रविवार, अगस्त 14, 2011

किताब, कलम, कम्प्यूटर और कुदाल





इनमें पहला तीन मानसिक श्रम का सूचक है और दूसरा शारीरिक श्रम का। दुर्भाग्य है कि कलम के श्रमिक ने कुदाल से मुँह मोड़ लिया है और ऐसा कर अपने को श्रेष्ठ भी समझता है ! यह तो हो सकता है कि किसी के जीवन में शारीरिक श्रम की प्रधानता हो, तो किसी के जीवन में मानसिक श्रम की। लेकिन दूसरे प्रकार के श्रम से अपने को पूर्णतः काट लेने से मानव जीवन पंगु हो जाता है। जीवन को स्वस्थ सुंदर बनाने के लिए दोनों प्रकार के श्रमों के बीच संतुलन आवश्यक है। कलम चलानेवाले अगर कुछ देर के लिए कुदाल भी चलायें तो जीवन में निखार आ जाए। ठीक इसी तरह कुदालवाले कुछ काल के लिए कलम भी हाथ में उठा लें तो चमत्कार हो जाय। इस सामंजस्यपूर्ण जीवन को जो भूलता है, वह निर्वासित अनुभव करता है। कलम में अगर विचार का रस है तो कुदाल में भोजन का। एक से मन तृप्त होता है तो दूसरे से शरीर। जिसका सिर्फ एकांग तृप्त होगा, वह विकलांग और दुखी जीवन जीयेगा।
इस दुख से मुक्ति का मार्ग है दोनों श्रमों के बीच संतुलन कायम करना और किसी को भी हेय न समझना। दोनों प्रकार के श्रमिकों को समान दर्जा देना। पुराने जमाने में ऐसी भूलें ब्राह्मणों से हुई थीं। उन्होंने अपने को श्रेष्ठ समझ लिया था। आज के ब्राह्मण भी वही भूल कर रहे हैं। जिनके हाथ में कलम है वही आज का ब्राह्मण हैं। जिनके हाथ में सत्ता है, वही आज के क्षत्रिय हंै। दुर्भाग्य है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य का पुराना गठजोड़ आज भी चालू है। मजदूर और छोटे किसान आज के शूद्र हैं। वे इन तीनों से पीड़ित-प्रताड़ित हैं।
लेकिन जीवन का नियम बड़ा विचित्र है। जो दूसरों के शोषण से सुखी होना चाहता है, सुख उसके लिए सदा कल्पना ही बना रहता है। सत्ताधारियों, कलमधारियों और बड़े व्यापारियों के निकट जाकर उनका जीवन देखें। किसान और मजदूरों से वे ज्यादा दुखी मालूम पड़ते हैं। कभी सुख-चैन नहीं। किसान-मजदूर के भी जीवन में तो कभी सुख के क्षण आ भी जाते हैं, लेकिन बेचारे वे तो इसके लिए सदा लालायित ही रहते हैं। शोषण की जगह पोषण शुरू करने पर जीवन का मजा है। जीवन में सबका स्वार्थ एक दूसरे से जुड़ा है। जो किसी के स्वार्थ पर आघात कर आगे निकलना चाहता है, वास्तव में वह फिसल जाता है। इसीलिए वेद हमें परस्पर सामंजस्य स्थापित कर मित्र भाव से जीने की सलाह देता है-


दृते दृँह मा मित्रस्य मा चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम्।
मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे मित्रस्य चक्षुषा। समीक्षामहे।
( यजु. 36-18 )
‘‘हे परमात्मन् ! मेरी दृष्टि दृढ़ कीजिए जिससे सब प्राणी मुझे मित्र-दृष्टि से देखें। इसी तरह मैं भी सब प्राणियों को मित्र-दृष्टि से देखूँ और हम सब प्राणी परस्पर एक दूसरे को मित्र-दृष्टि से देखें।’’

1 टिप्पणी:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
    स्वतन्त्रता की 65वीं वर्षगाँठ पर बहुत-बहुत शुभकामनाएँ!

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