पश्चिम के लोग तनाव दूर करने के लिए भारत आते हैं. आश्चर्य है, वही भारत तनाव दूर करने की दवा पश्चिम में खोज रहा है! तनाव देने वाली वर्तमान शिक्षा यूरोप से आयी है और ग्रेड भी वहीं से आया है! बात कितनी हास्यापस्द है कि दसवीं कक्षा में बोर्ड परीक्षा का तनाव दूर करने के लिए सी.बी.एस.ई के अध्यक्ष, यशपाल कमिटी और केन्द्रीय शिक्षा मंत्री ग्रेड की शरण में चले गये हैं ! असल में जिनका मस्तिष्क किसी खास साँचे में ढल गया है, उनके लिए उससे बाहर निकलकर सोचने का कोई उपाय ही नहीं रह जाता है. अंक की जगह ग्रेड रख देने से तनाव कैसे दूर हो सकता है? वह भी उस ग्रेड से जिसका आधार अंक हो? ग्रेड की नींव अगर अंक ही है, तो क्या फायदा? क्या ए-वन ग्रेड हर बच्चा नहीं लाना चाहेगा? ए-टू वालों को क्या हताशा हाथ नहीं लगेगी ? सौ अंकों को नौ श्रेणियों में बाँट दिया गया है. शेष ए-वन को छोड़कर आठ श्रेणी पाने वाले क्या खुश हो सकेंगे ? श्रीमान् शिक्षामंत्री, तनाव का कारण न अंक है और न ग्रेड. तनाव का कारण है होड , दूसरों से आगे निकलने की दौड , दूसरों को पीछे करने की प्रतिस्पर्द्धा. तनाव का दूसरा बड ा कारण है यह ढाँचाबद्ध एक समान पाठ्यक्रम जो विविध प्रकार के छात्रों पर आरोपित है. तनाव का कारण है अपनी क्षमता को पूर्णतः प्रकट न कर पाने की विवशता. तनाव दूर करने का एक ही रास्ता है कि बच्चों के भीतर जो बीज छिपा है, उसको खिला दें. जो क्षमता लेकर वह अस्तित्व के घर से आया है, उसे विकसित कर दें. ऐसा किये बिना कोई उपाय नहीं हो सकता जिससे बच्चों का तनाव दूर किया जा सके. अंग्रेजी के 'एजुकेशन ' शब्द का अर्थ है टू एजुकेट, टू डा्र आउट अर्थात् बाहर निकालना. यानी जो भीतर छिपा है, उसे बाहर निकालना. आपकी शिक्षा की धारा ठीक इसके विपरीत 'टू पुश इन' है. अर्थात् जो बाहर है, उसे भीतर ठेल दो. जितना बाहर में कचरा है उसे स्मृति के माध्यम से भोले बच्चों के भीतर भेज दो ! जिस समय आदमी अपनी छिपी प्रतिभा को प्रकट करता है, उसी समय आनंद से भरता है. तुलना का तो प्रश्न ही नहीं है, क्योंकि सभी बच्चे अतुलनीय हैं. कोई किसी से न बड़ा है और न छोटा. सभी अद्वितीय और विलक्षण हैं. उस विलक्षणता को प्रकट करने में ग्रेड की क्या भूमिका है ? ग्रेड तो किसी की तुलना में किसी को बड ा और किसी को छोटा बतलाता है.
इस शिक्षा में हमारे बच्चों की स्थिति उस गर्भवती स्त्री की तरह है जिसके पेट में बच्चा न तो बढ रहा है और न जन्म ले रहा है. कितनी भयावह और पीड ादायी स्थिति उस स्त्री की हो सकती है जब वह वास्तव में उस अवस्था में चली जाय. आत्महत्या करने के सिवा कोई उपाय बचेगा ? हमारे जो बच्चे आत्महत्या नहीं भी करते हैं, वे भी न खिल पाने के कारण मरे हुए के समान ही जीते हैं. .
हमारे देश में ऋषि-मुनि हुए. हमें वेदों, उपनिषदों पर बहुत गर्व है. हम उनका नाम लेकर दुनिया वालों के सामने अपने को विश्वगुरु सिद्ध करना चाहते हैं. लेकिन जब व्यवहार की बात आती है तो हम पश्चिम को ही अपना गुरु बना लेते हैं. हमारे देेश में आधुनिक युग में भी एक से एक मौलिक शिक्षाविद् हुए- रामकृष्ण-विवेकानंद, योगीराज अरविन्द, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, महात्मा गाँधी, जे. कृष्णमूर्ति , ओशो आदि. इन्होंने शिक्षा कैसी होनी चाहिए इस पर चिंतन और प्रयोग किये हैं. लेकिन हमारे शिक्षा के वर्तमान भाग्य विधाता भूल से भी उपर्युक्त ऋषियों का नाम तक नहीं लेते. जो हमारे उद्धारक हैं, उन्हीं के पास जाने में हम भयभीत हैं. निश्चय ही शिक्षा के बाह्य जगत का ज्ञान हासिल करने के लिए कुछ दिनों तक हमें पश्चिम का मुँह जोहना पड सकता है, क्योंकि इस क्षेत्र में वे हमसे आगे हैं, लेकिन अन्तः जगत के ज्ञान के लिए अपना भारत ही काफी है. शिक्षा में उसकी भीषण उपेक्षा हमने की है. जब तक हम अपने स्वरूप को जानने की दिशा में आगे नहीं बढ ेंगे, तब तक उसी तरह तनाव और और विक्षिप्तता की ओर अग्रसर होंगे जिस तरह पश्चिम के लोग हो रहे हैं. सब कुछ हमारे पास है और हम उसे भूल बैठे हैं. पानी में हम खड़े हैं और प्यासे हैं. शिक्षा में इस तरह के निरर्थक प्रयोग बंद होने चाहिए.सिब्बल की सदाशयता पर संदेह नहीं है, लेकिन हैं वे पेशे से वकील. शिक्षा का मर्म वे क्या जानें ! ग्रेडिंग सिस्टम सार्थक तब होता है जब वह अंक से पूरा नाता तोड़ ले. पूरा नाता तभी तोड ा जा सकता है जब पूरे देश में हर शिक्षण संस्थानों में एक समान ग्रेड लागू हो. थोड े-बहुत परिवर्तन के साथ जो अंतिम ग्रेड लागू होने जा रहा है उसमें पाँच वर्णों की क्या जरूरत है ? केवल तीन से काम चलेगा- ए, बी और सी. इनके तीन-तीन भेद करने से ९ ग्रेड हो जाते हैं. इनके लिए जो हिन्दी नामकरण हैं, उनमें तार्किक अन्विति नहीं है. ए-वन को 'अतुल्य' कहा गया है जबकि एक-एक बच्चा अतुल्य होता है. 'बहुत अच्छा' और 'उत्कृष्ट' में क्या फर्क है ? बेहतर बेटर का अनुवाद है, अच्छा उससे श्रेष्ठ कैसे हो जायेगा ? मैंने इसका पहले के लेख में तर्कसंगत नाम दिया है. यहाँ उसे तुलनात्मक नजर डालने के लिए प्रस्तुत किया जा रहा है -
सीबीएसई का ग्रेड हिन्दी नामकरण मेरे द्वारा निर्धारित नामकरण ग्रेड
ए-१ अतुल्य उत्तमोतम ए-१
ए-२ उत्कृष्ट उत्तमतर ए-२
बी-१ बहुत अच्छा उत्तम ए-३
बी-२ अच्छा मध्यमोत्तम बी-१
सी-१ बेहतर मध्यमतर बी-२
सी-२ औसत मध्यम बी-३
डी औसत से कम निकृष्ट सी-१
ई-१ सुधार की जरूरत निकृष्टतर सी-२
ई-२ संतोषजनक नहीं निकृष्टतम सी-३
'सुधार की जरूरत' कहाँ नहीं रहती ? फिर खास ग्रेड को यह नाम देने का मतलब ? जब सीबीएसई ग्रेड का पैटर्न भी तर्कसंगत नहीं बना सकती है, तो शिक्षा के मूलभूत सिद्धान्तों को लागू करने की आशा हम उनसे कैसे कर सकते हैं ?
मटुक नाथ चौधरी
८.०९.०९
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