मंगलवार, अक्तूबर 06, 2009

आत्महत्या का अधिकार

कोई भी आदमी मरना नहीं चाहता है, चाहे जितने दुख में हो. ऊपर से भले बोल दे कि हे विधाता, अब मुझे उठा लो. लेकिन अगर सचमुच मृत्यु आ जाय तो वह घबरा जायेगा और यमदूत से कहेगा - ‘‘नहीं, नहीं, मेरे कहने का मतलब दूसरा था. मैं तो कहना चाहता था- ‘मेरे दुख को उठा लो, मुझे छोड़ दो. आप गलतफहमी में आ गये हुजूर. कृपया लौट जायँ. मैं बिल्कुल ठीक हूँ.’’ जब तक आशा बची रहती है, तब तक मनुष्य मरना नहीं चाहता है. आशा उसे जिलाये रखती है. आशा आत्महत्या निरोधक है. ऐसा आदमी भी अगर कभी मृत्यु का आलिंगन कर लेता है, तो इसका अर्थ है कि दुख साधारण नहीं होगा. वह सहने की सीमा के पार चला गया होगा.
यह विरोधाभास है कि आत्महत्या का निर्णय वही व्यक्ति लेता है जो जीवन के प्रति घनघोर आसक्त होता है. जो जीवन खूब जीना चाहता है, लेकिन अपनी शर्तों पर. शर्त अगर पूरी न हो तो वह आत्महत्या कर लेता है. जो बेशर्त जीता है, उसके मन में आत्महत्या का ख्याल कभी नहीं आता. जिंदगी का मजा तो बेशर्त जीने में है. लेकिन बहुत कठिन है बेशर्त जीना. जीवन की गहन समझ जिन्हें आती है, वही बेशर्त जीने में सक्षम होते हैं, वरना हम तो पग-पग पर जीने के लिए शर्त रखते हैं.
यहाँ विचारणीय मुद्दा है कि क्या आत्महत्या करने वालों को जिलाये रखने में कानून सक्षम है ? मुझे तो नहीं लगता है, क्योंकि जिसे मृत्यु का ही भय नहीं रहा, उसे कानून का क्या भय होगा ? जीवन में सबसे बड़ा भय मृत्यु का होता है. उससे बड़ा भय यदि कोई हो सकता है तो यही कि हमें निरंतर पीड़ा में न रहना पड़े. उससे मौत भली. और आत्महत्या विरोधी कानून मनुष्य को मौत से भी बड़ा दुख देने का क्रूर उपाय है. जो आदमी जीवन ही नहीं रखना चाहता है, कानून उसका क्या बिगाड़ेगा ? हाँ, जो आत्महत्या के प्रयास में विफल हो जाता है, कानून उसे ही पकड़ता है. जिसने आत्महत्या की, उसको स्वर्ग या नरक से पकड़ कर लाने को कोई उपाय नहीं, उसे दंडित करने का कोई साधन नहीं. यह कानून केवल उसके लिए है, जो बच गया. एक तो बेचारे पर असह्य दुख पड़ा जिससे परेशान होकर वह मरना चाह रहा है. दैवयोग से वह बच गया तो उसे सहानुभूति की जरूरत है. उस अवस्था में भी उसे पुलिस और कचहरी का एक नया दुख देना कहाँ तक मुनासिब है ? इस कानून के कारण आत्महत्या करने वाला ऐसी तैयारी करेगा ताकि बचने का कोई उपाय ही न रहे. इस कानून के रहते पुलिस के डर से उसका उचित इलाज भी नहीं हो पाता है, वह मरने को बाध्य होता है. जिसे बचाया जा सकता था, कानून के डर से लोग विवश होकर उसे मरने देते हैं. इस कानून की विडंबना यह है कि यह जिलाने में नहीं मारने में सहायक है. इसलिए इस कानून को यथाशीघ्र हटना चाहिए.
आत्महत्या का अधिकार असहायों, वृद्धों, रोगियों, अपाहिजों भिखारियों आदि के लिए सुखदायी होगा. एक उदाहरण से स्पष्ट करना चाहूँगा. एक वृद्ध व्यक्ति है. उसकी देखभाल करने वाला कोई नहीं है. वह इतना असमर्थ है कि उठकर शौच भी नहीं जा सकता. वह बिछावन पर पड़ा-पड़ा मल-मूत्र त्याग कर रहा है. नरक में कराह रहा है. अगर वह किसी को कहे कि मुझे कृपाकर जहर दे दो तो इसमें क्या परेशानी है ? लेकिन कानून के डर से कोई भी आदमी उसे जहर नहीं देगा, क्योंकि तब उस पर हत्या का आरोप लग जायेगा. यहाँ कानून उसे नरक में जीने को मजबूर कर रहा है. सड़क पर पड़े-पड़े ऐसे अनेक भिखारी मिलेंगे जो जाड़े की कड़ाके की ठंड में भी मौत के दिन गिन रहे हैं. या तो समाज और देश इतना अच्छा हो जाय कि हर असहाय की सहायता के लिए वृद्धाश्रम हो जहाँ उसकी उचित सेवा हो सके, लेकिन जब तक समाज और देश ऐसा नहीं है, तब तक इस पीड़ादायी कानून को ही हट जाना चाहिए.
ऐसा भी बहुत देखा जाता है कि एक आदमी असाध्य बीमारी से पीड़ित है. उसकी मृत्यु तय है. असीम दर्द में वह रात-दिन पड़ा है. परिवार वाले सेवा करते-करते स्वयं बीमार पड़ने लगे हैं. रोगी और परिवार सबकी इच्छा है कि हे भगवान् अब बुला लो. लेकिन कानून दीवार बनकर खड़ा है. यहाँ पर इस कानून का एक ही काम है मरीज और उसके परिवार की पीड़ा को लंबा करना.
इससे कुछ भिन्न प्रकार के लोगों के लिए भी आत्महत्या का अधिकार सुखदायी है. एक आदमी बिल्कुल अकेला है. दुनिया में उसका कोई नहीं है. उसे किसी से मतलब नहीं है. दुनियावालों को भी उससे कोई मतलब नहीं है, क्योंकि मतलब हमेशा दो तरफा होता है. वह जीवन से ऊब चुका है. मरना चाहता है. कानून क्यों उसे आत्महत्या से रोकेगा ? रोककर किसको क्या फायदा पहुँचायेगा ? अगर कोई कहे कि समाज को फायदा हो सकता है, इसलिए समाज चाहेगा कि वह व्यक्ति जिंदा रहे. अगर वह व्यक्ति वास्तव में समाज के लिए उपयोगी है तो समाज उसे अकेला नहीं छोड़ेगा, उसके जीवन में प्रेम भरेगा और उसकी मरणेच्छा को जीवनेच्छा में बदल देगा. अगर कोई ऐसा न करे और सिर्फ उस व्यक्ति का शोषण करना चाहे तो किसी व्यक्ति को इतनी स्वतंत्रता होनी चाहिए कि वह अपने को शोषित होने से बचा ले.
इस कानून के विरुद्ध बड़े पैमाने पर आवाज नहीं उठती है, क्योंकि आत्महत्या करने वालों पर इसका अंकुश काम नहीं करता है. कानून के रहते कोई भी आदमी अपना काम तमाम बिना किसी खास बाधा के कर सकता है. इस कानून के उठ जाने से एक फायदा यह भी संभव है कि विक्षिप्त टाइप के जो लोग सामूहिक आत्मदाह का नाटक करते हैं, वे नाटक करना बंद कर देंगे. लेकिन जो इसका उपयोग समाज और सरकार को धमकाने के लिए करना चाहते हैं, उन्हें धमकाने के आरोप में गिरफतार करना चाहिए. कुछ लोग सरकार को घेरने के लिए और जनता में सहानूभूति की लहर पैदा करने के लिए सामूहिक आत्मदाह करना चाहते हैं. यह लड़ाई का एक आत्मघाती तरीका है. उग्रवादियों-आतंकवादियों और उनमें बस इतना-सा ही फर्क है कि एक दूसरे को मारना चाहता है और वे अपने आप को. एक बात में दोनों समान हैं कि दोनों अपनी बातें मनवाने के लिए हिंसा का सहारा लेते हैं.
आत्महत्या का अधिकार उसे मिलना चाहिए जो कामनारहित होकर मरना चाहता है. किसी से कोई गिला-शिकवा नहीं. ऐसा आदमी शांति से मरना चाहे तो मर सकता है. यह बात दीगर है कि ऐसा आदमी मरना नहीं चाहता है. दूसरों के प्रति शिकायत से भरा आदमी ही आत्महत्या करता है.
आत्महत्या के अधिकार के पीछे एक दृष्टि और है. देश अति आबादी से पीड़ित है. अगर नकारा आदमी मरकर देश का भार हल्का करना चाहते हैं, तो देश को क्यों आपत्ति हो ? खास कर उस देश में जहाँ ‘नकारा’ को ‘सकारा’ बनाने का कोई प्रबंध न हो ? आत्महत्या के अधिकार का दुरुपयोग न हो, इसके लिए उसमें उपयुक्त निर्देश रहना लाजिमी है.

3 टिप्‍पणियां:

  1. "अगर नकारा आदमी मरकर देश का भार हल्का करना चाहते हैं, तो देश को क्यों आपत्ति हो ? खास कर उस देश में जहाँ ‘नकारा’ को ‘सकारा’ बनाने का कोई प्रबंध न हो ?"
    विचारणीय है यह चिट्ठी
    बहुत बढिया लगी यह पोस्ट
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  2. arre, aap yhan bhi aa gye matuknatji, bibi bchche kaise hain aapke. juliji ti mashaallah blog pe dikh hi rhi hain. blog pe prem shastra ki class lo aur apna darshan filao. osho ka photo istemal krna mujhe uchit nhi lga. ve grhsti aur jimmedari se muh modne ke khilaf the.

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  3. औलिया साहब
    आप एक पत्रकार हैं. पत्रकार की जिम्मेदारी है कि पहले तथ्य जाने, फिर टिप्पणी करे. मेरा लेख जो एक तथ्य है और आपके सामने है. उस पर आपने कोई टिप्पणी नहीं की. मेरा निजी जीवन जो आपके लिए अज्ञात है और आपके सामने नहीं है, उसी पर आपने अधीर टिप्पणी की है. आपकी जिम्मेदारी को सलाम !

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