मंगलवार, सितंबर 01, 2009

भुक्खड़ भीड़ में भयभीत भामिनी

टीवी पर दिखाई पड़ा कि पटने के एक्जीविशन रोड पर भीड़ एक लड़की को अपना ग्रास बना रही है. बड़े आनंद से उसे नोंच-नोंच कर खाना चाहती है. सुनाई पड़ा कि उसके वस्त्रा उतारे गये. स्व्रफीन पर लिखा मिला `चीरहरण´. टिप्पणियाँ आयीं- कहाँ है सुशासनर्षोर्षो सुशासन यानी पुलिस. पुलिस यानी भय. भीड़ भयमुक्त क्यों है उसे भय होता, तो ऐसी घटना क्यों घटती लेकिन उन टिप्पणियों में वह बात नहीं सुनायी पड़ी जो बात इस तरह की घटनाओं का असली कारण होती है. जितनी भी बुराइयाँ समाज में हैं, उनके कारण वर्तमान शिक्षा प्रणाली में हैं. न तो पुलिस उसका निदान है और न प्रशासन. मनुष्य को सहज मनुष्य बनाने वाली शिक्षा जब तक नहीं लायी जायेगी तब तक इस तरह की घटनाओं को रोकना असंभव है. कोई भी सरकार नहीं रोक सकती. एक अच्छी सरकार, एक व्रफांतिकारी सरकार का कर्तव्य है कि इस कुशिक्षा की जगह सुशिक्षा लाये. तब सरकार को कुछ नहीं करना पड़ेगा, सारा काम सुशिक्षा कर लेगी. लेकिन यह काम व्रफांतिकारी सरकार ही कर सकती है. जनता की आँखों में ध्ूल झोंककर सत्ता-सुख पाने वाली सरकार के वश की बात नहीं है कि इस शिक्षा में परिवर्तन करे. वह सरकार जनव्रफांति से पैदा हो सकती है. जनव्रफांति की हवा कुछ व्रफांतिकारी व्यक्ति अगर समाज में हों तो वहाँ से बहेगी. अभी तक नहीं बह रही है. इसका मतलब है कि अभी अंध्ेर-युग चल रहा है. अंध्ेरा वहाँ है, जहाँ व्रफांतिकारी नहीं हैं. रे रोक युिध्िष्ठर को न यहाँ, जाने दे उनको स्वर्ग ध्ीर. पर पिफरा हमें गाण्डीव गदा, लौटा दे अर्जुन भीम वीर. दिनकर की इन पंक्तियों में युिध्िष्ठर ध्र्म के नहीं कायरता के प्रतीक हैं. यह कायर-युग है. जहाँ देखिये वहाँ कायरतापूर्ण, बर्बरतापूर्ण हरकतें दिखाई पड़ेंगी, लेकिन विवेकसम्मत् परिवर्तन की एक छोटी सी लहर भी कहीं नहीं दिखायी पड़ती है. जब अनेक लोग मिलकर किसी काम को अंजाम देते हैं तो उनके मन में यह बात बैठी रहती है कि यह सही काम है. भीड़ के कारण उन्हें एक बल मिल जाता है. व्यक्ति गलत कर सकता है, भीड़ जो कर रही है उसे तो सही ही होना चाहिए. अगर भीड़ के मन में ऐसा भाव नहीं होता तो लड़की को नोंच डालने वाले लड़के खुशी का इजहार क्यों करते! देखिये उन लड़केां के चेहरों पर आनंद! कितनी सच्ची खुशी उनके चेहरे पर है! आप उसे कहते हैं शर्मनाक हँसी. मैं कहता हूँ अबोध् हँसी. उसे पता ही नहीं कि वह कितना गलत काम कर रहा है. उसे तो बस इतना पता है कि गलत काम करने वाली कॉल गर्ल को वह सजा दे रहा है. लेकिन सजा देने के लिए वह उसे नंगा क्यों कर रहा है, उसके अंगों केा क्यों छू रहा है भीड़ का दूसरा मनोविज्ञान है कि वह निर्भय होती है. अकेला कोई आदमी ऐसा करेगा तो पकड़ा जायेगा- भीड़ में कौन किसको देखता और पहचानता है भीड़ से तो सरकार भी डरती है क्योंकि विवेकी पुरुषों ने तो उसे चुना नहीं है, भीड़ ने ही चुना है, इसलिए अपने आका के खिलाफ काका कैसे जा सकते हैं. भीड़ ट्रेन जला सकती है, भवन भस्म कर सकती है, मोटर पफूंक सकती है. आदमी को चोर के नाम पर पीट-पीट कर मार सकती है. उसे जीप में बाँध् कर सड़क पर घसीट सकती है. वह परम स्वतंत्रा है, कुछ भी कर सकती है. हमें विचार करना चाहिए कि कल की घटना में भीड़ ने ऐसा क्यों कियार्षोर्षो एक ही कारण है- उसके भीतर दमित कामवासना ऐसा करवाती है. सही शिक्षा वासना का रूपांतरण करना सिखाती है, जबकि वर्तमान शिक्षा दमन सिखाती है. दमित वासना ऐसे-ऐसे अवसरों पर उसी तरह प्रकट हो जाती है जैसे बरसात में जोंक. जोंक ध्रती के नीचे कहीं छिपी होती है. काम-लिप्सा मनुष्य के मन के एक कोने में जोंक की तरह दबी होती है और प्रकट होने का अवसर ढँूढ़ती रहती है. भीड़ उसे वह अवसर प्रदान कर देती है. डरने की कोई बात नहीं, सब कर रहे हैं, तुम भी करो. कॉल गर्ल और कॉलर ब्वॉय इसी दमन की उत्पत्ति हैं. चाहे जितनी भी ध्रपकड़ करो, ब्यूटी पार्लर पर छापे मारो, सेक्स के अड्डों का उद्भेदन करो- न कॉल गर्ल की संख्या घटने वाली है और न कॉलर ब्वॉय की. जो ध्रपकड़ करनेेे जाता है, वह भी ललचायी नजरों से उसे देखता है. अगर थाने में एकांत मिल जाय तो वह भी हाथ सापफ करना चाहता है. केवल पुलिस ही नहीं पत्राकार भी प्यासी नजरों से देख रहा है. सही शिक्षा इस बीमार मन का इलाज करती है. मन की प्यास बुझाने के सारे स्वस्थ रास्ते बंद हैं. सही शिक्षा की एक महत्वपूर्ण विशेषता होगी कि स्त्राी-पुरुष को प्रेम की स्वतंत्राता मिले. जिस समाज में प्रेम भी चोरी से करना पड़े, उस समाज में ऐसा क्या बचा रहेगा जिसको ईमानदारी से किया जा सकेगार. जिस समाज मेें प्रेम की इजाजत नहीं होगी, उस समाज की भीड़ कानून को अपने हाथ में लेकर जर्बदस्ती वैसा ही घृणित काम करेगी जैसा एक्जीविशन रोड पर किया गया. प्रेम-वर्जित समाज की देन हैं कॉल गर्ल और कॉलर ब्वॉय. प्रेम वर्जित समाज की देन है भीड़ का वहशीपन. स्त्राी केा खुलेआम नंगा करना पुरुषों की उस प्यास का परिणाम है जो स्त्राी को नंगा देखने के लिए बेताब रहता है. लेकिन इसका कोई स्वस्थ रूप नहीं ढूँढ़ा जा सका है. पुरुषों की प्यास का दोहन करने के लिए लगभग सभी अखबारों, पत्रिाकाओं, चैनलों के विज्ञापनों और विभिन्न कार्यव्रफमों में स्त्राी के अ(Zनग्न चित्रा दिखाये जाते हैं. यह काम-पिपासा मिटाने का नहीं, बल्कि भड़काने का उपाय है. अगर स्त्राी को नग्न देखने की बीमारी से पुरुष को उबारना है तो माता पिता को प्रशिक्षित करना पड़ेगा. क्योंकि वे ही अपनी काम-कुंठा बच्चों में संव्रफमित कर देते हैं. छह महीने की लड़की के अंग पर वस्त्रा डाल देते हैं. काम-कुंद माता पिता उन अंगों के प्रति अतिरिक्त संवेदनशील होेते हैं. परिवार प्रथम पाठशाला है और माता पिता प्रथम शिक्षक. ओशो कहते हैं कि अगर घर में लड़के लड़कियाँ 7-8 वर्ष तक सहज रूप में नग्न रह सकें तो जवानी में स्त्राी को नंगा देखने की उनकी तड़प शांत हो सकती है. नयी मानवीय शिक्षा-प्रणाली को अपनाकर ही इस तरह की घटनाओं से मुक्ति पायी जा सकती है. विधन सभा में हल्ला करने से कुछ नहीं होने का. 24.07.09

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