गुरु-शिष्या संबंध-2 पर एक ब्लाॅगर अमिताभ त्रिपाठी की टिप्पणी पढ़कर मुझे कुछ ऐसी ही प्रसन्नता हुई , मानो - ‘ आज सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा ’. पाठकों की सुविधा के लिए उनकी पूरी टिप्पणी नीचे दे रहा हूँ.
‘‘मटुकजी, आप जो कुछ कर रहे हैं, वह आपका व्यक्तिगत जीवन है. मुझे आपत्ति इस बात पर है कि आप हिन्दू दर्शन, परंपरा और गुरु-शिष्य परंपरा को केवल अपने संदर्भ में परिभाषित करने के लिए लोगों को अर्द्धसत्य बताकर गुमराह कर रहे हैं. गीता में जिस ‘काम’ की बात आपने की है, वह लिविडो नहीं कामना है और इसका अर्थ है कि कामना अर्थात् इच्छाओं की पूर्ति नहीं होने से क्रोध उत्पन्न होता है और व्यक्ति की कामना केवल लिबिडो नहीं है.
मेरा आपसे आग्रह केवल इतना ही है कि गीता, स्वामी विवेकानंद को इस बहस में मत घसीटिये, क्योंकि गीता का महत्व हिन्दू समाज में काम की व्याख्या के लिए नहीं है और न ही हिन्दू समाज स्वामी विवेकानंद को भगिनी निवेदिता के बीच की अफवाहों के लिए जानता है. परंतु आपको सारा समाज तो केवल एक उपलब्धि के लिए जानता है. बेहतर होगा कि आप फ्रायड की भाँति लिविडो और अपने जीवन के संदर्भ में हिन्दू दर्शन और हमारे प्रेरणा पुरुषों की व्याख्या न करें, बाकी आप अपने व्यक्तिगत जीवन में जो मर्जी आये करें.’’
प्रिय अमिताभजी, आपके पाँच वाक्यों में दो बार ‘हिन्दू दर्शन’ और दो बार ‘हिन्दू समाज’ शब्द आये हुए हैं. इससे स्पष्ट होता है कि आप हिन्दुत्व-ग्रसित व्यक्ति हैं. आप उस साम्प्रदायिक विचारधारा के व्यक्ति हैं जो मस्जिद को ध्वस्त करने में ‘हिन्दू दर्शन’ की और गुजरात के दंगों में ‘हिन्दु समाज’ की विजय देखती है. हमें गीता और विवेकानंद की व्याख्या करने से मना करना आपकी आपराधिक प्रवृत्ति की भी सूचना देता है. इसके साथ ही आपके चित्त के रोंगों को भी प्रकट करता है. क्या गीता और विवेकानंद आप जैसे लोगों की बपौती हैं ? दुनिया में कोई कानून नहीं है जो मुझे गीता, कुरान, बाइबिल, धम्मपद आदि ग्रंथ पढ़ने और उनकी व्याख्या करने से रोक सके ? ये सारे ग्रंथ और सारे महापुरुष किसी जाति, सम्प्रदाय और देश की नहीं , संपूर्ण विश्व की धरोहर हैं.
कोई भी समझदार आदमी इतना जरूर जानता है कि किसी भी चीज की व्याख्या अपने संदर्भ में ही हो सकती है. अपने ज्ञान, अपने मानसिक स्तर और अपने अनुभव के अलावा व्याख्या करने का कोई दूसरा उपाय ही नहीं है. हजारों सालों से गीता की व्याख्याएँ होती आ रही हैं, अपने-अपने संदर्भों में. आपने किस-किस को मना किया है ? शंकराचार्य ने अपने संदर्भ में गीता की व्याख्या की और उससे संन्यास एवं अकर्म निकाल लिया. इसका दुष्परिणाम हुआ कि देश में पलायनवादी प्रवृत्ति पनप गयी. जरूरत एक ऐसी व्याख्या की थी जो कर्म को स्थापित करे. यह काम तिलक ने किया. अब तक की सारी व्याख्याओं केा उलट कर गीता का मर्म उद्घाटित करते हुए ओशो ने उसे मनस-शास्त्र घोषित किया. किन्हीं भी दो महापुरुषों की व्याख्याएँ एक समान नहीं हैं. फिर भी आप उसकी व्याख्या करने से मुझे रोकना चाहते हैं ? आपकी इस विचारधारा से तानाशाही की दुर्गंध आ रही है.
व्यक्तिगत जीवन और सामाजिक जीवन कोई अलग-थलग चीज नहीं है. सभी एक-दूसरे से जुड़े हैं. अगर उनके अन्तर्सम्बन्धों को आप नहीं देख पा रहे हैं , तो मैं आपके लिए भगवान से प्रार्थना ही कर सकता हूँ. तालाब में फेंका गया एक पत्थर पूरे तालाब को आंदोलित कर देता है. मेरे व्यक्तिगत जीवन में किसी ने कंकड़िया मार कर उसे आंदोलित किया है, जिसकी लहर आप तक पहुँची है और आप उद्वेलित हैं. हम सब छोटे-छोटे टापू नहीं हैं, एक ही महासागर के हिस्से हैं. हमारा जीवन परस्पर आश्रित है. अगर मैं ‘अर्द्धसत्य’ बताकर लोगों को ‘गुमराह’ कर रहा हूँ, तो आपसे निवेदन है कि पूर्ण सत्य बताकर लोगों को गुमराह होने से बचा लें. मैं अपनी ओर से आपकेा मना नहीं करूँगा, बल्कि आपकी पीठ थपथपाऊँगा.
लगता है, आपने फ्रायड के ‘लिबिडो’ को एक ऐसे स्रोत से समझा है जिनके पास फ्रायड की समझ नहीं है. फ्रायड एक ऐसे महान मनोवैज्ञानिक हैं जिन्होंने दुनिया को हिला कर रख दिया है. पहली बार ईमानदार चिंतन की शुरुआत फ्रायड से हुई है. फ्रायड के द्वारा ही लोगों को पहली बार मालूम हुआ कि दमन गलत है. उन्होंने कृष्ण को सही ढंग से समझने की एक आधार-भूमि तैयार कर दी है, क्योंकि मनुष्य जाति के इतिहास में अकेले कृष्ण हैं जो दमनवादी नहीं हैं. कृष्ण प्रेम से नहीं भागते. स्त्रियों से परहेज नहीं करते. गीता के निर्माता कृष्ण अत्यन्त सहज पुरुष हैं. स्त्री-पुरुष का प्रेमालिंगन और समागम एक जीवन-तथ्य है. लेकिन आप जैसे लोगों ने संभोग को भी समस्या बना दिया है. गीता आपके लिए पूजा करने वाला धार्मिक ग्रंथ होगा, मेरे लिए धड़कता हुआ जीवन है. पश्चिम के दार्शनिक शोपेनहावर ने जब पहली बार गीता का ड्यूसन द्वारा किया गया अनुवाद पढ़ा तो सड़क पर नाचने लगा था. उसने कहा था- ‘यह किताब पढ़ने के लिए नहीं, नाचने के लिए है.’ उसी किताब से आप मुझे वंचित रखना चाहते हैं ? स्वाभाविक है, क्योंकि आप गीता के दो ही उपयोग जानते हैं- एक अदालत में गीता की कसम लेकर झूठ बोलने के लिए और दूसरे, मरणासन्न व्यक्ति को सुनाने के लिए, ताकि कुकर्मियों को भी स्वर्ग मिल जाय !
आपको लग रहा होगा कि ‘लिबिडो’ का अर्थ होता है यौन-लिप्सा जो कि आपकी नजर में घिनौनी चीज है. आप शायद समझते होंगे कि धन-लिप्सा, पद-लिप्सा, यश-लिप्सा, युद्ध-लिप्सा आदि कोई अच्छी चीज होगी. अगर आप सीधे-सीधे या किसी समझदार विद्वान के माध्यम से ‘लिबिडो’ का अर्थ समझते तो आपको मालूम होता कि इस शब्द का अर्थ होता है ‘काम-ऊर्जा’ जिसे सेक्स-एनर्जी कह सकते हैं. केवल स्त्री-पुरुष का समागम काम-ऊर्जा नहीं है. यह मानव जीवन के मूल में है. मानव-जीवन ही नहीं संपूर्ण सृष्टि के अंतरतम में छिपी हुई है. काम ऊर्जा न हो तो किसी प्रकार का सृजन संभव नहीं है. काम ऊर्जा के खेल से ही फूल खिलते हैं. पक्षियों के गीत का सौन्दर्य काम-ऊर्जा की देन होती है. आप तो हिन्दू हैं , पता ही होगा कि पुराण में कहा गया है कि ब्रह्मा ने जो जगत बनाया है काम से पीड़ित होकर ही. ‘लिबिडो’ उस सागर की तरह है जिससे अनंत कामनाओं की तरंगे पैदा होती हैं.
मैंने कब कहा कि हिन्दू समाज में विवेकानंद भगिनी निवेदिता को लेकर चल रही अफवाहों के लिए जाने जाते हैं ? कोई कुछ भी कहे व्यक्ति अपने संदर्भ में उसका अर्थ ले ही लेता है. मेरे कहने का मतलब है कि किसी के संबंधों को समझने का एक ही आधार है अपने संबंध का स्तर ; अपना मानसिक विकास. काम-अतृप्त मानसिक दशा के कारण कृष्ण छिनार कहे जाते हैं, मीरा आवारा कही जाती हैं. कहा जाता है कि भगवान बुद्ध ने आम्रपाली को पटा लिया था, सुजाता से उनके शारीरिक संबंध थे. यह सब मैंने आपके ही हिन्दू समाज से सुना है. कोई गढ़ कर नहीं कह रहा हूँ. प्रेम के लिए विद्रोह करने वाली एक लड़की को एक हिन्दू वकील ने कहा- ‘अरे, तुम मीरा बनने चली हो, आवारागर्दी करेागी.’?
आप कहते हैं -‘आपको सारा समाज केवल एक उपलब्धि के लिए जानता है.’ मुझे कभी एहसास नहीं हुआ कि मेरी भी कोई उपलब्धि है !
व्यक्तिगत जीवन में भी व्यक्ति जो मर्जी आये नहीं कर सकता. यह देखना जरूरी होता है कि उसकी स्वतंत्रता किसी और की स्वतंत्रता का हरण तो नहीं कर रही है. लेकिन आपकी विचारधारा के लोग दूसरों के व्यक्तिगत जीवन में दखल देते हैं और उसे अपने अनुसार चलाने की हरसंभव कोशिश करते हैं.
आपका प्रोफाइल देखा, आप अपना पूरा परिचय छुपाये हुए हैं. अपराध बोध से ग्रसित व्यक्ति अपने को छिपाता है. पूछना चाहता हूँ कि छिपकर आक्रमण करना हिन्दू संस्कृति है या व्याध संस्कृति या कायर संस्कृति ?
आपने मुझपर अपनी पहचान छुपाने का जो आरोप लगाया है वह गलत है इसलिये मैं उत्तर दे रहा हूँ और साथ ही यह आरोप कि मैं अपराध बोध से ग्रस्त हूँ भी पूर्णतः सत्य से परे हैं। आप मुझे www.amitabhtripathi.com पर जाकर पूरी तरह समझ और जान सकते हैं।
जवाब देंहटाएंवैसे एक हिन्दी साहित्यकार और प्रोफेसर का पुत्र होने के कारण इस बात के लिये आपकी सराहना किये बिना नहीं रह सकता कि आप विद्वान है अन्यथा कुछ शब्दों के आधार पर मेरी विचारधारा की पूरी कुण्डली नहीं बना पाते यह बात और है कि उसमें पूर्वाग्रह कुछ अधिक ही है।
हिन्दू दर्शन क्या है? मुझे तो दार्शनिक पद्धतियों में इस तरह का कोई दर्शन दिखाई नहीं दिया।
जवाब देंहटाएंमटुक बाबू आपके द्वारा भेजे मेल से आपके ब्लाग का पता मिला। आपने जो लिखा वह कुछ वैसा ही है कि जिसे अण्डे खाने हैं वह उसके पक्ष में तर्क और तथ्य जुटा लेता है कि प्रोटीन है वगैरह... जिसे नहीं खाना है वह कहता है कि "नान फाइबरस फूड" है दिल के दौरे का कारण हो सकता है। सब अपने चश्में से दुनिया देखते हैं। आप करो भाई जो आपको करना है किसी को सहमत नहीं कर सकते हां बस तर्क से निरुत्तर जरूर कर सकते हैं। हम अगर सुअर हैं तो मानव मल हमारे भोजन है अब ऐसे में हम अगर मनुष्यों से शास्त्रार्थ करें तो क्या परिणाम निकलने वाला है। उल्लू,चमगादड़ जैसे प्राणी अगर शिक्षक हों इंजीनियर हों साइंसदान हों और वे मनुष्यों से जिरह करें कि तुम सबकी जीवन की सोच एक नामालूम अस्तित्व सूर्य पर केन्द्रित है तो मनुष्य क्या कहेगा कि भाई तुम्हें दिखेगा नहीं क्योंकि तुम उल्लू हो। आप करो जो आपको करना है क्योंकि हम जो मानते हैं वही सत्य होता है जो मानते ही नहीं वह कैसे सत्य हो सकता है। आपकी पूर्व पत्नी और परिवार के प्रति मुझे कोई सहानुभूति होनी चाहिये क्या ये आपसे जानना है.... अवश्य बताएं। मैं सोचता हूं कि आप समलैंगिक संबंधों पर भी कलम चलाएं आपके स्पष्ट विचार जान कर अच्छा लगेगा, वो भी प्रेम-व्रेम जैसा ही कुछ बताया जाता है।
जवाब देंहटाएंभड़ास!
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जवाब देंहटाएंगंभीरता से देखना होगा। शुरूआती नज़र में लग रहा है आपके यहां गंभीर चर्चाएं देखने को मिलेगी।
बचाव के आपके अपने तेवर हैं, और कहीं अच्छे भी लगते हैं।
परंतु समझ के साथ सरोकारों का होना भी लाजिमी लगता है।
टिप्पणी फिर कभी। अभी सिर्फ़ हाज़िरी लगा लें।
आदरणीय डाॅ. द्विवेदी साहब
जवाब देंहटाएं‘दर्शन’ शब्द के कई अर्थ हैं, इसलिए भ्रम पैदा होता है. पाश्चात्य संदर्भ में इसका अर्थ फिलाॅसफी है, जिसका माने होता है चिंतन-मनन करना. दर्शनशास्त्र का अर्थ है एक ऐसा शास्त्र जिसमें चिंतनपरक बातें हों. भारतीय संदर्भ में इसका अर्थ ‘साक्षात्कार’ से है. दर्शन अर्थात् मन के परे (चिंतन के परे) वह अवस्था जहाँ सत्य का दर्शन होता है. (उसका साक्षात्कार करने वाले हमारे यहाँ द्रष्टा और ऋषि कहलाये. भारतीय संदर्भ में दर्शन का अर्थ धर्म हुआ. हिन्दू दर्शन का माने हिन्दू धर्म ) यह शब्द मेरा नहीं है. एक मित्र ने इसका प्रयोग किया, इसलिए जवाब देते वक्त उनकी सुविधा के लिए मैंने इसी ‘हिन्दू-दर्शन’ शब्द का प्रयोग किया. प्रणाम. आभार.
प्रिय अमिताभजी
जवाब देंहटाएंआपके बारे में जानकर प्रसन्नता हुई. आप सात्विक वृत्ति के आदमी हैं. अनजाने आदमी के प्रति मन में आशंकाएँ रहती ही हैं. यह सच है कि कुछ शब्दोें को पकड़कर किसी के जीवन और स्वभाव के बारे में नहीं बताया जा सकता, लेकिन मेरे सामने उनके सिवा कुछ था भी नहीं - ‘कबिहि अरथ आखर बलु साँचा.’ आशा है, आगे हमलोग विचार-विनिमय जारी रखेंगे.
आपके पिताजी का नाम जानने की जिज्ञासा हुई. अगर आपको कोई दिक्कत न हो तो... .
साहसिक, विचारोत्तेजक, आवश्यक और विचारणीय पोस्ट। सलाम।
जवाब देंहटाएंमटुक भाई आप जूली जी को भी लेखिका के तौर पर मौका दीजिये ताकि आप दोनो लोग लिख सकें। एक जीमेल पर उनका आईडी बना लीजिये julimatuk नाम से। आप सबको उत्तर दे रहे हैं लेकिन क्या डा.रूपेश श्रीवास्तव से विचार विनिमय में इच्छुक नहीं हैं? कभी हमारी भड़ास पर भी पधारिये ताकि लगे कि ये विनिमय है या बस ईमेल-ईमेल खेलते हैं? प्रतीक्षा रहेगी।
जवाब देंहटाएंji, aapki salah ka shukriya. julimatuk ke naam se gmail account pehle se hi khula hai. wah abhi research me busy hai, isliye nahi likh paa rahi hai. jab use thoda waqt milta hai to wo blog ka sara kam composing aadi dekhti hai, kyokni main computer ke mamle me zero hoon. rupesh ji per pura ek aalekh hi diya hai- samanyikaran se sawdhan. bhaRas per jald hi aaonga. pranam.
जवाब देंहटाएंमटुक नाथ जी,
जवाब देंहटाएंआप ने टिप्पणी का उत्तर दिया। आभार!
वास्तव में हिन्दू एक भ्रामक शब्द है। इस का धर्म के लिए प्रयोग ताजा बात है। वास्तव में इस का प्रयोग विदेशियों ने पहले आरंभ किया। इस्लाम, पारसी, ईसाई आदि धर्म जिन का आविर्भाव भारत के बाहर हुआ, उन के आने के पहले ही आरंभ हुआ। हिन्दू वास्तव में उन लोगों के लिए प्रयोग किया गया जो इन धर्मों के आने के पहले तक भारत के निवासी थे। इस शब्द में वे सभी धर्मावलंबी और धर्म को न मानने वाले भी शामिल थे और आज भी हैं। संविधान और हिन्दू विवाह अधिनियम आदि में भी इस की परिभाषा इसी प्रकार करनी पड़ी। इस कारण से हिन्दू न धर्म है और न दर्शन अपितु एक ऐसी जीवन पद्धति है जिस में बहुत सारे धर्म सहजीवन प्राप्त कर सकते हैं। अफसोस का विषय यह है कि इस जीवन पद्धति के इस सार को समझने में गलती की जा रही है।