मीरा कुमार की चिंता
मैला ढोने वालों के जीवन में परिवर्तन पर आधरित किताब ‘अलवर की राजकुमारियाँ’ का विमोचन करते हुए लोकसभा अध्यक्षा मीरा कुमार ने चिंता व्यक्त की कि ‘कालचव्रफ सब कुछ बदल देता है, लेकिन जाति-रथा को नहंीं बदल सका. मैं अक्सर सोचती हूँ कि इस देश से जाति-प्रथा कब जायेगी और इसे इतिहास का घिनौना पन्ना समझकर दपफना दिया जायेगा.’ अपने देश में जितनी राजनेत्रिायाँ हैं, उनमें सबसे ज्यादा मीरा कुमार को मैं पसंद करता हूँ. उनके चेहरे से एक गहन शालीनता बरसती है. उनकी मुस्कान अमोघ है और वाणी से शहद झड़ता है. विपरीत परिस्थिति में भी उन्हें व्रफोध् करते नहीं देखा. चेहरे पर चिंता की लकीरें देखीं, लेकिन किसी पर प्रत्याव्रफमण करते नहीं देखा. जब मायावती जैसी ध्ुंध्कारी और ममता जी जैसी उग्र राजनेत्रिायों की पृष्ठभूमि में उन्हें रखकर देखता हूँ, तो उनकी शोभा और बढ़ जाती है. ऐसी शालीन और सहज स्त्राी ही इस प्रकार की चिंता व्यक्त कर सकती है. उनकी चिंता में अपने को शामिल करते हुए इस चिंतन को थोड़ा और आगे बढ़ा रहा हूँ. मैं सोचता हूँ कि कालचव्रफ ने और कई चीजों को नष्ट नहीं किया. उसने दुष्ट राजनेताओं की अटूट श्रृंखला को नष्ट नहीं किया. कोई भी युग ऐसा नहीं है जहाँ राजनेताओं ने तांडव नहीं किया है. दुनिया में जितने यु( हुए हैं और हो रहे हैंऋ उन्हें कौन जनता पर थोप रहा है? अनेक पृथ्वियों को एक ही बार में स्वाहा कर देने वाले परमाणु हथियार किसने बनवाये हैं? चाहे महाभारत का महाविनाशकारी यु( हो या रामायण का यु(, राजाओं ने किये थे. यह कहना गलत है कि महाभारत का यु( द्रोपदी के कारण हुआ और राम-रावण यु( सीता के कारण हुआ. वास्तविकता है कि एक में दुर्योध्न का हाथ था और दूसरे में रावण का. कहते हैं, सम्राट अशोक एक अच्छे राजा हुए. वे थे तो बड़े व्रफूर, लेकिन उनका âदय बदल गया था. परन्तु उनके âदय-परिवर्तन के पीछे भगवान बु( का हाथ था. भगवान कृष्ण और भगवान बु( जैसे आदमी को काल-चव्रफ नहीं नष्ट कर सका- ‘सम्भवामि युगे युगे.’ वे भी हर युग में पैदा होते रहे. संत का सही माने में विपरीतार्थक शब्द असंत नहीं होता है, जैसा कि हम व्याकरण की पुस्तकों में देखते हैं. असंत का तो इतना ही मतलब हुआ जो संत नहीं हैं, जैसे हम और आप सरीखे लोग. संत का उल्टा शब्द है राजनेता. कालचव्रफ इन दोनों को पैदा करता जा रहा है. संत मनुष्य को एक कर देता है और राजनेता उसे टुकड़े-टुकड़े कर देता है. जाति न रहेगी तो वोट बैंक कहाँ से बनेगा? ‘आरक्षण’ जाति को तोड़ने का नहंीं, जाति को मजबूत करने का हथियार है. हमारे यहाँ जो चार वर्णों का जन्म हुआ था- वह किसी महान् )षि की उपज थी. उसका आधर उफँच-नीच नहीं था. )षि एक महान् मनोवैज्ञानिक सत्य का उद्घाटन कर रहे थे. दुनिया में जितने भी प्रकार के मनुष्य हैं, उनकी मनोवृत्तियों को चार वर्णों में बाँटा गया था- ब्राह्मण, क्षत्रिाय, वैश्य और शूद्र. ऐसा आदमी जो मस्तिष्क का, âदय का उपयोग ज्यादा करता है, जो अध्ययन-मनन, पठन-पाठन, योग-साध्ना, भक्ति आदि के द्वारा परमात्मा तक पहुँचना चाहता है, वह है ब्राह्मण. जिसमें वीरता कूट कूट कर भरी हो, उíाम शौर्य उछाल ले रहा हो, यु( में जिनकी प्रतिभा खिल उठती हो, ऐसा व्यक्ति केवल वीरता प्रदर्शन के द्वारा ही परमात्मा तक पहुँच सकता है. रावण ने अच्छी तरह अपनी प्रवृत्ति पहचान ली थी. वह जान गया था कि भक्ति उसके वश की बात नहीं है- ‘होहहि भजनु न तामस देहा.’ यु( के द्वारा ही उसने मोक्ष हासिल किया. अर्जुन जब यु( से विमुख हो रहा था तो उनकी मूल प्रवृत्ति की ओर कृष्ण ने इशारा किया था. जहाँ भी जिस क्षेत्रा में वीरता प्रदर्शन की बात हो, वहाँ क्षत्रिायत्व है. पिफर तीसरे प्रकार के मनुष्य वे हैं जिनकी रुचि ध्नोपार्जन मंे है. पद का उपयोग भी वे ध्न के लिए करते हैं. उनकी नजर में पढ़ना भी है तो ध्न के लिए. सारे व्रिफया-कलापों के पीछे ध्न की लिप्सा रहती है. अभी समाज में ९० प्रतिशत लोग इसी श्रेणी के हैं. ध्न की प्यास जब चरम पर पहुँचेगी, तब ऐसे आदमी के जीवन में ध्न की व्यर्थता का बोध् होगा और परमात्मा में गति होगी. चौथी श्रेणी है शूद्र की, जिसे सेवा में रस मिलता हो. पीड़ितों की सेवा द्वारा जो परमात्मा तक पहुँचना चाहते हैं, वे हैं शूद्र. इस युग में दो महान् शूद्र हुए महात्मा गाँधी और मदर टेरेसा. वर्ण-विभाजन मनोविज्ञानगत था, लेकिन जिन लोगों के हाथ में राज-पाट रहा, सत्ता रही, उन्होंने इसे उफँच-नीच में बदल दिया. उन्होंने अपने को श्रेष्ठ साबित किया और अत्याचार का सिलसिला शुरू हो गया. ब्राहमणों के हाथ में वेद था, क्षत्रिायों के हाथ में तलवार, वैश्यों के हाथ में ध्न, हाथ खाली था तो केवल शूद्रों का और महिलाओं का. इसलिए वही पीसे गये. आज भी जिनका हाथ खाली है, वे पीसे जा रहे हैं, चाहे वे किसी जाति के हों. उफँच-नीच का यह विभाजन शक्ति के कारण है. अत्याचार इतना बढ़ गया कि कालचव्रफ ने भगवान बु( को भेज दिया. जाति-प्रथा पर जोरदार आव्रफमण हुआ, लेकिन टूटते-टूटते उसे पिफर सँभाल लिया गया. दूसरा बड़ा प्रहार मध्यकाल में कबीर, रैदास आदि संतों ने किया. लेकिन मुस्लिम, अंग्रेज और वर्तमान राजनेताओं ने उसे सँभाल लिया. किसी तरह की गलतपफहमी न हो इसलिए मैं स्पष्ट कर दूँ कि राजनेता से मेरा तात्पर्य जाति नहीं प्रवृत्ति से है. एक प्रवृत्ति है मनुष्य को मनुष्य से जोड़ने वाली, दूसरी प्रवृत्ति है मनुष्य को मनुष्य से तोड़ने वाली और पफायदा उठाने वाली. इस प्रवृत्ति के लोग जहाँ भी जिस पेशे में हैं, वे राजनेता हैं. देखते नहीं, राजनेता भी कभी-कभी एक दूसरे को कहते हैं- ‘ इस बात में राजनीति नहीं होनी चाहिए, हमें मिलकर काम करना चाहिए.’ यद्यपि ऐसा कहने में भी राजनीति होती है. इसलिए माननीया मीरा जी, अपने और दूसरे दलों के राजनेताओं के अंत:करण टटोलिये और उनसे पूछिये कि क्या सचमुच आप लोग जाति-प्रथा मिटाना चाहते हैं? वे तो प्रकट नहीं बोलेंगे लेकिन उनकी प्रेतात्मा बोलेगी - भूलकर भी इस तरह का प्रश्न न कीजिए. जाति-प्रथा तो हमारा आहार है. उसके मिटने से हम जीयेंगे कैसे? अपने पाँव पर खुद कुल्हाड़ी मत मारिये. एक तो दुष्ट संत हम पर प्रहार करते ही हैं और आप भी जात-भाय होकर.....?
११.०८.०९
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