प्रश्न है, गुरु-शिष्या के बीच प्रेम संबंध होना चाहिए या नहीं ? लेकिन इसके पहले यह प्रश्न है कि इसका निर्धारण कौन करता है और उस निर्धारण के पीछे उसकी धारणा क्या है ? मुझसे कोई पूछे तो मैं इतना ही कहूँगा कि प्रेम संबंध का निर्धारण परमात्मा करता है, सारे संबंधों का निर्धारण वही करता है. जिसको हम गलत कहते हैं, वह भी वही करता है, जिसको सही कहते हैं , वह भी वही करता है. गलत-सही, दुख-सुख, शांति-अशांति, शुभ-अशुभ, पाप-पुण्य, झूठ-सच, जन्म-मृत्यु, यश-अपयश, घृणा-प्रेम, सब उन्हीं की निराली सृष्टि है. ये सारी चीजें हमें उन्हीं से मिलती हैं. मनुष्य के भीतर एक क्षमता उन्होंने अवश्य दी है कि वह अपने को जगाने की चेष्टा करे तो दुख से सुख की ओर जा सकता है, अशांति से शांति, अशुभ से शुभ की यात्रा कर सकता है. कोई भी मनुष्य ऐसा नहीं है जो सुख, आनंद और शांति न चाहता हो, फिर भी वह दुख, तनाव और अशांति में जीता है.मनुष्य की सारी पीड़ा उसके अंधत्व से जन्म लेती है. अंधत्व ही उन्हें दूसरों से मदद लेने के लिये विवश करता है. आदमी किसी से पूछ लेता है, किसी पर विश्वास कर लेेता है और किसी के बताये मार्ग पर चल पड ता है. अंधों में ही कोई चालाक अंधा किसी का गुरु बन जाता है. कबीर ने अंधकार में बिलबिलाते ऐसे गुरु-चेलों की स्थिति का सजीव चित्रण किया है-
जाका गुरु भी अँधला, चेला खरा निरंध
अंधहि अंधा ठेलिया, दोनों कूप पडंत
करोड ों मनुष्यों में कभी कोई ऐसा होता है जिनकी आँखें खुल जाती हैं. ऐसी खुली हुई आँख वाले जब कुएँ में गिरते अंधों को देखते हैं तो करुणा से भर उठते हैं. करुणावश वे लोगों को उबारने निकल पड ते हैं. ऐसे ही लोग गुरु कहलाते हैं. जो अंधत्व से पीडि त लोग आँख पाने के लिये उनकी तरफ आकृष्ट होते हैं, उन्हें शिष्य कहते हैं. उन गुरु-शिष्यों के बीच कैसा संबंध होगा, उसके निर्धारक वही हो सकते हैं. बाहर का आदमी कैसे निर्धारित करेगा गुरु-शिष्य-संबंध का स्वरूप ? वह अनधिकार चेष्टा है. अरण्यरोदन है. गुरु-शिष्य के बीच संबंध के निर्धारक केवल गुरु-शिष्य होते हैं. आँखवाले का मार्गदर्शन जब अंधा करने लगे तो इतना ही परिणाम आयेगा कि अंधो के अंधेपन की समय-सीमा और बढ़ जायेगी. दुनिया में जितने प्रकार के संबंध हैं, उनमें सबसे प्रगाढ , सबसे सार्थक और सबसे निर्लिप्त संबंध गुरु-शिष्य का ही होता है. मगर गुरु-शिष्य-संबंध एक अलौकिक घटना है, एक दुर्लभ चीज है.
टीचर-स्टूडेंट, शिक्षक-विद्यार्थी संबंध वर्तमान संसार में प्रचलित है. ये दोनों एक तल के ही प्राणी होते हैं. दोनों काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ आदि से ग्रसित होते हैं. अंतर सिर्फ जानकारी का होता है. एक थोड ा अधिक जानता है, दूसरा थोड ा कम जानता है. अच्छा शिक्षक वह है जिसे अच्छी जानकारी हो, सिखाने की कला आती हो, विद्यार्थियों के प्रति विनम्र हो, प्रेमपूर्ण हो और विद्रोही स्वभाव का हो. अच्छा विद्यार्थी वह है जिसके भीतर जिज्ञासा हो, वह भी प्रेमपूर्ण, विनम्र और विद्रोही हो. शिक्षक छात्रा में कभी-कभी सहज प्रेम की घटना घट सकती है. एक साथ काम करते हुए दोनों एक-दूसरे को अच्छी तरह समझ सकते हैं और प्रगाढ ता बढ सकती है. लेकिन समाज में इस संबंध का विरोध होता है. क्यों होता है ? क्योंकि समाज मूलतः काम और प्रेम का विरोधी है. एक उदाहरण से स्पष्ट करना चाहूँगा-
एक बुजुर्ग व्यक्ति इस बात से सहमत हो गये कि अगर पत्नी से प्रेम न हो तो आदमी बाहर प्रेम खोजेगा ही. उम्र में भी अंतर हो तो चलेगा. लेकिन शिष्या से प्रेम हो , यह बात गले से नीचे नहीं उतरती, अटक जाती है. मैंने कहा- आपने रूढि यों की दो बेडि याँ तोड डाली,ं तो तीसरी तोड ने में क्या दिक्कत है ? अड चन कहाँ हो रही है आपको ? उनसे कोई उत्तर न पाकर सोचा इन्हें एक झटका दूँ तो शायद ये चेतें. कहा- ठीक है, मैं आपसे सहमत हूँ कि छात्रा से प्रेम नहीं होना चाहिए. आपकी पुत्री तो मेरी छात्रा नहीं है. मैं अगर उनसे प्रेम करूँ तो शिष्या वाली बाधा खत्म हो जाती है, क्या आप स्वीकार करेंगे ? बुजुर्ग नरभसा गये और इसी में उन्हें उत्तर भी मिल गया. दरअसल प्रेम विरोधी मनुष्य तरह-तरह की बाधाएँ खड ी करने के लिए अनेक बहाने खोजते हैं. जहाँ स्त्री-पुरुष साथ रहकर पढ ते-लिखते हैं, कोई काम करते हैं, वहाँ संसर्गजन्य प्रेम पैदा होने की जमीन तैयार रहती है. इसलिए भावी घटना से बचाने के लिए उसे एक तथाकथित पावन रिश्ते की डोरी में बाँध देना चाहते हैं. उनमें एक बेड़ी है- शिक्षक-छात्रा पिता और पुत्री के समान हैं. उनके बीच प्रेम होना इस संबंध को कलंकित करना है. दूसरी बेड ी है-साथ पढ ने वाले लड के भाई-बहन के समान हैं. परिणाम यह होता है कि भाई-बहन का शाब्दिक रिश्ता ऊपर-ऊपर चलता है और प्रेम का वास्तविक रिश्ता भीतर-भीतर चलता है. सामान्य लड के-लड कियों का प्रेम स्वीकारने की बात तो दूर, जिस लड के की मँगनी हो जाती है, उसके साथ भी लड की को घूमने की आजादी नहीं है. जब तक सिन्दूर दान न हो जाय तब तक प्रेम चालू नहीं कर सकते. वह भी बड े-बुजुर्गों की देख-रेख में. मैं जिस स्त्री को ब्याह कर लाया था, इच्छा हुई जरा उसके साथ घूमने शहर निकलूँ. बस इस छोटी-सी इच्छापूर्ति में ही बड ी समस्या गाँव में खड ी हो गयी. कुलवधू घर से बाहर निकलेगी? असंभव ? लोग क्या कहेंगे ? ई हमारा बेटा जात-गोत सब ले लेगा. ऐसा हर्गिज नहीं होगा. लेकिन मेरे जैसे विकट मर्दाना को जो कभी किसी रूढि के वश में नहीं हुआ, रोकना महाकठिन था. मैंने विद्रोह कर दिया. समझिये न कि अपनी विवाहिता के साथ भी, जब तक वह नयी-नवेली है, आप प्रकृति के बीच मुक्त जगह पर जाकर प्रेम नहीं कर सकते, घूम-फिर नहीं सकते,. तो बिन ब्याही से कैसे प्रेम और मित्रता कर पाइयेेगा ? इस क्षेत्र में जिस व्यक्ति की चेतना जितनी भर जागी है, उतनी छूट लोग देने लगे हैं. बड े शहरों में मित्रता की धारणा विकसित हो रही है, लेकिन छोटे शहरों और गाँवों में स्त्री-पुरुष को प्रेम से रोकने के लिये किसी मान्यता प्राप्त संबंध में जोड दिया जाता है. जैसे स्त्री और पुरुष में भाई-बहन, चाचा-भतीजी इत्यादि का ही संबंध हो सकता है, मित्र वाला नहीं.
परिवार और समाज ने दमन के द्वारा बच्चों को मानसिक रूप से पंगु बना कर छोड दिया है. ठीक यही व्यवहार आज के माता-पिता के साथ उनके माता-पिता ने कभी किया था. यह अपंग बनाने की एक अंतहीन प्रक्रिया है. विवेक से विद्रोह पैदा होता है. विद्रोह ही इस अंतहीन श्रृंखला की कड़ी तोड सकता है.
क्रमशः
२०.०९.०९
आदरनीये सर,
जवाब देंहटाएं.मनुष्य की सारी पीड़ा उसके अंधत्व से जन्म लेती है.
मै आपके इस विचार से सहमत हू। और
अन्धत्व सिर्फ़ ध्यान के द्वारा ही दूर हो सकती है।
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आपकी ज़्यादातर बातें तार्किक लगीं, एक को छोडकर। कि संबंधों का निर्धारण परमात्मा करता है। अगर कोई परमात्मा को न मानता हो तो ? उसके लिए तो तर्क जुटाना टेढ़ी खीर हो जाएगी ! और अगर कोई व्यक्ति अगर स्वभावतः मौलिक, विद्रोही और तार्किक है तो परमात्मा को न मानना बड़ी ही स्वाभाविक और व्यवहारिक सी बात है। क्या आप यह मानते हैं कि स्वयं इंसान में इतनी बुद्धि या विवेक नहीं है कि वह वक्त, ज़रुरत और मानवीय आधार पर संबंधों के नए नए रुपों को समझ व बना सके। जहां तक मैंने पढ़ा है ओशो समलैंगिक संबंधों को अप्राकृतिक मानते थे। और ओशो का प्रेमी और प्रशंसक होने के बावज़ूद मैं ऐसा नहीं मानता। पर इसका मतलब यह भी नहीं कि खुद मैं समलैंगिक हूं। दरअसल किन्ही भी दो (या ज़्यादा भी हो सकते हैं) मैच्योर लोगों के बीच आपसी सहमति से बने संबंधों का या तो हमें सम्मान करना चाहिए या दखल ही नहीं देना चाहिए। यहां मैच्योर की परिभाषा करना मुश्किल है पर वो तो शादी या अन्य मामलों में भी मुश्किल है। हां, शादी वाले भी अपने निमंत्रण-पत्रों पर लिख मारते हैं कि ‘जोड़ियां स्वर्ग में बनती हैं’। तो यह परमात्मा द्वारा संबंध-निर्धारण करने वाला तर्क क्या ठीक है !?
जवाब देंहटाएंप्रिय संजय ग्रोवरजी
जवाब देंहटाएंहमलोग आपकी टिप्पणी से प्रभावित हैं.
अनुभव के थपेड़ों पर सवार होकर मैं अस्तित्व के प्रति लगभग समर्पण भाव की ओर पहुँच रहा हूँ. 'परमात्मा' मेरे लिये एक सुविधाजनक शब्द मात्र है जो अस्तित्व या अज्ञात या अज्ञेय शक्ति के लिये आया हुआ है. जिस बुद्धि और विवेक के द्वारा हम वक्त, जरूरत और मानवीय आधार पर संबंधों के नये-नये रूपों की समझ बनाते हैं, वह बुद्धि और विवेक कहाँ से आता है ? किसी को बहुत आता है, किसी को कम और किसी को आता ही नहीं. क्यों ? यह कहीं से भी आता हो, इसे मनुष्य अपनी फैक्टरी में नहीं बनाता है. मनुष्य अपनी प्रयोगशाला में कुछ बनाता भी है तो वह बनाने की क्षमता कहाँ से आती है ? जहाँ से आती हो, मेरा संकेत वहीं से हैं. अगर कोई मछली जल को न माने, न जाने तो भी वह रहती तो जल में ही है. इसलिए जो सत्य है, वह क्या मानने या न मानने पर निर्भर करेगा ? 'शादी' वाले तो और ज्यादा परमात्मा को मानते हैं, लेकिन वह मानना अंधविश्वास से आता है. और मेरा मानना एक प्रकार के बोध और समझ से आया हुआ है. जहाँ तक मुझे स्मरण है -ओशो ने समलैंगिक संबंध को अप्राकृतिक नहीं कहा है. उन्होंने रति की चार श्रेणियाँ बतायी हैं- आत्मरति, समरति, विपरीत रति और ब्रह्म रति. तीसरे चरण तक आमतौर पर सभी जाते हैं, लेकिन कुछ विकास के दूसरे चरण तक ही ठहर जाते हैं. इसलिए समलैंगिक संबंध को विकास से चुका हुआ, एक ठहरा हुआ संबंध उन्होंने बताया है, अप्राकृतिक नहीं कहा है. विकास का रुक जाना बीमारी है और उन्होंने इसे बीमारी कहा है.
धन्यवाद.
matukjee aap mahan hai
जवाब देंहटाएंप्रिय मटुकजूली जी,
जवाब देंहटाएंआपने कहा आप मेरी टिप्पणी से प्रभावित हैं। मुझमें जब तक भी अहं बाकी है, यह कहना झूठ ही होगा कि अपनी टिप्पणी से दूसरों को प्रभावित करना भी मेरे लक्ष्यों में से एक नहीं होता ।
मगर आप जैसा समझदार व्यक्ति एक तरफ तो यह कहे कि परमात्मा मेरे लिए एक सुविधाजनक शब्द है फिर उसके होने के बारे में वही पुरानी दलीलें भी दे, मेरी समझ में नहीं आता। अभी मेरे घर के बाहर कोई एक दस का नोट या एक पैन या कुछ भी फेंक जाए और मै यह पता लगाने में असमर्थ रहूं कि यह कौन फेंक गया है तो क्या मैं यह मानने लगूं कि यह परमात्मा फेंक गया है !? क्या कैनेडी की हत्या परमात्मा ने की थी (क्यों कि आज तक पता नहीं लग पाया कि किसने की थी)। दुनिया भर में जितने बम फट रहे हैं जिन्हें फेंकने वालों का पता नहीं लग पा रहा है, क्या परमात्मा फेंक रहा है!? जिस भी सवाल का हमें उत्तर नहीं मिल पा रहा उसका हम एक काल्पनिक उत्तरदाता क्यों खोज ले रहे हैं !? अगर सौ में से नब्बे सवालों के जवाब विज्ञान ने खोज लिए हैं तो बाकी दस के लिए हम थोड़ा इंतज़ार नहीं कर सकते !? 90 प्रतिशत पाने वाले बच्चे की 10 प्रतिशत और न ला पाने के लिए उपेक्षा, निंदा या उपहास या पिटाई किए जाएं, क्या यह अच्छी बात है !? क्या पृथ्वी पर इंसान न होता सिर्फ नदी, पर्वत नाले, रात-दिन, समय आदि-आदि होते, तब भी परमात्मा होता ?
समलैंगिक संबंधों की बात है तो ओशो को लेकर मेरी और आपकी स्मरण-शक्ति टकरा रही है। फिर भी औशो के लिए तो विकास तब तक ही रुका हुआ था जब तक व्यक्ति ‘संभोग से समाधि तक’ न पहुंच जाए। यानि उससे पहले की कोई भी अवस्था बीमारी के कम या ज़्यादा होने का ही संकेत भर हुई। चलिए, मान लेते हैं कि समलैंगिक विकास के कुछ निचले पायदान पर खड़े हैं। पर सभी विषमलैंगिक विकास की सीढ़ियां चड़ रहे होते हैं (हांलांकि यह आपने कहा नहीं है, मैं अपनी तरफ से सवाल रख रहा हूं), इसे कैसे जांचा जाए ? क्योंकि प्यार करने के भी बहुतों के अपने-अपने मकसद और मतलब होते हैं।
क्योंकि मेरे ब्लाग पर भी परमात्मा से संबंधित बहस चल रही है, इस कमेंट को आपके लिंक के साथ वहां भी लगा रहा हूं।
प्रिय संजय ग्रोवरजी
जवाब देंहटाएंआपके साथ संवाद बहुत महत्वपूर्ण और आनंददायी है. इसे और लोग भी पढ़ सकें, इसलिए २-३ दिनों में जल्द से जल्द इस पर आपके विचारों सहित एक लेख दूँगा. ऐसी विचारोत्तेजक सार्थक चर्चा के लिए हार्दिक आभार.
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