भोलाराम की आजकल कुछ साहित्यकारों के साथ सोहबत चल रही है. शिक्षक-दिवस के अवसर पर उसको एक बड़े स्कूल में प्रमुख वक्ता के रूप में बोलने का अवसर मिला. आज की शिक्षा के विरोध में जमकर बोला. जब गलती निकालने लगा, तो निकालते-निकालते उस प्राचार्य तक पहुँच गया, जिन्होंने उसे प्रमुख वक्ता के रूप में तरजीह दी थी. उस सभा में उसका एक प्रबल विरोधी भी बैठा था. उसने मौके का लाभ उठाते हुए भाषण के बीच में ही इसका विरोध शुरू किया और प्राचार्य की तारीफ. प्राचार्य महोदय ने गरिमा का परिचय देते हुए बीच में हस्तक्षेप करने वाले को बैठाया और कहा- 'किसी भी आदमी को अपने विचार रखने की स्वतंत्रता है. आपको भी मौका मिलेगा. आप कृपया बैठ जायँ.' आजकल अधिकारी लोग क्षुद्र हुआ करते हैं. अपनी आलोचना सुनने की शक्ति वे नहीं रखते और वक्ता के प्रति अंदर ही अंदर कटुता से भर जाते हैं. सदा के लिए उन्हें ब्लैक लिस्टेड करते हैं और उनकी जड खोदने की कोशिश में जुट जाते हैं. उस प्राचार्य को अपवाद समझो.
भोलाराम यह अनुभव कर रहा है कि जब-जब वह बुराई पर हमला बोलता है, बुराई संगठित हो जाती है और इन पर जवाबी हमला करती है. भोलाराम दुविधाग्रस्त हो गया है. वह चाहता है कि इस बारे में मैं उनका मार्गदर्शन करूँ.
मटुकः- भोला भाई, आप जब किसी पर हमला करेंगे, उनकी गलतियाँ निकालेंगे, तो वह फूल-पान लेकर आपकी पूजा नहीं करेगा. आप दो गलतियाँ निकालेंगे, वह आपकी चार निकालेगा. आपके सही कामों को भी गलत रूप में रखेगा. इसलिए तों कोई बुद्धिजीवी मुँह पर किसी की आलोचना नहीं करता है. कोई अपना विश्वास पात्र मिल गया तो पीठ पीछे उसकी निन्दा कर अपनी भड ास अवश्य निकाल लेता है. इस आलोचना-प्रत्यालोचना से कोई सुधार नहीं होता है, भोला. सिर्फ कटुता फैलती है.
भोलारामः- लेकिन आपने सब पर चौतरफा हमला बोल दिया है! आप किसी को नहीं छोड रहे ?
मटुकः-मेरी बात और है, मैंने तो मुहब्बत की है. अनुकरण नहीं भोला, किसी का भी अनुकरण ठीक नहीं है. मैंने अपनी जिंदगी में चारों तरफ से आग लगायी है. मैं चाहता हूँ, मेरी सारी बुराइयाँ इस अग्नि में भस्मीभूत हो जायँ. मेरी चेतना भर रह जाय- अकंप दीपशिखा की तरह जलती हुई. यह मेरा साधना-मार्ग है. मेरे आनंद का विषय है. तुम्हें अपना रास्ता अपने स्वभाव के अनुसार चुनना होगा.
भोलारामः- गुरुदेव! आप मेरे स्वभाव को भली-भाँति जानते हैं. कृपया मुझे बतायें कि मुझे क्या करना चाहिए था ?
मटुकः- कोई भी काम शुरू करने से पहले उसके सब तरह के संभावित परिणामों को अच्छी तरह सोच लेना चाहिए. बुरे-से -बुरे परिणामों की कल्पना कर लेनी चाहिए. उसके बाद विचार करना चाहिए कि अगर ये परिणाम सामने आयेंगे तो क्या मैं उन्हें स्वीकार कर पाऊँगा ? अगर लगे कि हाँ, स्वीकार करूँगा. तब उस ओर अग्रसर होना चाहिए. तुमने भाषण दिया तो तुम्हारे चेतन और अवचेतन मन में यह चाह अवश्य रही होगी कि लोग कहें कि वाह; भोलाराम ने कितना क्रांतिकारी भाषण दिया. सब तुम्हारी पीठ थपथपाते. इससे तुम्हारा अहंकार फूलता. क्या इसी गुब्बारे को फुलाने के लिए तुमने क्रांतिकारी भाषण नहीं दिया ? मैं यह नहीं कहता कि संसार की बुराई को सहो. वह गलत होगा. क्योंकि उससे बुराई को प्रोत्साहन मिलता है. मैं तो इतना भर कहता हूँ कि तुम पहले अपनी बुराई को साफ करो. अरे भाई, तुम क्या किसी के धोबी हो जो उसके मनरूपी गंदे कपड़े को साफ करने निकल जाते हो ? तुम अपनी सफाई के द्वारा जितने निर्मल होते जाओगे उतना ही यह संसार तुम्हारे लिये निर्मल होता जायेगा. गंदगी रहेगी, मगर तुम्हें दिखाई नहीं पड ेगी. तुम अपने आप में आनंदित रहोगे.
मैं किसी पर हमला करता हूँ तो सारे परिणामों को सोचकर. उसमें मुझे वीर रस प्राप्त होता है. प्रत्याक्रमण करते समय मेरा क्षत्रियत्व जागता है. आक्रमण करते समय भी व्यक्ति विशेष का नुकसान हो, यह मेरे मन में कभी नहीं आता है. व्यक्ति बचे, उसकी बुराई डूबे. मैं केन्द्र पर स्थित होकर परिधि पर हमला करता हूँ. केन्द्र यानी सत्य और प्रेम. सत्य से अगर प्रेम है तो उसी रस से तुम सराबोर रहोगे. विरोधी तुम्हारा क्या-क्या नुकसान कर रहे हैं, इसकी चिंता नहीं सतायेगी.
तुम्हारा कहना था कि उस स्कूल के प्राचार्य क्लास नहीं लेते हैं, जबकि तुमने देखा है एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय में कुलपति भी क्लास लेते हैं. इसी आधार पर तुमने उन्हें नसीहत दे डाली. तुम्हारे अवचेतन में यह दिखाने का भी भाव रहा होगा कि तुम एक बहुत बड़ी युनिवर्सिटी के प्रोडक्ट हो. तुम्हारी धौंस वहाँ जमे. लोग श्रीहत होकर तुम्हारे सामने झुक जायँ. यह अहंकार है भोला, इसी का कीड ा तुम्हें काट रहा है!
किसी कॉलेज या विश्वविद्यालय में अगर प्राचार्य और कुलपति क्लास लेते हैं तो यह उनके आनंद का विषय है. यह उनकी ड्यूटी नहीं है. सफल प्राचार्य और कुलपति उसे कहते हैं जिनके यहाँ के प्रत्येक शिक्षक आनंद से क्लास लें. उन शिक्षकों के माध्यम से मानो प्राचार्य और कुलपति स्वयं क्लास लेते हैं ! क्लास लेने में अगर कोई दूसरा काम हर्ज हो रहा हो, तो यह गलत होगा, क्योंकि उनका काम क्लास लेना नहीं है, उनका काम है ऐसी व्यवस्था कर देना जिससे सभी क्लास सुचारु रूप से चलें.
पटना विश्वविद्यालय में आचार्य देवेन्द्रनाथ शर्मा शिक्षण के प्रति समर्पित सर्वाधिक लोकप्रिय सुयोग्य विद्वान शिक्षक थे. वे जब यहाँ के कुलपति हुए तो क्लास लेने का लोभ संवरण न कर सके. यह उनका आनंद था. यह उनके शिक्षक रूप की विशेषता थी, कुलपति रूप की नहीं.
इसलिए भोलाराम, ऐसा बोलो जिससे स्वयं आहत न होओ, पछताना नहंीं पड, े बल्कि पल-पल आनंद उमड े.
ऐसी बानी बोलिये, मन का आपा खोय.
औरन को सीतल करै, आपुहि सीतल होय.
मैं जानता हूँ कि तुम ऐसा ही बोलते हो. कभी-कभी मामूली-सी भूल सबसे होती है. चिंता मत करो.
मटुक नाथ चौधरी
७.०९.०९
सारग्रभित आलेख के लिये धन्यवाद
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंऐसा बोलो जिससे स्वयं आहत न होओ, पछताना नहीं पड़े, बल्कि पल-पल आनंद उमडे़.-सत्य वचन!!
जवाब देंहटाएं