मंगलवार, सितंबर 01, 2009

प्रेम और पूजा

`दारूम उलूम´ नामक इस्लामिक संस्था से पफतवा आया है कि हम भारत से प्रेम तो करते हैं, लेकिन उसकी पूजा नहीं कर सकते. कारण, `वंदे मातरम्´ नामक राष्ट्रगीत में भारत की तुलना ईश्वर से की गयी है और उसकी पूजा की बात की गयी है. यह इस्लाम के विरु( है. वह एक अल्लाह की इबादत की इजाजत देता है. मैं समझने की कोशिश करने लगा कि मुल्ला प्रेम किसको कह रहा है और पूजा किसको कह रहा है भारत से प्रेम का क्या मतलब क्या राष्ट्रगीत से प्रेम राष्ट्रीय झंडे से प्रेम भारत के नक्शे से प्रेम देश-प्रेम का अर्थ क्या मेरी समझ में देश-प्रेम का अर्थ है देश के एक-एक व्यक्ति से प्रेम, पशु-पक्षियों से प्रेम, वनस्पतियों से प्रेम, नदी-नालों, झरनों और पहाड़ों से प्रेम. लेकिन इतना विराट प्रेम एकाएक पैदा नहीं हो सकता. इतने बड़े प्रेम का बीज दो व्यक्तियों के प्रेम में निहित हो सकता है. वही प्रेम अगर सही दिशा में, सही ढंग से पफैले तो देश-प्रेम में बदल सकता है. ऐसा देश-प्रेम जिनके भीतर आएगा, वह विश्व-प्रेम से कैसे बच पायेगा! विश्व-प्रेम अर्थात् समग्र से प्रेम अर्थात परमात्मा से प्रेम. जो किसी व्यक्ति से प्रेम नहीं करता हो और देश-प्रेम की बात करता हो, उसे ठीक से देखिये, वह ढोंगी देश-प्रेमी होगा. इस्लाम के एकेश्वरवाद का अर्थ है कि ईश्वर एक है. यानी इस अनंत ब्रह्मांड में ईश्वर छोड़कर कुछ है ही नहीं- `सर्वं खलु इदं ब्रह्मं.´ जो कुछ है, वह ब्रह्म है. जब अल्लाह एक है तो क्या भारत-भूमि उस अल्लाह से बाहर है अगर अल्लाह बाहर है, तब तो वह छोटा हो गया ?क्या वह केवल इस्लामिक देश में रहता है? मिस्जद में रहता है, तब तो वह और छोटा हो गया! आदमी जितना छोटा होता है, उसका अल्लाह और परमात्मा भी उतना ही छोटा होता है. परमात्मा या अल्लाह का अवतरण कभी कृष्ण में, कभी व्रफाइस्ट में और कभी मुहम्मद में होता है. ऐसे जाग्रत व्यक्ति की आँखों में ईश्वर की आभा होती है. उनके शब्दों में संगीत होता है. उनके साथ होने में जीवन का आनंद है. लेकिन जब वह परमात्मा सदृश व्यक्ति विदा हो जाता है, तब हम उन्हें गीता, बाइबिल और कुरान के शब्दों में खोजने लगते हैं. वहाँ ध्र्म नहीं ध्र्म की निशानी हैे. हम उसकी पूजा शुरू करते हैं. इस पूजा में हम कुछ भी दाँव पर नहीं लगाते. हमारा केवल सिर झुकता है, हृदय नहीं झुकता. पूजा हमारे लोभ का, भय का, अहंकार का विषय हो जाती है. हम बारिश के लोभ में नमाज अदा करने लगते हैं. दोजख के भय से सिजदा करते हैं. प्रतिष्ठा पाने के लिए और अपने केा श्रेष्ठ दिखाने के लिए मंदिर-मिस्जद जाते हैं. बेईमानी को छिपाने के लिए प्रार्थना करते हैं. ध्र्म एक प्रचार हो जाता है. यह विज्ञापन की एक कला, शोषण का एक औजार बन जाता है. वास्तविक प्रेम और पूजा एक ही चीज के दो छोर हैं. प्रेम आरंभ है, पूजा अंत. प्रेम ही निखरते-निखरते जब शु( हो जाता है, तो पूजा में बदल जाता है. प्रेम का निखरना क्या है, जरा इसे समझने की कोशिश करें. प्रेम का आरंभ वासना से होता है. वासना अपने साथ कई गंदगियों केा लेकर आती है. उनमें एक है ईष्र्या. ईष्र्या का मतलब है कि जिससे हम प्रेम करते हैं, वह अगर किसी और से प्रेम करने लगे तो आग लग जाती है. इस आग को बुझाने के लिए नासमझीवश हम हिंसा का सहारा लेते हैं. प्रिय पात्रा को सताने लगते हैं. डरा-ध्मका कर, मार-कूट कर उस पर कब्जा करना चाहते हैं, या उसे नष्ट ही कर देना चाहते हैं. दूसरी बीमारी हिंसा हुई, तीसरी मालकियत आदि. इस तरह अनेक बीमारियाँ पैदा हो जाती हैं और हम भारी कष्ट में पड़ जाते हैं. तब हम कहने लगते हैं कि प्रेम गलत है. प्रेम गलत नहीं है, हमारे प्रेम करने का ढंग गलत है. प्रेम ही एक ऐसी उफर्जा है जो आदमी की बनायी हुई नहीं है, यह परमात्मा की देन है. वासनात्मक प्रेम में भी हमें थोड़ी-सी परमात्मा की झाँकी मिल जाती है. उस प्रेम में भी क्षण भर हम इस मन:स्थिति में चले जाते हैं जब ध्न, देह आदि का मोह छूटने लगता है. क्षण भर के लिए हमें होश नहीं रहता. अहंकार घुलने लगता है. वह आनंद की घड़ी ही परमात्मा की झलक है. प्रेम हमारी आत्मा का भोजन है. जैसे शरीर भोजन के बिना नहीं जी सकता है, वैसे ही आत्मा प्रेम के बिना नहीं जी सकती. इसीलिए हम प्रेम पाने के लिए इतने व्याकुल रहते हैं. देश के एक अरब से अिध्क लोगों को अपने-अपने ढंग से प्रेम करने और प्रेमगीत या राष्ट्रगीत लिखने और गाने का हक है. इसके लिए कोई किसी पर दबाव नहीं डाल सकता. आपको `वंदे मातरम्´ में कमी दिखती है, मत गायें. आप अपना प्रिय राष्ट्रगीत खोजें या बनायें. लेकिन औपचारिक समारोह का एक नियम होता है, उस नियम का पालन करना शिष्टाचार है. मैं औपचारिक समारोह की गिनती जीवंत राष्ट्र-प्रेम से नहीं करता हूँ. लेकिन जब ंसमूह में गाना हो तो लाखों गानों में एक राष्ट्रगान चुनना होगा. अगर वर्तमान राष्ट्रगान पसंद न हो तो बहुमत से संविधन में परिवर्तन कर दें और नया गान चुन लें. जरूरी नहंीं सालों साल एक ही गीत गाया जाय. लेकिन छोटी-छोटी बातोें के लिए झगड़ा न करें. देश में अनेक जटिल समस्याएँ हैं, उन्हें दूर करने में वक्त लगायें, खुद समस्या न बनें. मैं यह बात इसलिए कह रहा हूँ कि दुनिया में दो ही बड़ी समस्याएँ हैं- गलत राजनेता और गलत धर्मिक लोग. ध्रती पर इतनेे खून इन्हीं के कारण बहे हैं. लादेन वगैरह इनकी तुलना में छोटे आतंकवादी हैं. हमारे भीतर जो प्रेम के नाम पर पाखंड और पूजा के नाम पर साम्प्रदायिकता छिपी हुई है, उन्हें पहचानें. उनके विदा होते ही देश की समस्याएँ विदा होंगी. अंत में, प्रस्तुत है एक पिफल्मी गीत. लड़की कहती है लड़का से- `मैं तुझसे मिलने आयी मंदिर जाने के बहाने. बाबुल से झूठ बोली, सखियों से झूठ बोली.´ इस पर लड़का उसको असली बात समझाता है- `ओ भोली, तू झूठ कहाँ बोली, प्यार को ही पूजा कहते हैं, प्यार के ये दीवाने.´ तो हे भाई, प्यार ही पूजा है. यह बात अच्छी तरह जान लीजिए, बस एक बार मेरा कहा मान लीजिए.
10.08.09

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