मंगलवार, सितंबर 22, 2009

गुरु-शिष्या-संबंध (४)

गुरु-शिष्या-संबंध (४)

गुरु-शिष्या-संबंध को लेकर मुखय रूप से जो बातें मुझे कहनी थीं, वे तीन किस्तों में कह दी गयीं. लेकिन आज सवेरे पटने के साहित्यकार प्रो. डॉ. दीनानाथ 'शरण' का फोन आया, इसलिए एक किस्त और बढ़ा दे रहा हूँ. प्रो. साहब ने फोन पर मेेेरी डायरी की सराहना की और सूचित किया कि ''मैंने उपन्यास लिखा है 'महिमा बक्शी'. उसे आप जरूर पढि ये. उसमें गुरु-शिष्या-संबंध और शिक्षण संस्थानों में यौनाचार के सच को उजागर किया गया है. सारी घटनाएँ यथार्थ हैं, सिर्फ नाम में थोड ा परिवर्तन कर दिया गया है. पढ ते ही उन लोगों में बहुतों को आप पहचान लेंगे.'' मैं उपन्यास पढ गया. भाषा साफ-सुथरी, पारदर्शी और वर्णन रोचक है. मैं इसमें से दो अंश पाठकों के मनोरंजन एवं ज्ञानवर्द्धन के लिए रखना चाहता हूँ. पहले अंश में गुरु-शिष्या-संबंध का विकास आप देखेंगे और दूसरे अंश में मगध महिला कॉलेज के हिन्दी विभाग की एक प्रोफेसरनी के उजागर चरित्र से साक्षात्कार करेंगे.. पाठकों से निवेदन है कि दिल थामकर पढ ें क्योंकि पढ ने से इन्द्रियाँ जागरुक हो सकती हैं. पहले प्रस्तुत है गुरु-शिष्या-संबंध - महिमा बक्शी प्रोफेसर हैं. वे लेखक को आपबीती सुना रही हैं. बात उस समय की है जब उन पर सोलहवाँ साल सवार हो चुका था. वह बी.एन.आर. हाईस्कूल में ग्यारहवीं की छात्रा थी. उसके घर पर एक अधेड योग्य गुरुजी पढ ाने आते थे. शिष्या का नवयौवन गुरुजी की कामवासना को प्रदीप्त कर कर चुका था. इसके बाद क्या होता है, सुनिये महिमा बक्शी के शब्दों में -''उन्होंने मेरे गालों को प्यार से मसलते हुए कहा- 'सबको अपनी ही जैसी समझती हो ? स्त्रीलिंग ?' मुझे लगता है, तब से उनका हौसला बढ़ता गया. कभी मेरा कान छूने लगे, कभी शाबासी देने के बहाने मेरी पीठ सहलाने लगे. इसी तरह, पढ ाने के दौरान, एक दिन उन्होंने मेरे बांये स्तन को अपने पेन से हल्के दबा दिया. मेरे बदन मेेें एक सिहरन-सी हो गयी. वे मेरी आँखों में अपनी आँखें डाले जाने क्या देखने लगे.''
धीरे-धीरे संबंध दूसरे चरण में पहुँच गया-'' मास्टर साहब अपनी कुर्सी से उठकर बगल की चौकी पर ओठंग गये. फिर चौकी पर ही मुझे बैठने का इशारा करते हुए बोले -' यहीं पर बैठो बेबी!' मेरा घरेलू नाम 'बेबी' था और मुझे वे 'बेबी' ही कहते थे. मैं अपनी कुर्सी से उठकर उनके पास चौकी पर बैठ गयी. उन्होंने और दिनों की तरह मुझे चुम्मा लिया. मेरे स्तन बड े तो न हुए थे लेकिन मेरे स्तनों को हौले से सहलाया, फिर जोर से सहलाते हुए वे उठकर बैठ गये और फ्रॉक को उठाते हुए बोले-'कॉपी दिखाओ!...'
अपनी कॉपी दिखाने के लिए मैं चौकी पर से उठकर फिर जब मेेज की तरफ बढ ने लगी तो वे बोले -' वह कॉपी नहीं, यह कॉपी !' और उन्होंने फ्रॉक के नीचे पहनी हुई मेरी पैंटी खोल दी और कहा- 'यह कॉपी' और उन्होंने अपनी जांघों के बीच मुझे जकड लिया. कुछ देर मुझे गुदगुदी-सी लगी. फिर उन्होंने मुझे छोड दिया. बोले-अपने कपड े ठीक कर लो. और देखो ! किसी से कुछ कहना मत ! नहीं तो तुम्हारा ट्‌यूशन बंद. तुम बदनाम होओगी अलग !...फिर थोड ा रूक-रूक बोले-फर्स्ट डिवीजन में तुम्हें पास करना है ? मैं तुम्हें फर्स्ट डिवीजन दिलवाकर रहूँगा. इतना अच्छा पढाऊँगा इतना अच्छा कि बस , तुम मेरी बात मानती जाना...और किसी से कुछ कहना मत !'
तीसरे चरण में संबंध चरम सीमा पर पहुँचता है. जगह की कमी के कारण उसे प्रस्तुत न कर पाने के लिए पाठकों से क्षमा चाहता हूँ.
अब प्रस्तुत है दूसरी काम-कथा जो मगध महिला कॉलेज की एक नामी हिन्दी प्रोफेसर की है- ''सज सँवर कर कॉलेज आने में कोई मैडम किसी से कम न थीं. लगता था जैसे फोटो खिंचवाने घर से निकली हों ! एक दिलचस्प प्रसंग की याद आ रही है. हिन्दी की मैडम अलका पांडेय के बारे में सुना गया कि वे फिल्म मेें काम करने वाली हैं- उनकी एक फिल्म अगले साल रिलीज होगी. कॉलेज से लंबी छुट्‌टी लेकर बंबई गयी हुई हैं -अपने हसबैंड के साथ. उन्हें अपने हसबैंड का पूरा सपोर्ट है. अपने हसबैंड के ही परमीशन और प्रोत्साहन से एक फिल्म प्रोड्‌यूसर ने मैडम को 'हीरोइन' का रोल दिया है. कॉलेज की छात्राओं के बीच महीनों इसी बात की जोरदार चर्चा रही. कोई कहती-फिल्मी लाइन औरतों के लिए ठीक नहंीं है. उनका चरित्र-हनन होता है, उनको कुछ अनुचित संबंध के लिए मजबूर किया जाता है...वगैरह...और कुछ छात्राएँ तर्क देतीं- 'कोई लाइन बुरी नहीं. आत्मविश्वास होना चाहिए.' जो हो, अलका मैडम फिल्मी दुनिया में चली गयीं. जब तक लौटीं, बहुत देर हो चुकी थी. वहीं के कुछ लोगों से लाग-लपेट होने के जुर्म में हसबैंड ने उन्हें डायवोर्स कर दिया. ''
विश्वविद्यालय के ऐसे ही लोग मटुक-जूली के प्रेम का विरोध करते हैं. लेकिन मटुक और जूली चाहे विशुद्ध वासना हो या वासना-मिश्रित प्रेम -किसी के खिलाफ नहीं हैं बशर्ते वह शोषण और धोखाधड़ी न हो. वे दोनों किसी को निंदा की नजर से नहंी देखते हैं. इसे स्वाभाविक प्राकृतिक व्यापार मानते हैं. हाँ, यह बात जरूर है कि वे आनंद की इस यात्रा में इसे प्रथम चरण ही मानते हैं. काम के आगे के आनंद की खोज वही कर पायेंगे जो काम को अच्छी तरह जान लेंगे. निंदा भाव से ग्रसित अतृप्त लोग काम में ही उलझ कर रह जाते हैं. उनकी आगे की यात्रा बंद हो जाती है. सही शिक्षा वह है जो काम को जानने का अवसर दे और उससे ऊपर उठाने की विद्या दे. समाज में यौनाचार, यौन-व्यापार और यौन-शोषण अंदर-अंदर चल ही रहा है, जो अत्यंत विद्रूप है. हम चाहते हैं कि जैसे चल रहा है, वैसे न चले. हमलोग यह तो पसंद करते हैं कि दो शरीर अगर मिलने के लिए आतुर हों तो वे निर्बाध मिलें. लेकिन हम यह नहीं चाहते कि किसी को रिजल्ट के लिए, नौकरी के लिए, पद और प्रोन्नति के लिए या पैसों के लिए मजबूर होकर देहदान करना पड े. इसकी खिलाफत के पीछे कारण केवल एक है कि इससे प्रेम उत्पन्न होने की संभावना मर जाती है, इसके परिणामस्वरूप सृजनात्मकता समाप्त हो जाती है और यह सबसे बड़ी हानि है.
२३.०९.०९

2 टिप्‍पणियां:

  1. दिक्कत यही है कि देहदान भी नहीं, बल्कि देह व्यापार हो रहा है. कभी क्क्षाएं पास करने के लिए, कभी टॉप करने के लिए, कभी नौकरी और कभी प्रमोशन के लिए और कभी-कभी तो इसलिए भी कि नौकरी चलती रहे, वेतन-इनक्रीमेंट-प्रमोशन सब कुछ मिलता रहे, पर मुआ काम न करना पड़े.

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  2. ab aisa hona aam prachlan ho gaya hai.shikshak aram se ladki ke ghar walo ko bewkoof bana dete hai kyoki ladki bhi puri tarah isme shamil hoti hai.aap gorakhpur ke hi ek tutor ka udaharan dekh le,najane kitni ladkiya sirf unke paise ke karan unpar sabkuch luta chuki hai.baap k umar ka hone k bawjood ek ladki ko apni sangini bana ke rakha hai.

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