गुरुवार, अक्तूबर 01, 2009

सहस नयन पर दोष निहारा

मेरे ब्लाॅग पर ‘बीमार नैतिकता बनाम स्वस्थ नैतिकता ’ पढ़ने ( ?) के उपरांत लखनऊ के एक ‘निशाचर’ ने टिप्पणी की है - ‘‘आपके विषय में अधिक नहीं जानता लेकिन जहाँ तक जानता हूँ वह यह कि आपकी पत्नी व बच्चे भी हैं. ऐसे में अपनी जिम्मेदारियों से मुंह मोड़कर विवाहेत्तर संबंधों में लीन हो जाना क्या नैतिक है ?आपका विवाह बेमेल हो सकता है परन्तु बच्चे तो आपकी इच्छा के बगैर नहीं हुए होंगे. फिर उन जिम्मेदारियों से मुंह मोड़कर और उनके लिए एक आदर्श पिता बनने के बजाय आप "प्रेम" में लीन हो गए. यह कहाँ तक उचित है? यदि आपका विवाह बेमेल था तो आपने विवाह किया ही क्यों? या फिर आपने तलाक़ लेकर उससे मुक्ति क्यों नहीं पा ली ?

यह दूसरी नाव मिलने तक पहली को छोड़ देने की घबराहट नहीं थी (आत्मिक या दैहिक स्वार्थ)?


निशाचर भाई

दूसरों के जीवन में ताक-झाँक और छींटाकशी अनैतिक है. दूसरों के जीवन में झाँकने की दिलचस्पी उन्हें ज्यादा होती है जो अपना जीवन नहीं जी रहे होते हैं. जो अपना जीवन जीने में मस्त हंै, उन्हें कहाँ फुर्सत कि दूसरों के घर में हुलुक-बुलुुुक करें. आपकी असली समस्या यह नहीं है कि मैं क्या कर रहा हूँ, समस्या है कि आप क्या कर रहे हैं. वही आपके लिए अच्छा या बुरा परिणाम लायेगा. दूसरों के जीवन पर ध्यान लगाने से तीन स्थितियाँ बन सकती हैं. या तो आप उनका अनंुकरण करें या उनकी भत्र्सना करें या तटस्थ होकर देखें. अनुकरण भयावह चीज है. इसमें आपकी अस्मिता समाप्त हो जाती है. अनुकरण से अगर कुछ हासिल हो भी तो भी आप दोयम दर्जे के नागरिक बनते हैं. भत्र्सना करके मन में थोड़ा तोष होता है कि मैं उससे बेहतर मनुष्य हूँ. लेकिन इसके पहले आपको एक तनाव से गुजरना पड़ता है. जिन्हें क्षोभ नहीं होगा, वह क्यों किसी की भत्र्सना करेगा ? भत्र्सना के बावजूद किसी-किसी को आशंका तो बनी ही रहती है कि कौन जाने वही बेहतर आदमी हो. तीसरी दृष्टि बड़ी दुर्लभ है. यह उसे प्राप्त होती है जो अपना जीवन जी रहा होता है. इस दृष्टि से सम्पन्न आदमी भी दूसरों की तरफ देख सकता है. दूसरों के जीवन में ऐसा क्या कुछ है जो मुझे अपने जीवन को बेहतर बनाने के लिए प्रेरित कर सके. अगर है तो इतने मात्र से वह प्रेरित होगा और उस आदमी को धन्यवाद देगा. नहीं है, तो उनकी तरफ से आँख मूँद लेगा. लेकिन भत्र्सना वाला आदमी उलझेगा, टकरायेगा, उपद्रव करेगा, क्योंकि उसका जीवन खाली है और उस खालीपन को भरना चाहेगा. कहावत है, खाली दिमाग शैतान का घर. यहाँ खाली से इतना ही मतलब है कि उसका समय निरर्थक कामों में नष्ट हो रहा है. क्योंकि वास्तव में दिमाग कभी किसी का खाली रहता नहीं है. निरंतर वह गलत-सही सोचता रहता है. दिमाग को खाली करना जीवन का सबसे बड़ा तप, सबसे बड़ी कला है, सबसे बड़ी समझ है, क्योंकि खाली दिमाग में ही सत्य का अवतरण होता है. वास्तव में खाली दिमाग शैतान का नहीं परमात्मा का घर है.
आपने जिम्मेदारी का सवाल उठाया है. यह शब्द अप्रेम की दुनिया से आता है. जिससे हम प्रेम नहीं कर पाते हैं, उसके प्रति हम जिम्मेदारी निभाते हैं. प्यार से सराबोर माँ बच्चे को चूम रही है, पुचकार रही है, खेला रही है, उसके साथ खेल रही है. बच्चे ने पेशाब कर दिया. माँ खिलाखिलाकर हँस पड़ती है. आनन-फानन में उसके गीले कपड़े बदल देती है, नहा देती है,नये वस्त्र पहना देती है, पाउडर से सुवासित कर देती है. क्या आप कहेंगे कि माँ जिम्मेदारी का पालन कर रही है ? वह तो आनंद मगन है. वैसा करने का मौका न मिले तो जीवन सूख जाय. वह उसका आनंद है, जिम्मेदारी नहीं है. जो काम जिम्मेदारी के बोध से किया जाता है, वह बोझ बन जाता है. उसके संपादन में कष्ट होता है. फलतः कर्म कुशलतापूर्वक संपादित नहीं होता. एक दूसरा उदाहरण देता हूँ. आप ट्रेन में बैठे हैं. बहुत भीड़ है, लेकिन आपको जगह मिली हुई है. इस बीच एक अत्यन्त बूढ़ा असमर्थ आदमी वहाँ आ जाता है. खड़ा रहना उसके लिए संभव नहीं है. तीन तरह के लोग वहाँ हो सकते हैं. पहला उन्हें देखते ही करुणा से भर सकता है, उन्हें लग सकता है कि वे मेरे पिता समान हैं. वह झट-से उठ खड़ा होगा और अपनी जगह उन्हें बैठाकर सुख को उपलब्ध होगा. बूढ़े को बैठकर राहत मिली और उन्हें बैठा कर उस आदमी को. दोनों सुखी हुए. यह जिम्मेदारी नहीं है, प्रेम और करुणा है. जिम्मेदारी की स्थिति तब बनेगी जब किसी दूसरे आदमी को मन ही मन लगेगा - खूँसट कहाँ से आ गया आराम में खलल डालने ! लगता है, उठना ही पड़ेगा ! बोझिल मन से वह उठता है- ‘बैठिये बाबा, काहे को इस अवस्था में घर से निकलते हैं ?’ दूसरे आदमी ने यद्यपि त्याग किया लेकिन उनका मन विषाक्त है. आनंद का लेश नहीं. त्याग तो पहले आदमी ने भी किया लेकिन इसका उसे कोई बोध नहीं. उसने तो दूसरों को सुखी कर सुख का भोग किया. इसीलिए मैं मानता हूँ कि जीवन ‘त्याग’ नहीं ‘भोग’ है. एक तीसरे प्रकार का आदमी भी हो सकता है. उसको भी दूसरे की तरह बूढ़े का आगमन अखरेगा. लेकिन वह खुद खड़ा नहीं होगा. दबंगई का परिचय देते हुए फटकारकर किसी और को खड़ा कर देगा. उसकी जगह बूढ़े को बैठा देगा. ऐसा ही आदमी नेता बनता है और सफल होता है.
मैंने अपनी पत्नी और बच्चे के लिए क्या किया, नहीं किया , यह पूछने का हक आपको नहीं है और न ही मुझे उसे गिनाकर आपके ओछेपन में शामिल होने की ख्वाहिश है. आप मुझे एक गैर-जिम्मेदार आदमी समझें. आप जैसे परमार्थियों से देश पटा पड़ा है , फिर भी दीन दशा में है. एक आदमी खोज दीजिए जो अपने आपको स्वार्थी कहता हो. मैं एक स्वार्थी व्यक्ति हूँ. और ठीक-ठीक स्वार्थ साधने की कला ढूँढ रहा हूँ. आपका परमार्थ आपको मुबारक ! मूढ़ आदमी का जन्म दूसरों को सलाह देने के लिए ही होता है. अगर कोई मुझसे पूछे कि मूढ़ की पहचान क्या है, तो मैं कहूँगा जो बिना माँगे किसी को अनपेक्षित सलाह देता नजर आये, तुरत पहचान लेना कि वह मूढ़ है. एक तो बिन माँगे सलाह देना मूढ़तापूर्ण है, लेकिन जो सलाह दी जा रही हो वह भी मूढ़तापूर्ण हो तो उसे हम वज्र-मूढ़ कहेंगे. आपकी यह सलाह इसी तरह की है -‘ यदि आपका विवाह बेमेल था तो आपने विवाह किया ही क्यों ? ’ विवाह के पहले कोई विवाह बेमेल कैसे हो सकता है ?
आप जिज्ञासु होते तो तथ्य की जानकारी देकर मैं आपको तुष्ट करता , लेकिन आप आक्रमणकारी हैं और उसके लिए मैं काल भैरव हूँ.

2 टिप्‍पणियां:

  1. पहली बार आपके ब्लाग पर आया हूँ , एक बार आप दोनों को मीडिया पर सुना था, आप दोनों विद्वान् है इसमें कोई संदेह नहीं !
    उपरोक्त जवाब अच्छा लगा, समाज ऐसे ही लोगों से भरा पड़ा है ! मेरी आपको हार्दिक शुभकामनायें !

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