छात्रां का निष्कासन समाधन नहीं
पटना विश्वविद्यालय के अध्किारियों के अहंकार, संवेदनहीनता, पठन-पाठन में अरुचि, चालाकी एवं अदूरर्शिता के कारण दिनोेें-दिन विश्वविद्यालय का वातावरण खराब होता जा रहा है. गुरु-शिष्य-परंपरा के उल्लंघन का हवाला देते हुए बी.एन.कॉलेज मंें उíंडता प्रदर्शित करने वाले ९ छात्राों को निष्कासित किया गया है और १२ को निलंबित. प्रश्न है कि क्या निष्कासन और निलंबन गुरु-शिष्य-परंपरा का पालन है? क्या उन्होंने अपने अंदर झाँक कर देखा है कि वे गुरु हैं या नहीं? गुरु वह है जिनके भीतर अहंकार न रह गया हो और ये अध्किारी अहंकार के पुंज हैं. गुरु वह है जिनके भीतर व्रफोध् की जगह दया, क्षमा और करुणा हो. ये अध्किारी व्रफोधवतार हैं. गुरु पूर्ण संवेदनशील होता है. ये लोग पूर्णत: संवदेनशून्य हो चुके हैं. सच्चा गुरु वह है जो विद्यार्थियों की कमी को अपने भीतर देखता है, क्योंकि जब तक गुरु में कमी नहीं रहेगी तब तक शिष्यों में आयेगी कहाँ से ? नयी पीढ़ी की बुराई के लिए पुरानी पीढ़ी ही जिम्मेदार होती है. अपने को ‘गुरु’ कहलाने वाले ये अध्किारी अगर गुरु होते तो मामला इस कदर दिन-प्रतिदिन विषाक्त नहीं होता. शिष्य का माने है समस्या और गुरु का माने है समाधन! जो समाधन न निकाल सके, वह गुरु कैसा? दरअसल पटना विश्वविद्यालय के वर्तमान अध्किारीगण समस्या हैं. समस्या समस्या का हल नहीं निकाल सकती, सिपर्फ बढ़ा सकती है. समस्या बढ़ाने का काम ये अध्किारी बखूबी कर रहे हैं. अपने को गुरु मानते हुए पैर छुआने की लालसा लज्जाजनक है. पैर छुआ जाता है आध्यात्मिक गुरुओं का. ऐसे गुरुओं का जो गोविन्द हो चुके हैं. ऐसे गुरुओं के पैर से जो उर्जा बहती है, उसमें नहाने के लिए शिष्य उनके चरणों में माथा टेकता है. शिष्य उस दिव्य उफर्जा से अपना तार जोड़ता है और प्रकाशवान होता है. हमेशा दो प्रकार की परंपराएँ ध्रती पर रही हैं. ये अध्किारी गण दूसरी परंपरा के हैं. वह है -‘अंध गुरु, बहरा चेला की परंपरा’. गुरु किताबी ज्ञान के गुरूर में चूर है और चेले के कानों में भूर है! हिंसा दो प्रकार की होती है स्थूल और सूक्ष्म. स्थूल हिंसा दिखाई पड़ती है और एक सीमा तक नुकसान पहुँचाती है. सूक्ष्म हिंसा दिखाई नहीं पड़ती और असीम हानि पहुँचाती है. इतनी हानि जिसका आकलन करना कठिन होता है. विद्यार्थी स्थूल हिंसा करते आ रहे हैं और ये गुरुजन सूक्ष्म हिंसा. विद्यार्थी अगर सामान को क्षतिग्रस्त करते हैं तो एक आर्थिक हानि होती हैऋ अगर लप्पड़-थप्पड़ करते हैं, तो थेाड़ी शारीरिक और मानसिक हानि होती है. लेकिन अगर करुणावान और ज्ञानी शिक्षक हो तो वह अपने उफपर जरा भी मानसिक आघात नहीं लेगा. ऐसा भी शिक्षक हो सकता है जो बच्चों से मार खाने के बाद भी उन पर व्रफोध् न करे, जो छात्राों से कह सके कि मुझमें कोई दोष होगा तभी तो तुमने मारा है. इस पर विचार करने का मौका मुझे दो. मैं अपने अंदर प्रवेश कर एक-एक कोना छान डालना चाहता हूँ कि कहाँ कमी है मेरे भीतर. अगर दिखायी पड़ जायेगी तो मैं तुमसे क्षमा माँगूगा और उसे सुधरने का प्रयास करूँगा. अगर नहीं मिलेगी, तो भी तुम्हें मैं दंडित नहंीं करूँगा, सिपर्फ निवेदन करूँगा- बेटा, अपने भीतर झाँको, कहीं जरूर पा लोगे और पाते ही तुम उससे बाहर हो जाओगे. बड़ा से बड़ा प्राकृतिक नियम यह है कि दुर्गुण का निवास व्यक्ति के भीतर तभी तक रहता है, जब तक उस पर उसकी समग्र दृष्टि नहीं पड़ती. देखते ही वह विदा होता है. इसके लिए अलग से कोई प्रयास नहीं करना पड़ता है. लेकिन अपने भीतर झाँकने की परंपरा विश्वविद्यालय के अंदर नहंी है. सभी दूसरों के दुर्गुणों में डुबकियाँ लगा रहे हैं. इससे दुर्गुणों में उत्तरोतर वृ(ि होती रही है. पहले दिन की घटना से दूसरी घटना ज्यादा बड़ी थी और उससे भी बड़ी घटना गुरुओं के द्वारा की गयी है. यह एक श्रृंखला बनती जा रही है. सभी उसको बड़ा करने में ही अपने को ‘बड़ा’ समझ रहे हैं. यह सिलसिला टूटना चाहिए. विश्वविद्यालय की सारी पफाइलों के साक्षी कर्मचारी गण होते हैं. पटना विश्वविद्यालय कर्मचारी संघ के नेताओं ने जो आरोप लगाये हैं, वे सूक्ष्म हिंसा के अंतर्गत आयेंगे. ‘हिन्दुस्तान’ में छपे आरोप द्रष्टव्य हैं- स्टोर में करोड़ों की खरीददारी का भुगतान हुआ, लेकिन सामान आया ही नहीं. चार करोड़ रुपयेां के कम्प्यूटर खरीदे जा चुके हैं, लेकिन २० लाख रुपये के सुपर कम्प्यूटर का कहीं अता-पता नहीं है. हॉस्टल के मेंटेनेस के नाम पर तीन करोड़ रुपये ठेेकेदार केा भुगतान किये जा चुके हैंं, लेकिन काम कुछ नहीं हुआ है. जरूरी नहंी कि आरोप शत-प्रतिशत सही हों, लेकिन विश्वविद्यालय अध्किारियों के कृत्यों को आँखों से देखने वाले कर्मचारियों के आरोप हैं तो सच्चाई तो होगी ही. ये ही अध्किारी गण अपने को गुरु समझते हैं! मैं सोचता हूँ, छात्राों की हिंसा बड़ी है या इन अध्किारियों की? दरअसल ऐसे अध्किारियों का एकमात्रा सहारा दंड होता है. इनसे कभी आशा नहीं की जा सकती कि ये स्वप्न में भी कभी विवेक का सहारा लेकर काम करेंगे और विश्वविद्यालय में पठन-पाठन का माहौल कायम करेंगे. मटुक नाथ चौध्री ३१.०८.०९
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