राजनीति ही मनोरोग है!
भ्रष्टाचार को मनोरोग कहना मुख्यमंत्राी जी का समझ की दिशा में उठाया गया पहला कदम है. दूसरा कदम तब माना जायेगा जब उन्हें पद-लिप्सा भी मनोरोग मालूम पड़ने लगेगी. प्रतिष्ठा पाने की प्रबल प्यास तीसरा मनोरोग है. तीन कदम चलने पर ये तीनों मनोरोग दिख जाते हैं- पैसा, पद और प्रतिष्ठा. राजनीति इन्हीं तीन मनोरोगों के चक्कों पर चल रही है, इसलिए राजनीति ही मनोरोग है! जीवन पैसे के बिना नहीं चल सकता. हमें भोजन चाहिए, वस्त्रा चाहिए, आवास, शिक्षा और औषध् िचाहिए जो पैसे के बिना नहंीं हो सकते. पैसे से हमारी सेवा होती है. पैसा हमारे लिए है, लेकिन जब हम पैसे के लिए हो जाते हैं तब यह मनोरोग हो जाता है. पैसे की अनंत भूख रोग है. पैसे की गुलामी रोग है. जो पैसे के पीछे पागल है वह भूल जाता है सुस्वादु भोजन का स्वाद. वह हड़बड़ में कुछ निगलेगा और काम पर भागेगा या भागते हुए मुँह में कुछ डालता जायेगा. ध्नरोगी भूल जाता है विश्राम का सुख, भूल जाता है सगे संबंध्यिों, इष्ट-मित्राों से बातचीत का रस. उसके पास ध्यान के लिए समय नहीं है, अच्छी पुस्तकें पढ़ने के लिए समय नहीं है, सत्संग के लिए समय नहीं है, बच्चों के साथ खेलने के लिए समय नहीं है, संगीत में डूबने के लिए समय नहीं है. इस तरह सारे महत्वपूर्ण सुखों से वंचित ध्न्ना सेठ मनोरोगी नहंीं तो और क्या है? ऐसे ध्नरोगी के पास ध्न तो बहुत आ जाता है, लेकिन निधर््नता नहीं मिटती है. बाहर ध्न का जितना बड़ा पहाड़ खड़ा हो जाता है, भीतर निधर््नता की घाटी उतनी ही गहरी हो जाती है एक बुजुर्ग आदमी ने कहा- मैं अकूत बैंक-बैलेंस, जमीन-जायदाद, जेवर-गहने आदि के लिए घूस नहीं लेता. दहेज के बिना बेटी का ब्याह संभव नहीं है और उनका दहेज वेतन से संभव नहीं है. इसलिए घूस लेता हूँ. भ्रष्टाचार मेरी मजबूरी है. मैंने कहा- आप अपनी जिम्मेदारी समाज कर पर डालकर अपराध्मुक्त नहीं हो सकते. आज की परिस्थिति में आध दर्जन से अध्कि संतान पैदा करना ही अपराध् है. इस अपराध् में समाज ने आपका साथ नहीं दिया है. अगर एक गलती हो गयी तो बच्चियों को प्रेम-विवाह की छूट देकर आप सुखी हों और दूसरी गलती से बचें. लेकिन आपको यह प्रतिष्ठा के विरु( मालूम पड़ता है. आप एक नकली प्रतिष्ठा पाने के रोगी हैं, क्योंकि आपकेा चिंता है कि लोग क्या कहेंगे. मालूम है न वह प्रसि( सूक्ति ‘सबसे बड़ा है रोग क्या कहेंगे लोग’. अगर आप स्वस्थ होते तो कह पाते- ‘कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना’. प्रतिष्ठा की ऐसी मानसिक महामारी राजनीति में पैफली है कि जहाँ देखिये राजनेता ने अपनी पूजा का पुख्ता प्रबंध् कर रखा है. अखबार में वही छाया रहेगा, रेडियो-टेलीविजन में उन्हीं का वर्चस्व रहेगा. यहाँ तक कि साहित्यिक एवं धर्मिक सभाओं का भी उद्घाटन वही करेगा. राजनीति में व्यक्ति-पूजा को इतना महत्व है कि लोकतंत्रा खतरे में आ गया है. हर राजनेता मानसिक रोग से ग्रसित है. वह शब्दों में लोकतंत्रा की दुहाई देगा, लेकिन मन में राजतंत्रा बैठा मिलेगा. वह अपनी मूर्तियाँ बनवायेगा. अपनी पूजा, माल्यार्पण आदि के लिए पैसा खर्च करेगा. यह रोग नहीं तो और क्या है? पद-लिप्सा ध्न-लिप्सा से भी ज्यादा भयानक बीमारी है. हर राजनीति करने वाला कुछ न कुछ बनना चाहता है. एम.एल.ए., एम.पी. बन गये तो चिंता है मिनिस्टर बनने की. मिनिस्टर बन गये तो मुख्यमंत्राी, प्रधनमंत्राी, राष्टपति की कुर्सी पर ध्यान टिका है. जितनी बड़ी कुर्सी वे प्राप्त करते जाते हैं, उतना भीतर का छोटापन प्रकट होता जाता है. दबी इच्छाओं के विस्पफोट का समय आ जाता है. जैसे जमीन के नीचे कई तरह के बीज पड़े होते हैं और वर्षा )तु आते ही अंकुरित होने लगते हैं. वैसे ही सत्ता की वर्षा होने पर राजनेताओं की दमित वासनाएँ अंकुरित होने लगती हैं और घास-पात की तरह लहराने लगती हैं. आदमी की क्षुद्रता का पता तब चलता है जब वह कोई बड़ा पद पा लेता है. हर पद के साथ-साथ उसकी व्यर्थता उद्घाटित होती जाती है, लेकिन पागल मनुष्य पिफर भी उसके लिए आजीवन दौड़ता रहता है. यही पद-रोग है. ज्यों-ज्यों उमर बढ़ती है त्यों-त्यों यह बीमारी बढ़ती जाती है. अस्सी साल, नब्बे साल का बूढ़ा हो गया है लेकिन पद छोड़ना नहीं चाहता है. हिन्दुस्तान में सबसे अध्कि वृ( को लोकसभा भेजने का इस बार बिहार ने रिकॉर्ड बनाया है. इध्र डगमग चलते एक पद-पीड़ित वृ( को मुख्यमंत्राी ने राज्यसभा भेज दिया है. मैं अच्छा मुख्यमंत्राी उन्हें मानता हूँ जो अध्कि से अध्कि दो टर्म के लिए मुख्यमंत्राी बने और इसी बीच एक नयी पीढ़ी भी तैयार कर दे जो उनके द्वारा किये गये अच्छे कामों केा आगे बढ़ाये. हमारे मुख्यमंत्राी सत्ता भोगने में लीन हैं, कोई पीढ़ी तैयार नहीं कर रहे हैं. इसका मतलब है, आजन्म गíी पर ब्रजासन जमाये रखने की मानसिक बीमारी उनके पास भी है. पुलिस-तंत्रा और न्यायालय कापफी सशक्त हों तो एक सीमा तक इन बीमारियों पर काबू पा सकते हैं. लेकिन जब बीमारी महामारी का रूप ले ले तो ये तंत्रा पूर्णत: असपफल हो जाते हैं. इस पर काबू पाने का और इसकी उत्पत्ति रोकने का एक ही उपाय है- शिक्षा में परिवर्तन, जो हमारे मुख्यमंत्राी के मन में कहीं नहीं है. बीमारी जहाँ से उत्पन्न होती है, रोकथाम वहीं से करनी होगी. बीमारी को जड़ से उखाड़ने के लिए भीतरी इलाज चाहिए. कोर्ट में स्पीडी ट्रायल बाहरी इलाज है, यह बुखार दबाने के लिए व्रफॉसिन टेबलेट है. बुखार किस कारण से है, इसके मूल-स्रोत तक जाना होगा और उसका वहीं से इलाज करना होगा. इसके बिना सुशासन एक नया धेखा होकर रह जायेगा.
१७.०८.०९
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें