स्वतंत्राता हमारा स्वभाव है
मैं छोटा बच्चा था. भोर का समय. अचानक कान में बहुत दूर से आता हुआ लयब( शोर सुनायी पड़ा. चौंक कर जाग गया. अंदर अपार कुतूहल! क्या है? झटपट बिछावन से उठ कर भागा. न मुँह धेने की सुध्, न शौच जाने की. कपड़ा बदलने की तो बात ही नहीं, क्योंकि उन दिनों दिन में और रात में पहनने वाला एक ही कपड़ा हुआ करता था. शोर का पीछा करता हुआ मैंं भागा जा रहा था. ध्ीरे-ध्ीरे आवाज स्पष्ट होने लगी है. ज्यांे-ज्यों शोर के करीब पहुँच रहा हूँ, त्यों-त्यों उमंगों में उछाल ज्यादा आने लगी है. अचानक एक लंबे जुलूस की पँूछ दिखाई पड़ी. शोर स्पष्ट हुआ. एक व्यक्ति का स्वर- आज क्या है? समूह का स्वर- पंद्रह अगस्त. पन्द्रह अगस्त- मनाइये. घर-घर झंडा- पफहराइये. भारत माता की- जय. महात्मा गाँध्ी की -जय. पंडित जवाहर लाल नेहरू की - जय. देशरत्न डWा. राजेन्द्रप्रसाद की- जय. नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की - जय. आदि. यह गाँव के स्कूली बच्चों की प्रभातपफेरी थी. मैंने पहले दौड़ कर जुलूस की लंबाई नापी. पिफर उसमें शामिल हो गया. मेरी उमंग का कोई ठिकाना नहीं. मैं तटस्थ द्रष्टा नहीं, स्वयं उस अपूर्व उत्सव में शामिल था. मैं स्वयं शोर था, शोर का आनंद था. मालूम हुआ, आज १५ अगस्त है. इसी दिन भारत स्वतंत्रा हुआ था. अंग्रेज यहाँ से भगा दिये गये थे. तब से हम यह राष्ट्रीय त्योहार मनाते हैं. जब तक जुलूस चलता रहा, तब तक मैं आनंदित रहा क्योंकि एक तो नारा लगाने का आनंद था, दूसरा, घरों से स्त्राी-पुरुष निकल कर कुतूहलवश हम लोगों को देख रहे थे. जब जुलूस समाप्त हुआ तो उदासी छा गयी. कैसा त्योहार है? केवल विद्यार्थी और मास्टर मनाते हैं! अन्य लोगों को मतलब नहीं- न मेला, न तमाशा, न घर में सुस्वादु भोजन. बेकार का त्योहार है! नीरस!! वह संभवत: १९५९-६० का समय रहा होगा. उम्र लगभग ६-७ साल. दूसरे साल पिफर १५ अगस्त आया. हमारे एक बाल-मित्रा ने कहा- आज के दिन टेªन में टिकट नहीं लगता है. आजादी से जहाँ चाहो, घूमो. मुझे सुनकर बड़ा आनंद हुआ. गाड़ी पर चढ़ने के सपने झूलने लगे. कभी नहीं चढ़ा था. रेलगाड़ी बहुत बड़ी चीज थी. उसे केवल पटरी पर चलते देखा था. सोचता था- कब ऐसा दिन आयेगा जो उस पर चढ़ सकूँगा. बाल-स्वप्न यथार्थ बनने के लिए मचलने लगाऋ और हम दोनों मित्रा घर में किसी को बिना बताये थाना बिहपुर स्टेशन चले गये जो हमारे गाँव जयरामपुर से लगभग ४ किलोमीटर की दूरी पर था. हमलोगों ने तय किया कि नवगछिया जाना चाहिए. पूछताछ कर उध्र जाने वाली ट्रेन पर बैठ गये. आश्चर्य हुआ कि जब गाड़ी रÝतार में थी तो देखा गाछ-वृक्ष भागे जा रहे हंै. ध्रती घूमती नजर आ रही है. नवगछिया में उतरे तो विस्मयजनक खुशी हुई. हमदोनों छोटे-छोटे बच्चे अकेले नवगछिया आ गये! इससे पहले अकेले घर से कहीं नहीं निकले थे. हमेशा अभिभावक के साथ. यह पहली साहसिक यात्राा थी. ‘नवगछिया आ गये!’ ऐसा बोल-बोल कर हम दोनों महान आश्चर्य में डूब जाते. इसके बाद हम दोनों पटरी के उफपर वाले लोहे के पुल पर चढ़ गये. वहाँ से दूर-दूर तक रेलवे लाइन दिखती थी, जो ध्ीरे ध्ीरे पतली नजर आती थी. सोचा यह तो स्टेशन है, असली नवगछिया कहाँ है? एक बुजुर्ग से पूछा. उन्होंने प्रश्न किया- नवगछिया में कहाँ जाना चाहते हो? बाजार जाना चाहते हो तो उध्र है बाजार. हमलोग डरे-डरे बाजार की ओर बढे+. कहींं बाजार में खो न जायँ? इसलिए आरंभ की दो-चार दुकानें देखकर स्टेशन लौट आये. अब घर वापसी की चिंता सताने लगी. मालूम हुआ रात में ट्रेन है. अब क्या होगा? भूख भी लग चुकी थी. पास में एक पैसा नहीं था. तीसरे प्रहर में एक मालगाड़ी चलते-चलते रुकी. किसी आदमी ने कह दिया, जाओ उसी पर चढ़ जाओ. दौड़कर गार्ड के डिब्बे में चढ़ गये. वे मना करते रहे, लेकिन हम लोग चढ़ गये. तब उन्होंने पास बैठाया. पूछा- कहाँ जाओगे? किसलिए आये थे? सब बताया. उन्होंने डराया- यह गाड़ी थाना बिहपुर में नहीं रुकेगी. एक ही बार बरौनी में रुकेगी. हमने पूछा- बरौनी कहाँ है! उन्होंने बताया- थाना बिहपुर से बहुत दूर. हमलोग उनसे बिहपुर में रोकने के लिए गिड़गिड़ाने लगे. उन पर असर नहीं हुआ. तब हमलोग रोने लगे. बच्चों और स्त्रिायेां का यही आखिरी हथियार है. काम कर गया. वे बोले- स्लो कर देंगे. उतर जाना. बिहपुर मंे जब गाड़ी ध्ीमी होने लगी तो हम उतरने लगे. वे चिल्लाये- रुको-रुको, रुकेगी तब उतरना. उन्होंने गाड़ी रोककर हमें उतार दिया. ध्रती पर आते ही हम आनंद से रोमांचित हो गये. हम स्वतंत्रा हो चुके थे. यह ४८-४९ वर्ष पहले की घटना है. इस बीच स्वतंत्राता के कई अर्थ समझ में आये. मालूम हुआ कि हमें केवल राजनीतिक स्वतंत्राता मिली है. आर्थिक, शैक्षिक रूप से हम पराध्ीन हैं. ध्ीरे-ध्ीरे ज्ञान हुआ कि वास्तव में हम राजनीतिक रूप से भी पराध्ीन हैं. सिपर्फ शासक बदले हैं शासन का ढाँचा वही है. शिक्षा का ढँाचा वही है. न्याय का ढँाचा वही है. सब कुछ वही है. यह स्वतंत्राता नहीं स्वतंत्राता का भ्रम है जो ६२ वर्षों से बनाया जा रहा है. तब वास्तविक आजादी कैसे मिले? मालूम हुआ कि स्वतंत्राता मिलती नहीं, छीनी जाती है. किससे छीनँू? छीनने कहीं जाना नहीं है, वह हमारे अंदर है, उसे सिपर्फ पहचानना पड़ता है. उसकी घोषणा करनी पड़ती है. वह कुत्सित संस्कारों, रूढ़ियों, जात, सम्प्रदाय, उफँच-नीच की भावना के आवरण में है, वासनाओं, कामनाओं, मोह और अहंकार से ढँकी हुई है, उसे उघाड़ना पड़ता है. आंतरिक स्वतंत्राता ही असली है. पहले व्यक्ति केा स्वतंत्रा होना पड़ता है, तभी राष्ट्र स्वतंत्रा हो सकता है. एक बाह्य स्वतंत्राता भी होती है, जो दूसरों से प्राप्त होती है. वह मिल भी जाय तो क्या मोल अगर अंदर से आदमी गुलाम है. जो स्वतंत्राता दी जा सकती है, वह छीनी भी जा सकती है. लेकिन जो पैदा की जाती है, उसे कौन छीन सकता है? वह हमारा स्वभाव है! और आज उसी स्वभाव को पाने के लिए संकल्प लेने का दिन है.
१४.०८.०९
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें