मंगलवार, सितंबर 01, 2009
रैगिंग : शिक्षा का विषफल
जैसे अंग्रेजी दवा बहुत सारी बीमारियों को दबा देती है, तात्कालिक राहत तो देती है पर जड़ से बीमारी दूर नहीं करती, उसी तरह रैगिंग रूपी रोग का ठीक-ठीक इलाज न कानून में है और न प्रशासन में. वह उसके लिए अंग्रेजी दवा है. अगर प्रशासक चुस्त हो तो कुछ समय के लिए वह दबा दिया जायेगा लेकिन मौका पाकर, वेश बदलकर वह पुन: प्रकट होगा. रैगिंग तो बुखार मात्रा है जो सूचना दे रहा है कि अंदर शिक्षा में बीमारी है. पटने के एक होम्योपैथिक डॉक्टर ने मुझे बताया कि मैं रोेग का नहीं रोगी का इलाज करता हूँ. रोगी कुछ गलत आदतें विकसित कर लेते हंै जिनसे रोग पैदा होते हैं. इसलिए मैं उन अप्राकृतिक आदतों को बदलवा देता हूँ. इससे रोग दूर होने लगता है. बात तो ठीक है. रैगिंग तो लक्षण मात्रा है उस बीमारी का जो वर्तमान शिक्षा में है. यह शिक्षा हमें जहर देती है कि तुम दूसरों से श्रेष्ठ बनो. यह शिक्षा यह नहीं कहती है कि तुम जो हो वह बन जाओ और वैसा बनाने के लिए मैं तैयार हूँ. तब तो व्यक्ति की संभावना को ध्यान में रखकर शिक्षा बदलनी होगी. लेकिन इसके पास एक ही यांत्रिाक पाठ्यव्रफम है, उसी से भिन्न-भिन्न क्षमताओं और संभावनाओं वाले विद्यार्थियों को गुजरना है और जो उनमें प्रथम आ जाय उनको सम्मानित करना है. दीक्षांत समारोह में उसे गोल्ड मेडल देना है. पिफर तो प्रथम आने की दौड़ शुरू हो जाती है. अव्वल आने के लिए दूसरों को पछाड़ना जरूरी है. चाहे जो भी रास्ता अख्तियार करना पड़े किसी तरह पफस्र्ट आना है. पफस्र्ट होने से अहंकार मजबूत हो जाता है- मैं दूसरों से श्रेष्ठ! जब अव्वल आने वालों को ही हम सम्मानित करेंगे, तो बचे बच्चे क्या करेंगे. पफस्र्ट तो कोई एक ही होगा. शेष लोग टुकुर-टुकुर ताकेंगे नहीं. उनके भीतर जो दबी हुई क्षमता है वह उपद्रव में रूपांतरित होती है. आखिर शेष लोगों को भी तो खुद को श्रेष्ठ साबित करना है! खुद को श्रेष्ठ साबित करने के लिए वह हिंसक रास्ता अख्तियार करता है. बलपूर्वक बादशाह बन जाता है. वह जो कहे उसका हुक्म जूनियर माने. वह दूसरों को डरा रहा है और दूसरा डर रहा है. दूसरों को आदेश दे रहा है और दूसरा उसका पालन कर रहा है. यह रही बादशाहत! असली शिक्षा वह है जो शील और विनम्रता पैदा करे. विद्या की पहचान ही है जो विनय दे- ‘विद्या ददाति विनयम’्. विनय क्या है? जो अपने समान दूसरों को समझे. अपने समान दूसरों को समझने से व्यक्ति किसी से भी वही व्यवहार करता है जिसकी अपेक्षा वह उससेे रखता है. यही विनय है, यही नैतिकता है, यही चरित्रा है. रैगिंग करने वालों का मनोविज्ञान कोई नहीं पढ़ता. मनोविज्ञान विभाग को मन का विज्ञान पढ़ने से कोई मतलब नहीं है. साहित्य विभाग को संवेदना से कोई मतलब नहीं है. सभी विभागों के पास एक ही यांत्रिाक पाठ्यव्रफम है, रोबोटनुमा विद्यार्थी हैं, राजनीतिज्ञ इस प(ति के जनक हैं और शिक्षक पालनहार हंै. रैगिंग के मनोविज्ञान को समझने के लिए एक आँखों देखी घटना पर ध्यान दिलाना चाहूँगा. मैं पटना कॉलेज में इंटर द्वितीय वर्ष का छात्रा था. मिन्टो हॉस्टल में रहता था. दस बजे सोना और चार बजे सुबह जगना मेरा अभ्यास था. अचानक एक दिन बारह बजे रात में मुझे एक सज्जन सहपाठी ने जगाया और कहा कि अमुक कमरे में द्वितीय वर्ष के कुछ दबंग लड़के प्रथम वर्ष के लड़कों का रैगिंग कर रहे हैं. उस समय मैं रैगिंग का अर्थ नहीं जानता था. साथी ने बताया- -‘तंग कर रहा है, उठक-बैठक करवा रहा है, गंदी हरकत कर रहा ह’ै. यह सुनकर मुझे व्रफोध् आया. लेकिन उतने दबंगों से लड़ा भी नहीं जा सकता था. इसलिए मैंने कहा-सुबह हमलोग अध्ीक्षक से इसकी शिकायत करेंगे और सो गया. दबंगों को इसकी खबर लगी. उनको पता था कि भले मैं मारपीट न करूँ लेकिन किसी दबंग के दवाब में आने वाला नहीं हूँ. उन लोगों ने सोचा कि मुझे अपने ग्रुप में शामिल कर लेंगे तो सुरक्षित रहंेगे. वे मेरे कमरे में आये और जगाया. ही-ही करते हुए कहा- मटुक भाई, चलिये न उस कमरे में. बहुत मजा आयेगा. मैंने कहा- मुझे मालूम है कि आपलोग वहाँ क्या कर रहे हैं. यह गलत है. इसे अभी बंद कीजिए, वरना मैं कल शिकायत करूँगा. ‘अरे नहीं, हमलोग सिपर्फ परिचय ले रहे हैं. आप खुद बैठकर देखिये, इसीलिए तो आया हूँ. मैंने कहा- अगर परिचय लेना है तो रात में क्यों, दिन में लीजिए. ‘अरे भाई, दिन में क्लास रहता है. सभी इध्र उध्र रहते हैं. अभी सब इकट्ठे मिल जायेंगे’. मैंने सोचा- मेरी उपस्थिति से शायद ये उन्हें कम तंग करें. इसलिए चला गया. वहाँ जो कुछ देखा वह अत्यंत दुखदायी था. बेचारे पफस्र्ट इयर के नये-नये दूर-दराज से आये बच्चे. सभी अनभिज्ञ, डरे हुए. उन्हें डराने में इन्हें रस था. रौब झारने का रस था. गंदे प्रश्न पूछने में रस था- एक रस जो सबके भीतर तड़प रहा था और जो खुलकर सामने नहीं आ पा रहा था, वह था नंगा करने का और समलैंगिक संबंध् स्थापित करने का रस. अहंकार, इससे उत्पन्न परपीड़ा-रस और यौन विकृति यही है रैगिंग का सार. ये सारी बीमारियाँ हमारी शिक्षा पैदा कर रही है. पंजाब विश्वविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, भोपाल विश्वविद्यालय, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालयों के साथ ही पटना विश्वविद्यालय में भी रैगिंग की घटनाएँ घटीं. लेकिन इनमें एक अंतर देखा गया. जहाँ अन्य विश्वविद्यालयों एवं कॉलेजों के प्रधनों ने इसकी निन्दा की, कड़ी कार्रवाई का आश्वासन दिया और कार्रवाई की भीऋ वहाँ पटना कॉलेज ने उसके छिपाव और बचाव का रास्ता अख्तियार किया. ‘सन्मार्ग’ में पीड़ित लड़के की पीठ दिखलायी गयी है जिसमें रॉड से पिटाई के दो लाल निशान नीचे और उफपर बड़ा सा लाल ध्ब्बा दिखता है. कोई भी इसे देखकर सिहर उठेगा, केवल प्राचार्य को छोड़कर. जब मीडिया ने इसे उजागर किया तो प्रशासन कहने लगा कि यह रैगिंग का मामला नहीं आपसी रंजिश का परिणाम है. आपसी रंजिश कह देने से क्या छात्राों की पीठ की पीड़ा कम हो गयी? या अपराध् छोटा हो गया? या प्रशासन की लापरवाही कम हो गयी? या कॉलेज की गरिमा बच गयी? कॉलेज और विश्वविद्यालय की समझ है कि कुकृत्यों पर परदा डाल देने से गरिमा बच जाती है. ये कुकृत्य के कारणों तक पहुँचने का कष्ट नहीं करते, उन्हें दूर करने का उपाय नहीं सोचते. उनकी सारी शक्ति उन्हें ढँकने में लगती है. ऐसा करके वे विश्वविद्यालय की गरिमा की रक्षा करते हैं. मुझे एक कहानी याद आ रही है जो विश्वविद्यालय के कृत्यों पर सटीक बैठती है. यशपाल की एक कहानी है ‘पफूलो का कुर्ता’ जो सबसे पहले मैंने अपने व्रफांतिकारी मित्रा डWा. महेश्वर शरण उपाध्याय से सुनी थी- कहानी है कि ५-६ साल की एक बच्ची का ब्याह २५ साल के एक जवान से होता है. एक-दो साल के बाद जब पति गौना कराने ससुराल आते हैं तो उनकी पत्नी अपनी हमउम्र बच्चियों के साथ बाहर कहीं खेल रही होती है. गाँव-देहात मेंे पहले छोटे-छोटे बच्चे प्राय: नंग-ध्ड़ंग खेलते थे. उस विवाहित बच्ची ने भी केवल घुटने तक प्रफॉक पहन रखी थी. नीचे पैंटी वगैरह कुछ नहीं थी. उसकी जरूरत भी नहीं थी. उतने से काम चल रहा था. अचानक उसकी सहेली ने बताया कि देखो, तुम्हारा पति आया है. वह लड़की शरमा गयी और झट से अपना प्रफॉक उठाकर मुँह ढँक लिया. बच्ची नादान थी. उन्हें क्या पता था कि मुँह छिपाने की कोशिश में कौन सी बेशकीमती चीज उघड़ गयी है! विश्वविद्यालय भी उसी बच्ची की तरह नादान है. वह छोटी चीज ढँकता है और उससे बड़ी चीज उघड़ जाती है! इस अँध्ेर युग में कहीं भी नहीं जल रहा है कोई चिराग. कहीं से भी नहीं उठ रही है यह आवाज कि इसस कुत्सित शिक्षा को बदलो- एड्स से ज्यादा भयंकर है यह!
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