सोमवार, सितंबर 21, 2009

गुरु-शिष्या-संबंध-2

भारतीय मानुष का मुखय स्वभाव काम और प्रेम विरोधी है. क्रोध के वे उतने खिलाफ नहीं हैं, हिंसा के उतने खिलाफ नहीं हैं, ईर्ष्या, घृणा सब वे सह लेते हैं, लेकिन काम को बर्दाश्त नहीं कर पाते. मैंने आँखों देखा है, अगर बेटी किसी के साथ फँस गयी और गर्भवती हो गयी, तो इज्जत का सवाल इतना बड़ा होता है कि बेटी की मृत्यु की कीमत पर भी इज्जत बचायी जा सके तो आदमी तैयार रहता है ! क्यों ऐसा होता है ? क्या कारण है इसके पीछे?. मेरे खयाल से इसके पीछे का रहस्य यह है कि काम सारे खुराफातों की जड है. गीता की एक पंक्ति है-'कामात्‌ जायते क्रोधः'- काम में बाधा पड ने से क्रोध उत्पन्न होता है. क्रोध का जनक काम है. यह अहंकार, ईर्ष्या, घृणा भी अपने साथ लेकर आता है. जो इतनी बीमारियों का जन्मदाता हो, अगर भारतीय समाज ने उसकी चोटी पकड ी है तो ठीक ही पकड ी है. दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि काम पर लगाम लगाने का उनका तरीका मूढ तापूर्ण है. काम को जबरन दबाया नहीं जा सकता. क्या आपने गौर किया है कि बछड ा जो मस्त और बलवान साँड बनने वाला है, उसका अंडकोष चूड कर उसे बैल क्यों बना दिया जाता है ? क्योंकि साँड के कंधे पर बैलगाड ी का जुआ नहीं रखा जा सकता, साँड उसको लेकर कहीं भाग जायेगा, दुर्घटना करा देगा. लेकिन वीर्य विहीन बैल बेचारे को जो भी लाद दीजिये वह ढोयेगा हमने अपने युवावर्ग को करीब-करीब ऐसा ही बैल बना दिया है. पुरानी पीढ़ी के लोग उनसे अपने जर्जर विचार ढुलवाते हैं. काम का दमन युवावर्ग को बधिया करने जैसा ही कृत्य है. कुछ जीवंत लोग जो दमन को स्वीकार नहीं करते , वे उच्छृंखल हो जाते हैं. इसलिए उच्छृंखलता से बचाने के लिए समाज दमन की शरण में चला जाता है. लेकिन सही रास्ता इन दोनों से भिन्न है. काम दमन की चीज नहीं है, क्योंकि दमन के द्वारा उसे केवल विकृत ही किया जा सकता है, उसका नाश नहीं किया जा सकता. काम की उच्छृंखलता उसे अराजकता और दुख की ओर ले जाती है. काम का केवल रूपांतरण किया जा सकता है. काम को प्रेम में रूपांतरित किया जा सकता है, काम को कई कलाओं में, विज्ञान में, हर प्रकार के सृजन में रूपांतरित किया जा सकता है. यही काम हमारा समाज नहीं कर रहा है. शिक्षा में इसकी कोई व्यवस्था नहीं है. इस दृष्टि से समाज के प्रबुद्ध लोग केवल कहने के लिये प्रबुद्ध हैं. उनके भीतर रूपांतरण की कोई चेष्टा नहीं दिखाई पड ती है. सरकार बेचारी इतनी अच्छी बात कहाँ से सोचेगी ! उन्हें सत्ता की मस्ती और छिनाझपटी से फुर्सत कहाँ ? काम के रूपांतरण की विद्या के अभाव में दमन का सहारा लेना कुछ वैसा ही है जैसे रात में बिजली के अभाव में टायर जलाकर रोशनी पैदा करना. थोड ा प्रकाश मिलेगा, लेकिन उसके जहरीले धुएँ में सबका दम घुटेगा, ऑक्सीजन खत्म होगा और लोग मर जायेंगे.
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट करने की कोशिश की गयी है कि गुरु-शिष्या-संबंध के विरुद्ध होने का मूल कारण काम के प्रति समझदारी की कमी है. इस विरोध को कई रूपों में व्यक्त किया जाता है. जैसे कहा जाता कि गुरु- शिष्या-संबंध की परंपरा शर्मसार हुई है. गुरु-शिष्या-संबंध की बात तो दूर गुरु-शिष्य-संबंध की भी कोई अक्षुण्ण परंपरा नहीं रही इस देश में. परंपरा का मतलब है कि जो चीज चली आ रही हो सदियों से. गुरु-शिष्य-परंपरा तभी से खत्म हो गयी है, जब नालंदा, विक्रमशिला, तक्षशिला आदि विश्वविद्यालय जमींदोज हो गये. मुसलमान आये तो मामूली-सी मुसलमानी शिक्षा चली. अंग्रेज आये तो अंग्रेजी शिक्षा शुरू हुई. इन शिक्षाओं में गुरुकुल जैसा गुरु-शिष्य-संबंध की कल्पना भी नहीं की जा सकती. लेकिन हम संस्कारवश इसी शिक्षा में गुरुकुल की कुछ गुरुभक्ति संबंधी कहानियाँ घुसा कर आत्ममोह के शिकार होते रहे हैं ! गुरुकुल में लड़कियों के पढ ने का उल्लेख कहीं नहीं मिलता है. केवल लड के पढ ते थे. अगर लड कियाँ पढ तीं तो उनके प्रेम-प्रसंगों की कई कहानियाँ प्रचलित हो गयी होंती; क्योंकि पुराना भारत काम और प्रेम के बारे में उदार और समझदार था. इसलिए जब-जब मौका हाथ आया प्रेम की घटना घट गयी. महान्‌ गुरु ऋषि याज्ञवल्क्य ने अपनी शिष्या से ही प्रेम किया. उनकी तीन पत्नियाँ थीं- कात्यायनी, गार्गी और मैत्रेयी. कहा जाता है कि इनमें गार्गी उनकी शिष्या थी. इससे सुंदर उदाहरण और क्या दिया जा सकता है ? आधुनिक युग में भी जो महान्‌ गुरु हुए उनकी भी प्रेमिकाएँ उनकी शिष्याएँ थीं. मैं तो देखने नहीं गया किसी को. लेकिन इसी समाज में भगिनी निवेदिता और विवेकानंद के संबंध के बारे में अफवाहें उड ी थीं. मैंने जे. कृष्णमूर्ति के बारे में शिष्या-प्रेम की कहानी महेश भट्‌ट की आत्मकथा में पढ ी है. यह तो आध्यात्मिक जगत की बात हुई. भौतिक जगत में अपने जमाने में दर्जनों बड े गुरुओं को जानता हूँ जिनके प्रेम-संबंध अपनी शिष्याओं से रहे. सभी समझदार लोग इस सहज प्रेम को स्वीकृति दिये हुए हैं. लेकिन सारी नैतिकता बैल सरीखे लोगों के कंधों पर लदी हुई है. इन बैलों की नजर से बचने के लिये इन लोगों ने अपने प्रेम-प्रसंगों को परदे में रखा है. लेकिन ये बड गुरु पाखंडी नहीं हैं. छोटे-छोटे नासमझ और कुंठित प्रोफेसर, मास्टर आदि ज्यादा शोर मचाते ह,ैं क्योंकि गार्जियन को विश्वास में लेकर जो ये धंधा करते हैं, मेरी घटना ने उनके अभिभावकों को सजग कर दिया है, इसलिए वे मुझ पर खिसियाते हैं. धंधा थोड़ा मंदा पड ा होगा. जो प्रोफेसर-प्रोफेसरनी, मास्टर-मास्टरनी जितने जगजाहिर लुच्चा-लुच्ची और छिनार हैं, वे उतने ही मुझ पर कुपित होते हैं और जो लड कियँा गार्जियन से छिपकर उनको सहयोग करती रही हैं, उन पर संभवतः पहरेदारी लगी होगी, वे भी मुझ पर जहर उगलती हैं. कहीं बिट्‌टू भी इसी श्रेणी की लड की तो नहंीं ? अन्यथा वह इतनी कुपित क्यों होती ? सामान्य लड कियों को क्या मतलब कि कौन क्या करता है ? काम का दमन इस तरह की घटनाओं में बहुत दिलचस्पी पैदा कर देता है. लोग खूब चटखारे ले-लेकर इसकी चर्चा करते हैं. ऐसे लोग अपने को श्रेष्ठ और चरित्रवान दिखलाने की भरपूर कोशिश करते हैं. हकीकत यह होती है कि वे अपने प्रेम-संबधों पर परदा डालकर पाखंडी बन जाते हैं और समाज को धोखा देते हैं. उनके मन में काम और प्रेम के प्रति आदर भाव नहीं होता. वे इसे गलत समझते हैं. यहीं पर उनमें और हममें मूलभूत अंतर दिखाई पडने लगता है. इस अंतर को एक बार फिर रेखांकित कर दूँ. वे जिस काम का मजा लेते हैं, उसी के प्रति हेय दृष्टि रखते हैं और कपट का धुआँ उगल-उगल कर उसमें उसे ढँक देना चाहते हैं. लेकिन हम काम को आदर देते हैं. उसकी ताकत को मानते हैं, उसके रस को जानते हैं और उसे उच्चतर आनंद में रूपांतरित करने के लिए प्रयासशील रहते हैं.
इस संबंध पर कुछ और दृष्टियों से भी विचार करने की जरूरत है.
२१.०९.०९

7 टिप्‍पणियां:

  1. बेशक आपकी बातों में सच्चाई है।याज्ञवल्क्य और गार्गी से भी बहुतेरे लोग परिचित होंगे।निजी तौर पर मैं गुरु शिष्या के प्रेम संबंधों में ऐसा कुछ देखता भी नहीं,जो समाज के लिये अहितकर हो या जिसे वर्ज्य माना जाय। जिन बड़े लोगों की ओर आपने संकेत किया है,शायद उनमें से कुछ को जानता भी होऊँ मैं,लेकिन यकिन जानिये इस तथ्य से उनके प्रति सम्मान में कोई कमी नहीं आई। सिर्फ एक सवाल है मेरा-उन बड़े लोगों में से कितनों ने अपने प्रेम को मीडिया का तमाशा बनाया?जहाँ तक मैं सोचता हूँ,प्रेम एक पवित्र और नितान्त व्यक्तिगत भावना है,फिर इसका सार्वजनिक और कई बार विद्रूप(क्षमा चाहता हूँ, आपको चोट पहुँचाने का कोई इरादा नहीं)प्रदर्शन किस हद तक जायज़ माना जा सकता है?

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  2. मटुक सर मैं आपकी बातों का पूरी तरह समर्थन करता हूँ . लोग हैं तो गधे किन्तु शेर की खाल ओढ़कर दहारने की कोशिश करते हैं . यदि आप बिहार में नहीं होते बल्कि किसी महानगर में होते तो आप इस तरह खलनायक नहीं बनाये जाते . मैं तो कितने प्रोफेसर को देखा हूँ जो अपने क्लास में सुन्दर लड़कियों पर खुले आम लाइन मारते हैं . जो की उनकी बेटी पोती की उम्र की रहती है किन्तु खुले आम छिनारी करने की हिम्मत उनकी नहीं होती . जो लोग आप पर ऊँगली उठा रहे हैं वो सबसे अधिक छिनार होंगे. क्योंकि कल तक वे लाइन मर रहे थे नैनसुख ले रहे थे और जब आप जुली के साथ रहने लगे तो उन लड़कियों के माँ बाप सतर्क हो गए और अपने अपने बेटियों पर पाबन्दी लगा दिए होंगे . बेचारों का लुच्चा पण बीच में ही रह गया . इसलिए उनलोगों ने इस सरे फसाद के लिए आपको ही दोषी ठहराया की क्या जरुरत थी खुले आम जुली को अपने साथ रखने की चुपचाप रखता . इसके कारन मेरा धंधा भी चौपट हो गया.
    बुरा मत मानियेगा मैं बेगुसराई का हूँ और खड़ी खड़ी लिखने में संकोच नहीं रखता . पटना आऊंगा तो आपसे मिलूंगा . मैं आपसे हिंदी पढना चाहता हूँ और भी बहुत सारे बातों पर चर्चा करूंगा . जुली दीदी ठीक है न.

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  3. प्रिय दीपराज बिहारीजी
    आपकी टिप्पणी पढ़कर बहुत हँसा. मजा आया. मेरा प्रेम स्वीकार करें.

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  4. आदरणीय राजीवजी,
    हमारे जीवन के बारे में बहुत सारी जानकारियाँ न होने के कारण यह प्रश्न उठा है. यह प्रश्न और भी अनेक लोगों का प्रश्न है, इसलिए उस पर एक लेख बहुत जल्द दूँगा. आभार.

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  5. मटुजी आप जो कुछ कर रहे हैं वह आपका व्यक्तिगत जीवन है मुझे आपत्ति इस बात पर है कि आप हिन्दू दर्शन, परम्परा और गुरू शिष्य़ परम्परा को केवल अपने सन्दर्भ में परिभाषित करने के लिये लोगों को अर्ध सत्य बताकर गुमराह कर रहे हैं। गीता में जिस काम की बात आपने की है वह लिविडो नहीं कामना है और इसका अर्थ है कि कामना अर्थात इच्छाओं की पूर्ति नहीं होने से क्रोध उत्पन्न होता है और व्यक्ति की कामना केवल लिविडो ही नहीं है।

    मेरा आपसे केवल इतना ही आग्रह है कि गीता, स्वामी विवेकानन्द को इस बह्स में मत घसीटिये क्योंकि गीता का मह्त्व हिन्दू समाज में काम की व्याख्या के लिये नहीं है और न ही हिन्दू समाज स्वामी विवेकानन्द को उनके और भगिनी निवेदिता के बीच की अफवाहों के लिये जानता है। परंतु आपको सारा समाज तो केवल एक उपलब्धि के लिये जानता है। बेहतर होगा कि आप फ्रायड की भाँति लिविडो और अपने जीवन के सन्दर्भ में हिन्दू दर्शन और हमारे प्रेरणा पुरुषों की व्याख्या न करे बाकी आप अपने व्यक्तिगत जीवन में जो मर्जी आये करें।

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  6. ऐसे लोग हर धर्म में भरे होते है जो धार्मिक बातों और धार्मिक व्यक्तियों को एक सूरक्षा कवच दिये होते हैं कि इनको हाथ मत लगाओ। बाकी चाहे आप जो करो लेकिन धर्म पर सवाल मत उठाओ, गुरु जी पर सवाल मत उठाओ। अरे भईये अगर किसी को प्रश्न का उत्तर तलाशना होगा तो सबसे पहले तो वो गुरु पर हीं सवाल उठाएगा। जो उटपटांग धार्मिक वकवास उसको बचपन से पेल दिया गया है उस पर सवाल उठाएगा। तब न वह ज्ञान प्राप्त करेगा। ऐसे बेबकुफों के कारण हीं धार्मिक कर्म कांड का इतना बोलबाला हो गया है और लोग धर्म भूल गये हैं।

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  7. The whole idea is why should the society be interested in the personal life of individuals. I feel that there should be a larger debate on the issue. Say, a sort of referendum, atleast on the internet it could be done.

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