बुधवार, सितंबर 02, 2009

chhutahi mal ki malhi ke dhoye

छूटइ मल कि मलहि के धेएँ
बी. एन. कॉलेज में प्राचार्य एवं अन्य शिक्षकों के साथ छात्राों के द्वारा मारपीट की घटना से भोलाराम आहत है. छात्राों का आरोप है कि अभद्र व्यवहार के कारण छात्राों केा सजा देने मेंें विश्वविद्यालय प्रशासन भेदभाव कर रहा है. अपराध् जब मिलता-जुलता हो, लगभग एक समान हो, तो सजा भी समान होनी चाहिए. छात्रााओं के साथ दुव्र्यवहार एवं अन्य छात्राों के साथ रैंगिंग को लेकर कुछ विद्यार्थियों को जहाँ एक महीना और तीन महीने का निष्कासन मिला है, वहाँ इसी प्रकार के अपराध् के लिए चंदन कुमार को एक साल का निष्कासन मिला है. यह बड़ी बात है कि विद्यार्थी अपना अपराध् स्वीकार कर रहा है, लेकिन विश्वविद्यालय प्रशासन कभी भी अपना अपराध् स्वीकार नहीं करताऋ पढ़ाई का वातावरण बनाने के लिए कभी विचार-विमर्श नहीं करता. केवल इसको दंड दो, उसको दंड दो. लगता है, विश्वविद्यालय ज्ञानालय नहीं रहकर न्यायालय हो गया है, न्यायालय कहना भी ठीक नहीं. कहना चाहिए अन्यायालय! आपका क्या कहना है, सर?मटुक:- प्यारे भोलाराम, विश्वविद्यालय न तो ज्ञानालय है, न न्यायालय और न अन्यायालय. वह केवल कूड़ालय है.भोलाराम:- बड़ी कड़ी टिप्पणी है सर. लेकिन सच तो कड़वा होता ही है.मटुक:- सच कड़वा तब होता है भोलाराम, जब हम उसे स्वीकार नहीं करते. वरना सच तो बड़ा मीठा होता है. सच के समान क्या मीठा है इस दुनिया में? जब आदमी को सच मीठा लगने लगता है, तो उसके जीवन में एक व्रफांति आ जाती है. इसे उलट कर भी कहा जा सकता है कि जब व्यक्ति के जीवन में व्रफांति आ जाती है, तो सच मीठा लगने लगता है. सच को कड़वा या मीठा कहने से सच का परिचय नहीं मिलता, कहने वाले व्यक्ति का परिचय मिलता है. जो सच को कड़वा बता रहा है, वह कह रहा है कि मैं सच को स्वीकारने के लिए तैयार नहीं हूँ. जो मीठा कह रहा है, वह कह रहा है कि मैंने सच को स्वीकार कर लिया, अंगीकार कर लिया, सच को चख लिया. अपूर्व स्वाद है!भोलाराम:- इस तरह से तो मैंने कभी नहीं सोचा था, सर. मैं तो यही सोचता रहता था कि जब सत्य इतनी महान चीज है, तो कड़वा क्यों है? पिफर यह सोचकर शांत हो जाता था कि नीम कितना गुणकारी है, लेकिन कड़वा है! प्रकृति का यही नियम है.मटुक:- प्रकृति का तो यह नियम है भोलाराम कि जिसे स्वीकार कर लो उसका दंश विदा हो जाता है. मैं तो नीम का काढ़ा भी इस तरह मजा लेकर पीता हूँ, जैसे शरबत पी रहा होउफँ!भोलाराम:- अच्छा! मैं तो नीम का काढ़ा देखकर ही काँप जाता हूँ! तब तो मैं आपसे यह जानना चाहता हूँ सर कि अगर आप प्राचार्य या कुलपति होते और आपके साथ ऐसा ही दुव्र्यवहार होता, तो आप कैसा आचरण करते?मटुक:- होता क्या, हो चुका है भोलाराम. मन-चित्त लगाकर सुनो. सन् २००० या २००१ की बात है. मैं बी. एन. कॉलेज में नामांकन प्रभारी बनाया गया था. बेईमान शिक्षक किस तरह गलत नामांकन का नुस्खा ढूँढ लेते हैं, इसे मैं निकट से देख चुका था. सौ प्रतिशत सही और खुले नामांकन की शुरुआत मैंने की. प्राचार्य मेरी रक्षा में कवच बन गये थे. अगले वर्ष प्राचार्य बदल गये. लुंज-पुंज प्राचार्य आ गये और उन्होंने अपने बचाव के लिए मुझे ही कवच बना लिया! एक दबंग विद्यार्थी ने मुझ पर गलत नामांकन का दबाव बनाया. मेरे इन्कार करने पर वे प्राचार्य से मिले. प्राचार्य को भी कुछ गलत नामांकन करवाना था! मेरे कारण अड़चनें आ रही थीं. उन्होंने उस दबंग छात्रा से कहा- अरे, मुझे क्या कहते हो? अगर नामांकन प्रभारी ले लेते हैं तो मुझे कोई आपत्ति नहीं है. पलटकर छात्रा मेरे पास आया. अब वह अध्कि आवेश में था. बोला- प्राचार्य लेने बोले हैं. आप नामांकन लीजिए. मैंने पूछा- लिखकर दिया है या मौखिक बोले हैं? उसने कहा- मौखिक. मैंने कहा- लिखाकर लाओ. इतना सुनते ही वह पफायर हो गया- आप बहुत कानून छाँटते हैं. प्राचार्य बड़े हैं कि आप बड़े हैं? आप प्राचार्य के खिलापफ काम कीजिएगा? मैंने कहा- बड़े तो प्राचार्य हैं. मैं उनके खिलापफ काम नहीं करूँगा और नीति के खिलापफ भी नहीं करूँगा. तुम लिखाकर तो लाओ. इतना सुनते ही वह ऐसा गरजा, मानो बम के पलीते में चिनगारी लग गयी हो. गाली देते हुए आवेश में कुर्सी उठा ली और सर पर पटकने के लिए दौड़ा. विभाग में उस समय दो छात्रा थे. एक छात्रा डर के मारे भाग गया और दूसरा मेरे बचाव के लिए बीच में खड़ा हो गया और उससे गिड़गिड़ाने लगा- भैया, भैया, ऐसा न कीजिए भैया. अनर्थ हो जायेगा भैया. छोड़ दीजिए भैया. उनके अनुनय-विनय और बचाव से जो कुर्सी आसमान में उठी थी, वह मेरे सर को छोड़ जमीन पर पटक दी गयी. कुर्सी टूट- टाट कर बौनी हो गयी. गाली देते, ध्मकाते और नामांकन के लिए एक आखिरी मौका मुझे देकर वह चला गया. हल्ला हो गया. कुछ शिक्षक सहानुभूति जताने आये. वे प्राचार्य पर केस करने के लिए दबाव बनाने लगे. लड़का भूमिहार था ;यह मुझे बाद में मालूम हुआद्ध और भूमिहार को भूमिहार के द्वारा पस्त करने की रणनीति में कुछ शिक्षक जुट गये. मैं इन भीतरी व्रिफयाकलापों से अनभिज्ञ था. भारी मन से घर लौटा. रास्ते भर सोचता आ रहा था- क्या मुझे नामांकन प्रभारी का पद छोड़ देना चाहिए? यह तो पलायन होगा. क्या डटे रहना चाहिए? परिणाम में पिटाई मिलेगी. क्या करना चाहिए? कोई उत्तर नहीं था. कैम्पस में खबर पफैल गयी थी. एक अच्छे प्रभावशाली छात्रा नेता ने उस लड़के को समझाया- रे बुड़बक, तुम किस आदमी से टकरा गये? कभी लंद-पफंद करते देखा है उन्हेें? गलत काम करने वाले शिक्षक को ध्मका कर तुम गलत काम करा सकोगे. वह तो जान दे देंगे, लेकिन गलत नहीं करेंगे. जाकर मापफी माँगो उनसे. चारांे तरपफ से वह लड़का दुत्कारा जाने लगा. उसका âदय बदल गया. वह मेरे चरणों में गिरकर मापफी माँगना चाहता था, लेकिन उसे अकेले मेरे घर आने की हिम्मत नहीं होेती थी. मेरे नजदीकी दो लड़कों को साथ लेकर वह मेरे घर पर आया और सीध्े गोर पर गिर पड़ा. ‘मुझसे भारी गलती हो गयी सर. मैं आपको नहीं जानता था सर. मुझे मापफ कर दें.’ मैंने उठाकर उसे âदय से लगा लिया. कहा- उठो पुत्रा! ; ऐसा कहते हुए मेरी आँखों में आँसू आ गये!द्ध मेरे मन में तुम्हारे प्रति थोड़ी भी दुर्भावना कभी नहीं आयी. और अब तो प्यार उमड़ रहा है. लेकिन बेटा, तुम अच्छे कब बनोगे? और भोलाराम, वह मेरे लिए अत्यंत अच्छा हो गया! रोज हँसता हुआ आकर मेरा चरण छुए और अच्छा बनने का वचन देकर जाये. भोलाराम, तुम्हें यह सूचित करते हुए मुझे अपार दुख हो रहा है कि वह बेचारा एक दिन मारा चला गया. जिस दिन मैंने यह खबर सुनी, खाना नहीं खाया गया. तो भोलाराम, उपद्रव का जवाब उपद्रव नहीं हो सकता- छूटइ मल कि मलहि के धेएँ ? विश्वविद्यालय की बु(िहीनता के समुद्र में इन दिनों दंड, घृणा और विनाश की लहरें उठ रही हैं. इन मलों से गंदगी नहीं धेयी जा सकती. क्षमा, प्रेम और सृजन ये तीन पावन जल हैंं. भगवान्! विश्वविद्यालय के हृदय में इनकी त्रिावेणी कब बहाओगे?
२७.०८.०९

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