शनिवार, सितंबर 05, 2009

प्राथमिक शिक्षा सर्वाधिक महत्वपूर्ण

बड़े-बड़े मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि बच्चों को जीवन में जितना सीखना है, उसका आधा वह चार वर्ष तक की उम्र में ही सीख लेता है. अगर यह सच है, तो हमें अपने शिक्षा मद का आधा खर्चा इस उम्र तक की शिक्षा में लगाना होगा. परिवार में प्रथम शिक्षक माता पिता ही होते हैं. इसलिए माता-पिता को एक सुयोग्य शिक्षिका-शिक्षक के रूप में तैयार करना होगा. अच्छा तो यह होगा कि जो भी व्यक्ति सुयोग्य शिक्षक-शिक्षिका बन सकेंगे, उन्हें ही संतानोत्पत्ति का अधिकार दिया जाय. बिना इस लाइसेंस के बच्चों को जन्म देना गुनाह माना जाय. माता को प्रशिक्षित करने के लिए ‘यशोदा मैया शिक्षा परियोजना’ लागू की जाय. जब तक माँ यशोदा के वात्सल्य की गहराई को न पा सकेगी, तब तक कान्हा कृष्ण नहीं बन पायेगा. बच्चों का स्कूलों में नाम लोग आमतौर पर चार या चार वर्ष के बाद ही लिखाते हैं. आधा वह बन ही गया, तब क्या फायदा ? तब तो जो गलत-सलत बच्चे ने सीख लिया होगा, उसे मिटाना पड़ेगा. मिटाना बहुत कठिन है. खर्चीला भी बहुत है. इसलिए ऐसी व्यवस्था हो कि मिटाने की नौबत ही न आये. ऐसे ‘शिशु खेल विद्यालय’ खोले जायँ जिसमें दो वर्षों के बच्चों का नामांकन हो. उसमें केवल दिलचस्प खेल चलेंगे, संगीत चलेगा, नृत्य चलेगा, चित्र बनेंगे. बच्चों का उत्सव रहेगा. यह इतना दिलचस्प होगा कि बच्चा छुट्टी के वक्त भी घर जाना न चाहे और स्कूल के टाइम में आने के लिए तत्पर रहे. संगीत, नृत्य, चित्र, मूर्ति, क्राफ्ट तथा तरह-तरह के खेल आदि के द्वारा ही धीरे-धीरे उन्हें भाषा, गणित, विज्ञान, समाज विज्ञान आदि की शिक्षा दी जाये. ध्यान इतना हमेशा रखना है कि वह पढ़ाई जैसा न लगे. क्या आपको लगता है कि इस कोटि की पढ़ाई ढोढ़ाय मँगरू गुरुजी से संभव है? कतई नहीं. इसके लिए अच्छे मनोवैज्ञानिकों, कलाकारों और दक्ष शिक्षकों की जरूरत पड़ेगी. क्या आप सोचते हैं कि इतने बड़े शिक्षक और मनोवैज्ञानिक फोकट में मिल जायेंगे ? कभी नहीं. ऐसे शिक्षक तभी मिलेेेंगे जब उनका वेतन उच्चतम होगा. विश्वविद्यालय के प्रोफेसर से ज्यादा, क्योंकि सबसे कठिन कला है छोटे बच्चों को पढ़ाना. ज्यों-ज्यों क्लास ऊपर होता जाता है, उतना ही आसान होता है उसे पढ़ाना. सबसे आसान है एम.ए को पढ़ाना. लेकिन हमारे यहाँ उल्टी धारा बहती है. जो एम.ए. को पढ़ाते हंैं, वे अपने को बड़ा भारी प्रोफेसर समझते हैं और नर्सरी को पढ़ाने वाले को ढोढ़ाय मँगरू गुरुजी. अगर सच्चे अर्थों में राष्ट्र का निर्माण करना है, तो इस स्थिति को पलट देना होगा. मौलिक ‘शिशु खेल पाठशाला’ खोलनी होगी. इस तरह की पाठशालाओं में पढ़ाने के लिए अभी शिक्षक नहीं हैं, उन्हें तैयार करना होगा. पहले कुशल नवीन शिक्षकों की फौज तैयार हो, नये सुसज्जित स्कूल भवन बनाये जायँ, तब दाखिले का कार्यक्रम शुरू हो. मजबूत नींव पर ही सुंदर और ऊँची इमारत खड़ी हो सकती है. अभी उल्टे पिरामिड जैसी हमारी शिक्षा की इमारत है. भूकंप को कौन कहे, तेज हवा का झोंका सहने में भी वह समर्थ नहीं हैं. हमारे प्राथमिक विद्यालय गाछ के नीचे चल रहे हैं, एक-एक स्कूल में तीन-तीन स्कूल चल रहे हैं. खिचड़ी में पिल्लू वाले स्कूल हैं. इसका परिणाम है कि सचिवालय के प्रधान सचिव को पढ़ाना पड़ता है. उन्हें सहायक महोदय को श्ुाद्ध टिप्पणी लिखना सिखाना पड़ता है और मुझ जैसे शिक्षक को काॅलेज मंेे ककहरा बताना पड़ता है. जो सरकार इस शिक्षा पर ध्यान देगी और उसे उन्नत करने के लिए जी जान लगायेगी वही विकासशील सरकार कहलायेगी और मुख्यमंत्री विकास पुरुष. इसके बिना विकास पुरुष कहलाना टूथपेस्ट के विज्ञापन सरीखा झूठा होगा. मटुक नाथ चैधरी

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