मंगलवार, सितंबर 29, 2009

बीमार नैतिकता बनाम स्वस्थ नैतिकता

मेरे ब्लाॅग पर उज्जैन से ‘महाजाल’ ब्लाॅग वाले सुरेश चिपलूनकर ने ‘गुरु-शिष्या- संबंध’ नामक लेखमाला पढ़कर (?) टिप्पणी भेजी है-‘‘ मैं आपके जूली ‘‘कृत्य’’ से पूर्णतः असहमत हूँ...विस्तार में जाना नहीं चाहता क्योंकि इसमें कई मुद्दे और पक्ष जुड़े हुए हैं, जैसे कि आपकी पत्नी, आपके अन्य शिष्य और ‘‘शिष्याएँ’’ भी...। कुल मिलाकर मेरे अनुसार, आपने एक अनैतिक कार्य किया है, भले ही आप अपने ‘‘शिक्षक वाले तर्कों ’’ से खुद को कितना ही उच्च आदर्शों ( ?) साबित करने की कोशिश करें .’’े

प्रिय चिपलूनकर साहब
आप मेरे जूली ‘कृत्य’ से सहमत नहीं हैं, तो कोई हर्ज नहीं. मैंने ब्लाॅग पर लेख पढ़ने के लिए आमंत्रण दिया था. क्या आपने पढ़ा ? अगर हाँ, तो उसका प्रमाण आपकी टिप्पणी में कहाँ है ? विस्तार में गये बिना, मुझसे जुड़े मुद्दों और पक्षों पर विचार किये बिना निष्कर्ष निकालने की बेचैनी आपके भीतर है और आखिर बिना विचारे निष्कर्ष तो आपने दे ही दिया. क्या आप इसे नैतिक कृत्य समझते हैं ? हड़बड़ी क्या थी, एक-दो दिन और ठहर जाते, थोड़ा तथ्य इकट्ठा करते, तटस्थ विश्लेषण करते, उसके बाद निष्कर्ष देते ! तब आपके निष्कर्ष में एक वजन आ जाता. यह कैसा निष्कर्ष ? जरा-सा कोई फूँक दे तो उड़ जाय ? अंग्रेजी में एक कहावत है ‘टू मच माॅरैलिटी क्रिएट्स इम्माॅरैलिटी’. अति नैतिकता का आग्रह अनैतिकता को जन्म देता है. आपकी एक छोटी-सी टिप्पणी अनैतिकता का जन्म बन गयी है. आपकी इस अनैतिक संतान पर एक नजर- ‘ कुल मिलाकर मेरे अनुसार, आपने एक अनैतिक कार्य किया है, भले ही आप अपने ‘शिक्षक वाले तर्कों’ से खुद को कितना ही उच्च आदर्शों ( ?) वाला साबित करने की कोशिश करें. ’ इस एक वाक्य में जो अनेक भाषा-दोष हैं, फिलहाल मैं उनकी तरफ से आँख मूँदता हूँ. ( वैसे लिक्खाड़ लोगों से इतनी नैतिकता की माँग स्वाभाविक है कि वे शुद्ध और साफ लिखें)
मेरे सामने ऊँचा आदर्श केवल सत्य है और सत्य को साबित करने की जरूरत नहीं पड़ती, उसे केवल देखना पड़ता है. उससे आँखें चार करनी पड़ती हैं. साबित केवल झूठ को करना पड़ता है, क्योंकि उसका कोई अस्तित्व नहीं होता. मैंने जो सत्य अपने आलेख में प्रस्तुत किया, उससे आँखें चार करने के बदले आपने आँखें चुरायीं हैं. साबित उन्हें करना पड़ता है जिसने कुछ छिपाकर रखा है. जिसका जीवन खुली किताब है उसको पढ़ने की पात्रता भी आपने नहीं दिखायी ? मेरा अनुमान है कि आप झूठ को सच और सच को झूठ साबित करने में लगे रहते होंगे, वरना यह ख्याल आपके दिमाग में आया कहाँ से ? जिसे आप अनैतिक कहते हैं, उसी को मैं भी अनैतिक कहता तभी मुझे कुछ और साबित करने की जरूरत पड़ती.
असल में, आपकी और मेरी नैतिकता की मान्यताएँ अलग-अलग हैं. आपके कहने का अर्थ संभवतः यह है कि विवाह से हटकर जो मैंने प्रेम किया, वह अनैतिक है. और मैं कहता हूँ कि विवाह नामक संस्था ही अनैतिक है, क्योंकि इसने प्रेम का गला घोंट कर रख दिया है. प्रेम आगे-आगे चले, विवाह उसके पीछे चले तब तो ठीक है. लेकिन विवाह आगे आ जाय और प्रेम को कहे तुम मेरा अनुगमन करो तो यह अस्वाभाविक और अप्राकृतिक है, इसीलिए अनैतिक भी है. जीवन-मूल्य प्रेम है. चाहे जिस विधि से आता हो, श्लाघ्य है. प्रेमरहित विवाह संबंध को ढोना, अपने पर और पत्नी पर जुल्म करना है. प्रेमरहित परिवार भूतो का घर है.
मेरी और आपकी नैतिकता की धारणा एक उदाहरण से स्पष्ट की जा सकती है. कल्पना कीजिए मैं एक सुंदर पार्क में हूँ. मुझसे मिलने के लिए आतुर एक स्त्री आती है. मैं उसे गले से लगा लेता हूँ. मैं उसके प्रेमालिंगन में डूब जाता हूँ. खो ही जाता हूँ. पता नहीं कि मैं हूँ भी या नहीं. इसी बीच आप उस तरफ से गुजर रहे होते हैं. देखते ही आपको जैसे बिच्छू डंक मार देता है. अनाचार हो रहा है ! सार्वजनिक स्थल पर घोर अनैतिक कृत्य हो रहा है ! इसे रोको, समाज भ्रष्ट हो जायेगा, कहाँ है पार्क का गार्ड ? पुलिस बुलाओ. चार-पाँच आप जैसे लोग अगर वहाँ इकट्ठे हो गये तो पुलिस भी बुलाने की जरूरत नहीं. आप स्वयं ही कार्रवाई शुरू कर देंगे. अब इस स्थिति को देखिये कि मैं आनंद में हूँ. अपने अस्तित्व का ज्ञान भूल गया हूँ. और आप पीड़ा में हैं. ईष्र्या की आग आपके नस-नस में लहर गयी है. जो आजतक आपको नहीं मिला, उसे कैसे दूसरा व्यक्ति पा सकता है ? जिस भाव का आपने दमन किया हुआ है, उसे कैसे किसी दूसरे को प्रकट करने दिया जा सकता है ?
मैं आनंद में हूँ और आप पीड़ा में पड़ गये हैं. सुख में होना, प्रेम में होना नैतिक है. दुख में होना, ईष्र्या में होना अनैतिक है.
एक दूसरा आदमी उसी पार्क से गुजरता है. वह काम-तृप्त है, प्रसन्न है, सहज है. अलबत्ता तो उसका ध्यान ही मेरी तरफ नहीं जायेगा, अगर जायेगा तो आमोद से उसका मन भर जायेगा. वाह, प्रकृति का कैसा मनोरम दृश्य देखने को मिला ! वह विधाता को इस सुंदर दृश्य को देखने का मौका देने के लिए धन्यवाद देगा और आगे बढ़ जायेगा. वह इतना ख्याल जरूर रखेगा कि उनकी उपस्थिति की भनक मुझ प्रेमी जोड़े को न लगे. वह अपनी उपस्थिति से मेरी प्रेम-समाधि तोड़ना न चाहेगा. मुदित होकर एक मुस्कुराहट के साथ वह वहाँ से निकल जायेगा. उसके चित्त पर उस दृश्य की छाया भी न होगी.
यह दूसरा व्यक्ति स्वस्थ है. आप बीमार हैं. आपको इलाज की जरूरत है. देखते हैं, कोई पागल कैसे किसी राहगीर को अकारण मारने दौड़ता है. आपकी स्थिति उससे ज्यादा बेहतर नहीं. उसका दिमाग थोड़ा ज्यादा घसक गया है. एक-दो कदम और आगे बढ़ने पर आप भी उस स्थिति में जा सकते हैं.
आप अपने शब्दों पर जरा गौर कीजिए- ‘जूली-कृत्य’. क्योंकि जिंदगी आपके लिए एक कृत्य है, एक काम है. जीवन अगर एक काम हो तो उसे ढोना पड़ता है, निपटाना पड़ता है, उसे कर्तव्य मानकर निभाना पड़ता है. नहीं निभा पाये तो तनाव होता है, मन अशांत होता है. आप मुझसे बहुत दूर हैं. मुझसे अगर आपका संपर्क हुआ होता तो आप देखते कि जीवन एक उत्सव है. मेरे लिए जीवन महोत्सव है, कृत्य नहीं. तब आप इस ‘कृत्य’ शब्द को बदलकर लिखते- जूली-प्रेम, जूली-उत्सव. आपने टिप्पणी तेा मेरे बारे में की है, लेकिन ये शब्द आपकी ही जीवन-शैली और ‘कृत्य’ की खबर दे रहे हंैे. मैं तो आपका आईना भर हूँ. आपने मुझमें अपनी ही छवि देखी हंै. मेरा जीवन आपके लिए अज्ञात है.

4 टिप्‍पणियां:

  1. आपके विषय में अधिक नहीं जानता लेकिन जहाँ तक जानता हूँ वह यह कि आपकी पत्नी व बच्चे भी हैं. ऐसे में अपनी जिम्मेदारियों से मुंह मोड़कर विवाहेत्तर संबंधों में लीन हो जाना क्या नैतिक है ?आपका विवाह बेमेल हो सकता है परन्तु बच्चे तो आपकी इच्छा के बगैर नहीं हुए होंगे. फिर उन जिम्मेदारियों से मुंह मोड़कर और उनके लिए एक आदर्श पिता बनने के बजाय आप "प्रेम" में लीन हो गए. यह कहाँ तक उचित है? यदि आपका विवाह बेमेल था तो आपने विवाह किया ही क्यों? या फिर आपने तलाक़ लेकर उससे मुक्ति क्यों नहीं पा ली ?

    यह दूसरी नाव मिलने तक पहली को छोड़ देने की घबराहट नहीं थी (आत्मिक या दैहिक स्वार्थ)?

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  2. "जीवन एक उत्सव है. मेरे लिए जीवन महोत्सव है, कृत्य नहीं. तब आप इस ‘कृत्य’ शब्द को बदलकर लिखते- जूली-प्रेम, जूली-उत्सव. आपने टिप्पणी तेा मेरे बारे में की है, लेकिन ये शब्द आपकी ही जीवन-शैली और ‘कृत्य’ की खबर दे रहे हंैे"

    बहुत सही जवाब दिया है जी आपने सुरेश जी को

    प्रणाम स्वीकार करें

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  3. सुरेशजी मेरे प्रिय मित्र हैं लेकिन आपके इस लेख में दिये तर्कों से मैं पूर्ण रूप से सहमत हूं। मैं मानता हूं कि विवाह प्रेम का गला घोंट देता है लेकिन फिर भी हमारे संस्कारों से हम मुक्त नहीं हो पाते, आप भी नहीं ही हो पाये।

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  4. sagarji, wo aake mitra hain fir bhi aapne mere aalekh se sahmati jatayee, ye aapke khule dimag ko darsata hai. aisa kam hi hota hai. vinaypurvak janna chahoonga ki main kahan nahi mukt ho paya aapki najar me? apni najar me to main kai bar jab bhi pata hoon to sudharne ki disha me kam karta hoon. aabhar

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