसे जीना चाहते हैं, वैसे जीयें। लेकिन गलत जीवन जीने वाला दुख पाता है और अपने दुख की जिम्मेदारी दूसरों को देकर उन्हें भी परेशान करना चाहता है। उन्हें तरह तरह से सलाह देता है और कभी दुश्मन मानकर आक्रमण कर बैठता है।
प्रियाजी लिखती हैं- ‘‘ आपने अपनी एक्स वाइफ का साथ छोड़ा एक ऐसी उमर में जब उन्हें आपकी बहुत जरूरत थी, क्योंकि अभी तक उन्होंने ही आपका साथ दिया था तो आपको भी उनके साथ रहना चाहिए।’’
क्या आप मेरी पत्नी से मिलीं ? मुझसे मिलीं ? मेरे जीवन और पत्नी के जीवन को अंदर बाहर से जाना ? हम दोनों के संबंधों को निकट से देखा, समझा ? जाहिर है, आपने ये सब नहीं किया। फिर भी कितने आत्मविश्वास के साथ आप उपर्युक्त वचन कह गयीं ! अंग्रेजी में एक कहावत है- ‘फरिश्ते जहाँ पाँव रखने में घबड़ाते हैं, मूर्ख वहाँ सरपट दौड़ लगाते हैं !’ आप सरपट दौड़ लगा गयीं ! पता लगाने का विषय है कि मैंने पत्नी को छोड़ा या पत्नी ने मुझे छोड़ा ! पत्नी को मेरी जरूरत थी या किसी और चीज की जरूरत थी ! पत्नी को मैंने सताया या पत्नी ने मुझे ! मेरी संपत्ति पत्नी ने हड़पी या मैंने उसे उससे वंचित किया ! सचाई का पता वह लगाता है जो खोजी वृत्ति का होता है, जिज्ञासु होता है। हमारी शिक्षा ने जिज्ञासा को नष्ट कर दिया है। उसने किसी चीज पर संदेह कर श्रमपूर्वक उसे दूर करने की विद्या नहीं सिखायी- उसने अंधविश्वास सिखा दिया ! इसी खोजी वृत्ति के अभाव में हमारे देश में विज्ञान नहीं पनपा। कहने के लिए तो आप एक रिसर्चर हैं, लेकिन अनुसंधान की वृत्ति आप में होती तो आप बिना पता लगाये वह नहीं लिख जातीं, जो लिख गयीं !
  आप तो जिस भाषा का प्रयोग कर रही हैं उसका भी अर्थ नहीं समझ रही हैं, तो दूर स्थित मटुक का अर्थ कहाँ से समझेंगी ? एक्स वाइफ का माने होता है वह स्त्री जो अब वाइफ नहीं हैं, पहले कभी थी। जो छोड़ी जा चुकी है, जो अतीत हो चुकी है। एक्स वाइफ ( छोड़ी हुए वाइफ ) को छोड़ने का क्या अर्थ होता है ? आप कृपया जान लीजिए- मेरी पत्नी मेरे लिए सदा वर्तमान है, वह भूतपूर्व नहीं है। वह सदा सुहागन है ! न मैंने उसे तलाक दिया है और न दूसरी शादी की है। मेरे मन में उसके लिए जगह है। साथ ही यह भी कह दूँ कि मेरा प्रेम पाने के अधिकारी वे सभी व्यक्ति हैं जो ईष्र्या रहित हैं। ऐसे ही लोगों पर मैं अपने को लुटाता हूँ। आपने मेरी पत्नी को भूतपूर्व बनाने का अपराध किया है। अगर मेरी पत्नी को यह मालूम होगा, तो वह आपका मुँह नोच लेगी !
लोग सिर्फ मेरी पत्नी को ढाल बनाकर उसकी आड़ में अपनी ही व्यथा कहते हैं। आपने भी संभवतः यही किया है। पुरुष की वृत्ति स्वभावतः चलायमान होती है। आपके पति भी संभवतः अपवाद नहीं होंगे। उनकी हरकतों को देखकर भीतर से आपकी आत्मा डाँवाडोल हो गयी होगी ! घबड़ाहट में आप अपने और अपने पति के भीतर नहीं झाँककर हजार किलोमीटर की दूरी पर बैठे मटुक को दोषी ठहरा रही हैं! आपका दाम्पत्य जीवन चाहे जैसा भी हो, उसके लिए जिम्मेदार आप ही दोनों हैं। मैं कैसे हो सकता हूँ ? मान न मान मैं तेरा मेहमान ! मुझे आप मेहमान मत बनाइये। मुझे आपने दिल के किसी कोने में जगह दे दी होगी, इसी से सब उपद्रव हो रहा है। आप एकनिष्ठ होकर अपने पति में चित्त को रमाइये। जब आप पति प्रेम में रसमग्न होंगी तो मेरा प्रभाव वहाँ तक नहीं पहुँचेगा। मेरा प्रभाव उन्हीं पर पड़ता है जिन्होंने अपने दिलों में मुझे जगहें दे रखी हैं।
आप लिखती हैं-‘ यदि सभी लोग ऐसा ही करेंगे, तो क्या होगा हमारी उम्रदराज माँ और बहनों का ?’
मुझे तो अब तक मेरे जैसा एक भी आदमी पूरे देश में नहीं दिखा, आपको कहाँ दिख गया ? जाहिर है, आपको भी नहीं दिख रहा है, आप केवल कल्पना कर रही हैं कि अगर ऐसा होगा तो क्या होगा। आपको वर्तमान की जरा भी फिक्र नहीं है, भविष्य की कल्पना से त्रस्त हैं ! यह एक प्रकार की मानसिक बीमारी है।  वर्तमान में स्थित होकर जीेयें, कभी कोई समस्या नहीं होगी।
आश्चर्य तो मुझे इस बात से हो रहा है कि आपने प्रसंग उठाया पत्नी का और चिंता करने लगीं मां-बहनों की ! मेरी पत्नी भाग्यशालिनी माँ है। उसका बेटा बहुत योग्य, मेधावी, कलाकार और मातृभक्त है। विदेश जाना अभी तक मेरे लिए सपना बना हुआ है ! लेकिन मेरे बेटे ने अपनी माँ को दुनिया के कुछ हिस्सों की सैर करा दी है। भारत के महत्वपूर्ण दर्शनीय स्थलों का दर्शन हवाई जहाज द्वारा करा दिया है। मेरी पत्नी हर तरह से सशक्त अपने डॉक्टर भाई की दुलारी और प्यारी बहन है। वह ऐसे सामथ्र्यवान भाई की बहन है जो अपनी बहन की रक्षा के लिए कुछ भी कर सकता है- यहाँ तक कि अपनी नाक भी कटा सकता है! भगवान करे आपको भी ऐसा पुत्र और भाई मिले।
आप पत्नियों की तरफदारी करने चलीं थीं, लेकिन किसी हीन गं्रथि के कारण मां-बहन की तरफदारी करने लग गयीं ! अपने वाक्यार्थ के प्रति भी आप बेखबर हैं, तो मेरी खबर कैसे रखेंगी ? आपको लिखना चाहिए था कि यदि सभी लोग ऐसा ही करेंगे तो क्या होगा इस देश की पत्नियों का ? मैं कहता हूँ, कुछ नहीं होगा; क्योंकि एक तो सभी लोग ऐसा नहीं करेंगे। दूसरे, जो थोड़े से लोग करेंगे, उनकी पत्नियों को कोई चिंता करने की बात नहीं है, क्योंकि पुरुषों को दूसरों की पत्नियाँ, चाहे जैसी भी हों, सदा आकृष्ट करती हैं। स्त्री अगर स्वयं सदा के लिए किसी पुरुष की गुलाम बनी रहने पर अड़ी रहे तो कोई पुरुष उसे मुक्ति नहीं दिला पायेगा। अगर पत्नियों को अपने भीतर आकर्षण पैदा करना है तो जरा सा अपने पति को भी ढील दे दें और स्वयं भी ढील ले लें।
जड़ वैवाहिक संबंध ने मनुष्य को पशु से भी नीचे कर दिया है। विवाह के द्वारा मनुष्य चला था पशु से अच्छा बनने के लिए और उससे भी बदतर जगह पर पहुँच गया! एक जानवर भी स्वतंत्रतापूर्वक यौन संबंध स्थापित कर सकता है, लेकिन मनुष्य इसके लिए तरस रहा है ! मनुष्य ने अपने हाथों से अपने पाँव में जंजीरें लगा ली हैं। इस बंधन की ऐसी भीषण प्रतिक्रिया हुई कि मनुष्य बलात्कारी हो गया ! आप गौर करेंगी कि पशु बलात्कार नहीं करता। मनुष्य सेक्स का क्रेता और विक्रेता हो गया ! वह सेक्स का व्यापार करने लगा ! जो हवा और पानी की तरह मुफ्त में सुलभ था, उसी की वह खरीद बिक्री करने लगा ! पशु ऐसा नहीं करता। मनुष्य अप्राकृतिक यौन संबंध का शिकार हो गया, पशु ऐसा नहीं होता। सेक्स के लिए न जाने मनुष्य कितने तरह से धोखे का जाल रचता है ! दहेज इस विवाह प्रथा का ही विषफल है, जिसके कारण न जाने कितनी स्त्रियाँ प्रतिदिन अपने प्राणों को गँवा रही हैं। पशुओं में कोई ऐसी प्रथा नहीं है। रास्ता यह था कि मनुष्य सेक्स को पशु की तरह सहज रूप में स्वीकार करता और धीरे-धीेरे उसे रूपांतरित कर ब्रह्मचर्य के आनंदलोक में प्रवेश करता। लेकिन इसे न समझ कर उसने दमित और जबरिया ब्रह्मचर्य को अपनाने की कोशिश की और रुग्ण हो गया !  इस रुग्णता से निकलने का रास्ता तो है हल्दोनी जी। लेकिन खोजने वाला चित्त कहाँ हैं ?
जिंदगी भर मनुष्य एक ही स्त्री या पुरुष से बँधा रहे, दूसरे से प्रेम न हो, यह मुझे अस्वाभाविक मालूम पड़ता है। हाँ, जो एक के साथ रहने में स्वाभाविक रूप से आनंदित हो और अन्य की चाहना न करे तो उसके लिए वह बिल्कुल ठीक है, वह उसी तरह रहे। लेकिन मन को मारकर एक को लेकर ही रहे, यह गलत है। और जो उस एक से ही निभाते रहने का फरमान जारी करे, वह दोगुना गलत है। मनोवैज्ञानिक रूप से ऐसी सलाह वही देते हैं जो खुद अपने मन को मारकर जी रहे होते हैं। अधिकांश लोगों के सोचने का ढंग गलत है। हम सबको एक ही टाइप का आदमी बनाना चाहते हैं। सबको एक ही टाइप में ढालना चाहते हैं, जबकि हर व्यक्ति का व्यक्तित्व अलग अलग होता है, उसकी जीवन शैली अलग होती है। हर व्यक्ति अपने ढंग से जीने में ही सुख शांति का अनुभव कर सकता है। जिस दिन मशीन टाइप के लोग मशीनीकरण से बाहर होकर अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व को प्राप्त करेंगे उसी दिन जिंदगी से मुलाकात कर पायेंगे। प्रिया हल्दोनी टाइप के लोगों ने जीना सीखा कहाँ है और जब तक आदमी अपने जीवन को नहीं पा लेता तब तक वह अंदर से एक अभाव और बेचैनी महसूस करता है। इसी दुख और बेचैनी में वह किसी अन्य पुरुष से जा टकराता है-
आँख से छलका आँसू और जा टपका शराब में
मुझे लगता है कि इस सृष्टि में जड़ता और चेतनता के बीच निरंतर संघर्ष चल रहा है; दोनों के अपने गुरुत्वाकर्षण हैं। जड़ता अपनी तरफ खींचना चाहती है और चेतनता अपनी तरफ। जड़ता जड़ता की तरफ आकृष्ट हो जाती है और चेतनता चेतनता से जा मिलती है। जिसकी चेतना के सारे दरवाजे बंद हैं वे हल्दोनी के विचारों में कैद रहेंगे। जिनकी चेतना थोड़ी सी जगी है वे उससे निकल कर बाहर की हवा में साँस लेंगे। जड़ता दुख है, चेतनता आनंद है। मनुष्य की यही स्वतंत्रता है कि वह जिसे चाहे उसे चुन ले।

मटुक नाथ
  8.09.11

2 टिप्‍पणियां:

  1. ek benaami vyakti ne mere iss lekh par tippani ki hai aur kuch prasnnaon ke jawab maange hai.lekin jab tak wah vyakti chhipa rahega, main jawab dene me samay nast nahi karoonga. wah agar kayar nahi hai to saamne aaye, chhipa kyon hai ?

    जवाब देंहटाएं
  2. भिन्न-भिन्न समाजों में विवाह की भिन्न-भिन्न परम्पराएं हैं. मध्यप्रदेश के झाबुआ में रहने वाले आदिवासियों में प्रचलित विवाह का नाम है "भगोरिया". मुझे लगता है कि सभ्य समाज को इस पर भी विचार करना चाहिए.

    हूँ .......तो अभी तक यह प्रकरण लोगों को आंदोलित कर रहा है.
    विवाह नामक संस्था पर कई बार विचार किया है, किसी संस्था के गुण-दोष की तरह यह भी उनसे मुक्त नहीं.

    हमारे पास विवाह की एक आदर्श व्यवस्था है ......हमारे पास विवाहेतर संबंधों की कड़वी सच्चाई है......हमारे पास "लाल-प्रकाश" के वर्ज्य क्षेत्र हैं.....हमारे पास चोरी है ....हमारे पास सीना जोरी है ......हमारे पास प्रवचन हैं ......हमारे पास प्रवचनों का उल्लंघन करने का दुस्साहस है .......हमारे पास दैहिक और मानसिक बलात्कारों का अपराध है.....हमारे पास अपने विचारों के मंडन और दूसरों के विचारों के खंडन की स्वतंतत्रता है.........हमारे पास बहुत कुछ ऐसा भी है जिसकी हमें आवश्यकता नहीं है ........जो नहीं है वह है .......सिर्फ और सिर्फ इमानदारी.
    खैर, मैं तो विद्यालय के बारे में जानने को उत्सुक था....गलियाँ खोजते-खोजते यहाँ तक आ पहुंचा. संपर्क पुनः स्थापित हुआ यह संतोष की बात है. अब संपर्क बना रहेगा.
    इतना जानता हूँ कि मटुक को यूँ खारिज कर पाना इतना सहज नहीं है लोगों के लिए ......

    जवाब देंहटाएं

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