भाजपा के वरिष्ठ नेता और पूर्व मंत्राी जसवंत सिंह पार्टी से निकाल दिये गये हैं. कारण है कि उन्होंने भारत-विभाजन का मुख्य दोषी नेहरू और पटेल को माना है, जिन्ना को नहीं. जिन्ना को वे गैर-साम्प्रदायिक मानते हैं. जसवंत सिंह की शिकायत है कि निष्कासन जल्दबाजी में कर दिया गया. जो पुस्तक उनके निष्कासन का आधर बनी है, वह पढ़ी तक नहीं गयी. उनसे कोई प्रश्न तक नहीं पूछा गया -उन्हें अपना पक्ष रखने का मौका तक नहीं दिया गया. केवल फोन से सूचित कर दिया गया, मिलकर कहने की जरूरत भी नहीं समझी गयी. जसवंत सिंह इस बात से दुखी हैं. दुखी तो भाजपा भी है. लेकिन मजबूरी है. व्यक्ति चाहे कितना भी बड़ा क्यों नहीं हो, पार्टी से बड़ा नहीं होता! माना कि जसवंत सिंंह कभी भाजपा के संकटमोचन रहे हैं, लेकिन आज तो वे स्वयं संकट बन गये हैं! इस संकट से तो उबरना ही होगा. संकट है भाजपा की जनता में बनायी गयी छवि. भाजपा ने माना है कि जिन्ना साम्प्रदायिक हैं. एक बार मान लिया तो मान लियाऋ वह अंतिम है, उसमें कोई परिवर्तन नहीं हो सकता. सत्य चाहे जो हो, उससे हमें कु्रछ लेना-देना नहीं है. सत्य से हमारा भोजन नहीं चलता सत्य से हमारे सांसदों की संख्या नहीं बढ़ती, सत्य से सत्ता नहीं मिलती. पिफर हम क्यों पुस्तक पढ़ें, अनावश्यक उध्ेड़बुन में पड़ें और सत्य के निर्णय में समय नष्ट करें. हमारा यही सत्य है, हमारी यही नियति है, हमारी यही पहचान है कि हम हिन्दू हैं, मंदिर हमारी दुकान है, राजनीति हमारा पेशा है, वोट हमारी फसल है, हिन्दुत्व की कट्टरता बीज है. इनकी पुस्तक हमारी लहराती फसल के लिए पाला है. उनको समेटने में हम स्वयं बिखर जायेंगे. भाजपा ही न रहेगी तो जसवंत के रहने से क्या होगा मेरा ऐसा देखना है कि आम जनता साम्प्रदायिक नहीं होती, जातिवादी नहीं होती. उनके पास निजी संकीर्णताएँ होती जरूर हैं, लेकिन राजनीतिक संकीर्णता नहीं होती. परंपरा से प्राप्त संकीर्णताएँ भी उनमें किन्हीं के द्वारा डाली गयी होती हैं. कुछ व्यक्ति संकीर्ण होते हैं और अगर वे प्रभावशाली रहे तो अपनी संकीर्णता जनता के भीतर प्रवेश करा देते हैं. जनता तो जल की तरह रंगहीन होती है. समाज के प्रभुत्वशाली लोग उसमें अपना-अपना रंग भरकर उसे रंगीन बनाते हैं. हर प्रभावशाली व्यक्ति जनता में अपना रंग छोड़ता है. कट्टर हिन्दूवादी अपने जैसे लोगों को रँग देता है. उदारवादी अपने जैसोें को उदार बना देता है. सबसे प्रभावशाली गाँध्ी हुए, तो पूरे देश में सादगी के साथ सर पर गाँध्ी टोपी लग गयी. इस तरह जनता के अनेक रंग होते हैं. जब देश आजाद हुआ तो सत्ता कांग्रेस के हाथ में आयी और उसने उसे स्थायित्व प्रदान करने के लिए कई तरह के हथकंडे अपनायेे. उनमें एक है मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति. कुछ अन्य राजनीतिक बुि(जीवियों ने देखा कि मुट्ठी भर मुसलमानों को बरगला कर अगर सत्ता पर काबिज हुआ जा सकता है, तो विशाल हिन्दू समुदाय को क्यों नहीं इसी आधर पर अपने पक्ष में किया जा सकता है! पफलत: 1951 में जनसंघ पार्टी बन गयी. उनके नीति-निर्धरकों ने मुस्लिम तुष्टीकरण के विरु( जनता में प्रतिवि्रया पैदा कर लाभ उठाने का मन बनाया. चुनावी हिन्दुत्ववादी राजनीति चल पड़ी. खास लाभ न मिला. इसी बीच ईश्वर ने सुमति दी और उसने चुनाव में देश का प्रमुख मुद्दा अयोध्या में राम मंदिर निर्माण बनाया. जादू चल गया. वोट की फसल लहलहा उठी. सांसदों की संख्या 2 से 80 के करीब हो गयी. इस लंबी छलांग ने आँख की पट्टी खोल दी. दिख गया सत्ता तक जाने का रास्ता. सत्ता पायी भी, लेकिन ज्यादा टिकाउफ नहीं हो पायी. इस बार भी लोकसभा चुनाव में आशाओं पर तुषारापात हुआ. पार्टी हार के कारणों को खोजने में लगी ही थी कि इसी बीच जसवंत की पुस्तक नया बखेड़ा लेकर आ गयी. भाजपा की आस्था अगर लोकतंत्रा में होती, तो इतना ही कहना कापफी था कि हम अपने विचारों पर अटल हैं. पुस्तक में जसवंत के निजी विचार हैं, उससे पार्टी को कुछ लेना-देना नहीं है. लेकिन विचार बड़ा संव्रमक होता है. उससे सबसे ज्यादा भय कट्टरता को ही होता है. पार्टी को लगा कि अगर जसवंत की उदारवादी एक भी किरण उतरी तो हमने जो अँध्ेरा पफैला रखा है, उसका अस्तित्व मिट जायेगा. इसलिए इस रोशनी को बाहर करो और दरवाजे बंद करो. आज देश में सबसे बड़ा संकट नेतृत्व का है. कोई भी ऐसा राजनीतिक नेता नहीं है जिसमें दूरदर्शिता हो, सत्य का संबल हो और जनता से दो कदम आगे चलने की हिम्मत हो. सभी जनता के पीछे-पीछे चल रहे हैं, जनता का रुख देख कर चल रहे हैं. पहले तो जनता को अपना रंग दे दिया है. अब उस रंग को बदलने में असमर्थ हैं. उसे ढोना ही उनकी विवशता है. आप जिसको गुलाम बनाते हैं, उसकी गुलामी आपको करनी होती है. किसी को बाँध्ने में आप स्वयं बँध् जाते हैं. भाजपा अपनी वैचारिक प्रतिब(ता से बँध्ी हुई है. वैचारिक गुलामी अिध्क खतरनाक होती है. विचार से गुलाम पार्टी देश को आजादी कैसे दिला पायेगीर्षोर्षो आज सभी पार्टियों की स्थिति उस अश्वत्थामा की तरह है जो ब्रह्मास्त्रा चलाना तो जानता है, लेकिन वापस करना नहीं. पार्टियाँ जनता को भरमाना तो जानती हैं, रास्ते पर लाना नहीं जानतीं. इसलिए कोई व्रफांतिकारी कार्यव्रम किसी पार्टी के पास नहीं है. देश को एक व्रफांति की जरूरत है. आज का सारा राजनीतिक संघर्ष बुरे और बुरे के बीच चल रहा है, बुरे और अच्छे के बीच नहीं. अच्छे और बुरे की लड़ाई होगी तभी कभी अच्छा भी जीतेगा, लेकिन जब लड़ाई बुरे और बुरे के बीच हो तो हमेशा बुरा ही जीतेगा. इसलिए अच्छे आदमी राजनीति में कूदकर देश को इस दुर्भाग्य से बचा सकते हैं.
20.08.09
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