शुक्रवार, मार्च 19, 2010

शादी के बारे में कुछ-कुछ

            

            शादियों को देखकर मेरे दिमाग में हजार तरह की बातें आती हैं. कुछ-कुछ कहने का मन करता है.
शादी के समारोहों में आमतौर पर मेरी कोई दिलचस्पी नहीं रहती. जब भी जाती हूँ सिर्फ कोरम पूरा करने के लिए. यह बड़ा सौभाग्य है कि जब से हमारा प्रेम प्रसंग उजागर हुआ है कम ही लोग हमें बुलाते हैं. 2006 में यह संख्या शून्य थी. अब धीरे-धीरे बढ़ने लगी है. बदनाम प्रेमियों को कौन बुलाये शादी जैसे पवित्र (!) अनुष्ठान में. ( वैसे, शादी में दरअसल वह कौन-सा तत्व है जिसे पवित्र कहा जाता है, यह मुझे आज तक समझ में नहीं आया ? समाज में पावन लोगों की भरमार भी नहीं दिखती)
शादी के कार्ड पर आजकल कृष्ण-राधा की तस्वीर ज्यादा छपती दिखती है. गणेशजी जरा साइड में जा रहे हैं. जरा सोच के तो डालना चाहिए. दोनों विवादास्पद हैं. एक जोड़े ने विवाह ही नहीं किया. एक की दो पत्नियाँ हैं- ऋध्द्धि और सिद्धि. इस रट्टूमल शिक्षा में विश्लेषण की क्षमता खो ही जाती है. क्या किया जा सकता है ?
शादी के कार्ड आजकल तरह-तरह के मिलते हैं. सुना है, एक कार्ड की कीमत हजारों में भी होती है. मैंने तो सैकड़ों में ही देखी है. सिर्फ सूचना ही देनी है तो इतना मँहगा कार्ड क्यों दिया जाता है ? शान दिखाने के लिए ? एक महोदय ने बड़ी शान से बताया- अरे, 100 रूपया पड़ा है एक कार्ड का.
जिन्होंने किसी न किसी किस्म की बेईमानी से अकूत धन कमाया है, उन्हें तो खर्च करना है. चलो ठीक है. पर साधारण धन वाले और बेटा बेचने वाले भी ऐसा ही करते हैं . वाह ! उतने पैसे बचाकर क्या बेटे-बेटी को कोई जरूरी चीज नहीं दी जा सकती ? पर वो कैसे हो. लोगों की नजर में छोटे नहीं हो जायेंगे ?
 मटुकजी ने मुझे बताया - मैंने भाई की शादी में सिर्फ रंगीन कार्डबोर्ड पर सुरुचिपूर्ण ढंग से एक साधारण सूचना छपवाई और वही बाँट आया. बुद्धिजीवी निंदा करने लगे. आँय इतनी कंजूसी! सब पैसा बचा लिये. मटुकजी ने कहा- हाँ, ये पैसे बचाकर उसके काम की कोई चीज दे दूँगा. कार्ड तो आप भी देखकर इधर-उधर फेंक ही देंगे. घर में रखने की जगह भी नहीं मिलती है. इस पर कई लोगों ने मुँह बिचका दिया. घर में बहन की शादी में मैंने माता-पिता से यह कहा था तो वो मेरी नासमझी पर तरस खाने लगे- ऐं, लोग कि कहतै. तोरा दुनियादारी कि मालूम छो. खुदा का करम जो ऐसी दुनियादारी से मुझे बचाया.
                 शादी में जो आर्केस्टाª बजते हैं, सुभान अल्लाह ! पटना की हर शादी में वही गीत- जिमी-जिमी आजा..., आज मेरे यार की शादी है. बहुत होगा तो अजीब फटी सी आवाज में कुछ नये गीत बजा देंगे. लगता है जो सबसे भद्दा गाते हैं, वे आर्केस्ट्रा में भरती हो जाते हैं ! गहरे एहसास जगाने वाले गीतों की कमी तो नहीं है ?
          बैंड-बाजे के साथ प्रायः बच्चे लाइट लेकर चलते हैं. मैं इन्हें जानबूझकर बार-बार चुट्टी काटती हूँ- वो क्या है छुन्नू ? ये हँसते हुए चेतावनी देते हैं- चुप रहो, शुभ कार्य है, मत बोलो. मुँह दबाकर मैं हँसती हूँ . ये क्या हो रहा है ? फिर द्रवित हो जाती हूँ. छोटे-छोटे बच्चे लाइट लेकर ठंडी-गर्मी में सर पर दूर तक ढोते जा रहे हैं.
फिर सुनायी पड़ती है कान फोड़ू आतिशबाजी. संवेदनहीनता की हद. इसमें क्या सुरूचि है ? क्या सौन्दर्य  है ?
              हर जगह वही. कुछ सृजनात्मक क्यों नहीं होता ?  उतने ही पैसे में हो सकता है. रूढ़ि ग्रस्तता छोटी-बड़ी हर चीज में होती है. लड़का घोड़े पर सवार क्यों है ? क्या बादशाहों का युग है ? किसी को उसमें मजा आ सकता है. उसके लिए ठीक है. पर सबको वही क्यों करना है ? उसकी क्या तुक है ?
                 खाना इतना बर्बाद क्यों करते हैं हम ? हमेशा देखा है लोग प्लेट में जान से ज्यादा खाना ले रहे हैं. बर्बाद कर रहे हैं. कोई ममता नहीं. जब खुद ही लेना है तो फिर ले लीजिए. कोई रोक तो नहीं रहा. पर नहीं, थाली से गिरने गिरने तक नहीं हो जाय तब तक छोड़ेंगे नहीं. फिर थोड़ा खाकर फेंक देंगे. दूसरे का पैसा है, उड़ाने में कोई हर्ज नहीं. पर इतना खाना किसी के पेट में चला जाता तो कुछ कमी रह जाती ?
           तिलक पर भी बात कर ही लेनी चाहिए. वैसे इसकी बुराई सभी करते हैं, ज्यादा क्या कहना है. जितना जीवन में खिलाना-पहनाना है, उतना तो लेना ही चाहिए. वैसे भी लड़कियों को संपत्ति में हिस्सा नहीं मिलता. इसलिए इसी बहाने ले लेना ही चाहिए. यही व्यावहारिकता है. संपत्ति वाला मामला कुछ पेचीदा हो गया. इस मुद्दे पर अलग से विस्तार में लिखना पड़ेगा. अभी मुझे कुछ और बातें कहनी हैं. मुझे वाकई यह जानना है कि जो बिना चढ़ावे के मानते नहीं, उन्हें कैसे लड़कियाँ पति देवता मान लेती हैं ? सच में, मैं दिल से जानना चाहती हूँ कि ऐसे आदमी का सम्मान कैसे संभव हो पाता है ? उसे देखकर बार-बार मन में यह कैसे नहीं उठता कि यह आदमी वही है जो बिना चढ़ावे के मुझे अपनाने को तैयार नहीं था ? उसके सर पर मौर की जगह पैसे की टोकरी नहीं दिखती ? यह कैसे होता है भाई ?
                इससे भी बड़ी समस्या एक और है. जितनी भी ऐसी लड़कियाँ हैं वे सभी कहती हैं कि मुझे अपने उनसे बड़ा प्रेम है. व्यापार की बुनियाद पर ये कौन-सा प्रेम पैदा हो जाता है भाई ? मेरे तो होश ही गुम हो जाते हैं. खरीद कर लायी गयी वस्तु से जीवंत प्रेम हो जाता है ! या फिर यह बेसहारा हो जाने के डर से पैदा हुआ मोह है ? कि अब पता है, यहीं जीना है, यहीं मरना है. यही एक गारंटीड व्यक्ति इस दुनिया द्वारा मिला है कि प्रेम-वेम के जो भी भाव हैं वो इसी से पूरे करो. बाहर दुनिया बुरी है. जाओगी कहाँ. वह अनैतिक असामाजिक होगा. तो कुल मिलाकर यही घर-संसार है. निभाओ. समझदार कुलीन संस्कारी स्त्री का यही लक्षण है. इसी से सम्मान मिलता है. दिमाग ही ऐसा निर्मित किया जाता है. तो कोई दिक्कत नहीं महसूस नहीं होती. यही सब होता है क्या ?
जाति, धर्म वगैरह की बात नहीं करते. उसकी बुराई कम से कम ऊपर से सभी करते हैं. मुझे एक दिलचस्प घटना याद आती है. मेरे जेएनयू के एक मित्र ने मुझसे कहा- तुम किसी से इतना प्रेम नहीं कर रही होती तो मैं तुम्हें प्रपोज करता. मैं हँस पड़ी, कहा- तुमने मुझे अभी जाना नहीं. एक दिन भी नहीं पटेगी. तुम हो अच्छे. बुरे नहीं हो. पर मैं तो हर बात पर सवाल उठाने वाली हूँ. कुछ भी ऐसे नहीं मान लेने वाली हूँ कि ये दुखी हो जायेगा, वो दुखी हो जायेगा, कि लोग क्या कहेंगे, कि समाज में ऐसा नहीं चलता, कि समझौता करना पड़ता है. तुमने कभी सोचा भी न होगा उन बातों पर मैं भी सवाल करूँगी. अडं़गा लगाऊँगी. बहुत मुश्किल में पड़ जाओगे. इसलिए तुम्हारे भले कि लिए कह रही हूँ इस बारे में सोचना मत. दूर की बातें छोड़ो, शादी के समारोह में ही मैं हर बात पर सवाल उठाऊँगी. ये क्येां ? ऐसा विधान क्यों ? मुझे चार लड़कियाँ यूँ पकड़ कर क्यों मंडप तक लिये जा रही हैं ? मुझे आजादी से चलने दो भाई. जैसे वह पुरुष चल रहा है. आराम से. सहजता से. आस-पास रहो, यह सुंदर है पर पकड़ो मत. समेटो मत. सिकोड़ो मत. और ये माथे पर जरा भी घूँघट हटा तो क्या दिक्कत है ? ये माथे पर पचास रंगों की बिन्दी क्यों लगा दी है ? ये मुँहदिखाई क्या है ? आँखे झुकाये रहिये और सब आपका चेहरा देख-देखकर पैसा-उपहार देंगे. यह कैसी नुमाईश है ? उपहारों को आराम से दिया जाए. स्वतंत्र रूप से सबसे मिलूँ. रिसेप्शन में एक ही जगह घंटों बैठ कमर न तोड़ूँ. जिनसे मिलने की इच्छा है उनसे मिलूँ. उमंग आये तो नृत्य करूँ. इतना दबाव क्यों ? इतना बँधाव क्यों ?  हजार चीजें हैं. तुम कहोगे मान लो. एक दिन में तुम्हारा क्या जाता है. तुम्हारा नहीं जाएगा. पर मेरा चला जाएगा. मेरी स्वतंत्र वृत्ति चली जायेगी. आजादी चली जायेगी.
              उसने बुरा नहीं माना. मेरी बात समझी. फिर कहा- ‘‘तुम्हारी समझ पर मुझे भरोसा है. मेरे लिए एक लड़की देख दोेे. तुम तो मुझे जानती ही हो. बस लड़की दूसरी जाति की न हो. मैं तो नहीं मानता पर घरवाले नहीं मानेंगे. मारकर भगा देंगे. उनको कौन दुखी करे.’’ वह लड़का अच्छा है, सभ्य है, सुंदर है. पर हाय री कायरता. गलत कारणों से दुखी होने वालों के दुख की कितनी चिंता है. मैंने कहा- तुम जीवंत व्यक्ति हो. साहित्य से जुड़े हो. खुद को कुछ-कुछ समझते भी हो. अपने लिए चुनाव करने की पात्रता है तुम्हारी. लेकिन तुम्हारी सुविधा. तुम्हारी मर्जी. मेरी इसमें कोई दखल ठीक नहीं. पर अगर मुझे देखने कहोगे तो मैं तो लड़की देखूँगी, लेबल नहीं. मुझे तो स्वभाव मिलाना आता है. वह डर गया. बोला- तुम फँसाओगी. छोड़ो, इस चक्कर में कौन पड़े.
                   मुझे ऐसे संवेदनशील लोगों की वाकई कमी दिखती है जो अपने में गहराई से उतरकर, अपनी मूल वृत्तियों केा पहचान कर, उसके अनुसार साथी ढूँढ़ते हैं? यह कठिन भी है. मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि जहाँ ऐसा न हो वहाँ गहराई आ ही नहीं सकती. वह उथला होगा. कामचलाऊ. लंबा साथ हो सकता है. वक्त पड़ने पर सेवा भी हो सकती है. होती है. किन्तु गुणवत्ता का भारी फर्क होता है. उसमें हर क्षण की थिरकन नहीं हो सकती. वो एक धुन के बजने का अनुभव नहीं हो सकता. वो खुशियों का शिखर नहीं हो सकता कि खुशी समाये न समाये. बार-बार आँख छलक जाये. वह जानलेवा पीड़ा नहीं हो सकती जिस पर तमाम सुख कुर्बान करने का गम न हो. इन सबसे बढ़कर उसमें वह शक्ति नहीं हो सकती जो हमारी ईर्ष्या को, हिंसा को गलाने लग जाय. हमारे अनगिनत मोहों को कम करने लग जाय. हमें जीवन के एक नये आयाम की ओर ले जाने लग जाय. उसमें सिर्फ सुख-दुख में साधारण रूप से साथ रहना हो सकता है. व्यक्तित्व का रूपांतरण नहीं हो सकता. और यह हकीकत है. वरना समाज में इतनी बेईमानी, इतनी हिंसा, इतनी कामुकता, ऐसी भागमभाग, इतनी ईर्ष्या संभव ही नहीं थी. साथ रहते-रहते एक आदत हो जाती है. एक कामचलाऊ लगाव हो जाता है. इस साहचर्यगत  लगाव और प्रेम में गुणवत्ता की दृष्टि से कोई मेल नहीं होता.
                     मुझे लगता है, अहंकार से भरे इस जीवन में विशुद्ध प्रेम के क्षण बहुत कम आते हैं. लेकिन कुछ क्षणों के लिए भी जब आते हैं तो आपको वही नहीं रहने देते.
              25-50 सालों तक परिवार से प्रेम की बात कहने के बावजूद अगर हमारे विकारों के मिटने की दिशा में थोड़ी भी यात्रा नहीं हो पाती तो क्या प्रेम ? कैसा प्रेम ? इसलिए जो शादियों में दिखाई देता है, उसमें कुछ को छोड़कर मुझे सिर्फ एक सामाजिक रूढ़ि दिखाई देती है. अकेले रहने की दुश्वारियों से बचने के लिए, लाइसेंसी सेक्स के लिए, बच्चों के लिए ( जिनकी अपार आबादी वाले संसार को अब कम से कम 20-30 सालों तक बिल्कुल जरूरत नहीं है.) और कुछ सुविधाओं के लिए की गयी एक व्यवस्था.
            जानती हूँ, शादी के बारे में कुछ भी कहना गुनाह है. पर इस पर ठंडे दिमाग से पुनर्विचार जरूरी है. जैसा चल रहा है क्या वह चलना चाहिए ? क्या हमारे संबंध और बेहतर और गुणवत्तापूर्ण नहीं हो सकते ? ठीक है, हमें शादी का ही अभ्यास है. तो क्या उसकी विसंगतियों पर विचार नहीं होना चाहिए ?
ऊपर दी गयी चीजें छोटी-छोटी हैं लेकिन उनसे ही हमारी प्रवृत्ति का पता चलता है क्योंकि छोटी चीजों से ही जिंदगी निर्मित होती है.

6 टिप्‍पणियां:

  1. chali aa rahi manytaoN, riti-rivajoN, karm-kandoN ke khilaf koi bat kah do to hamaare kathit buddhjivioN tak ko current lag jaata hai, aamjan ki to bat hi kya ?
    yahi sab prashn mere man me bhi uthte rahe haiN. aapke lekh se sahmati hai.

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  2. बहुत दिनों के बाद लिखा है ? कहां खो गए थे ? आपकी बातों से सहमत हूँ, लेकिन इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए कब लोग शादी करते हैं ??

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  3. बहुत अच्‍छा विश्‍लेषण है। पढ़कर मज़ा आया, कई बार गंभीरता से सोचने का मुद्दा भी मिला। आपकी बात से पूरी तरह सहमत हूँ। यह एक व्‍यवस्‍था है, समझौता जैसा ही कुछ। इस पर पुनर्विचार की सख्‍त जरूरत है।

    - आनंद

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  4. बिल्कुल सही विश्लेषण

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  5. अच्छी रचना है। आपने सही कहा..जो भी कहा...आज समाज के उन वर्गों में ये सहमती तो है कि वो जाति को नहीं मानते...पर घरवालों के सामने स्वीकारने से डरते है।शादी जैसी चीज को हमारे समाज ने ऐसा बना दिया है कि इसके बिना ज़िदगी जी ही नहीं जा सकती। आपके लेख में वो सबकुछ है जो मैं सोचती हूं।

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  6. आपने १०० फीसदी सही कहा , मैं आप से सहमत हूँ ! मैंने इसके खिलाफ आवाज भी उठाई थी लेकिन मैं अकेला पड़ गया और हार गया ! मेरे हिसाब से सिर्फ एक तरफ से कोशिश करने से कुछ संभव नहीं होगा ! इसके लिए दोनों को आगे आकर आवाज उठानी पड़ेगी ! आज सभीलोग कहते हैं की मैं किसी से प्यार करता हूँ लेकिन कितने लोग उस प्यार को शादी का रूप देने को तैयार हैं ? शादी के नाम पे सभी को अपने माँ बाप की इज्जत का ख्याल आने लगता है ! और इस मामले में लड़कियां आगे रहती हैं ! खासकर छोटे शहरों में !

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