रविवार, सितंबर 13, 2009

राजनीति की दिशा

बेचारे नरंककाल सरीखे गरीब रामानंद दो पाटों के बीच में पड़ गये हैं. आपको क्या लगता है सर, कि नीतीश कुमार ने गोली चलवायी होगी ? भोलाराम ने पूछा.
मटुकः-नीतीशजी ने गोली चलवायी थी या नहीं, यह तो उस गाँव के प्रत्यक्षदर्शी जानें. इतना सच है कि विरोधी नीतीशजी को गद्दी से उतारने के लिए किसी भी सीमा तक जा सकते हैं. भोलाराम, जो सत्ता-रस पी चुके हैं और आज वंचित हैं वे पागल की तरह दिन-रात उस नुक्स को खोजने में लगे हैं जिससे पुनः सत्ता-रस-पान का अवसर मिले. लेकिन जो अभी सत्ता का रस पी रहे हैं, उनकी ताकत बन गयी हैं. मुश्किल है उन्हें धकेलना. कमजोर मजबूत को कैसे धकेलेगा ?
भोलारामः-लेकिन सत्ता तो साधन है, गरीबों का कल्याण साध्य है. नीतीश सरकार तो गरीबों, दलितों, महादलितों, स्त्रियों के उत्थान के लिए सत्ता में आयी है. विकास इनका साध्य है, सत्ता साधन है.
मटुकः- गलत बात, बिल्कुल गलत. पिछड के उत्थान की बात कर सत्ता पायी जा सकती है. विकास की बात सत्ता की प्राप्ति और रक्षा में सहायक होती है. साध्य तो सत्ता ही है.
भोलारामः-लेकिन इसके ठीक पहले की सरकार तो विकास की बात नहीं करती थी; फिर भी पन्द्रह साल टिकी रही?
मटुकः-यहीं उससे चूक हो गयी और गद्दी छिन गयी, क्योंकि अनंतकाल तक एक ही भ्रम से काम नहीं चलता, भ्रम पुराना पड ता है. नया भ्रम लाना पड ता है. लालू सरकार पिछड ों के हाथों सत्ता सौंपने का एक विराट भ्रम लेकर आयी थी जब उन्होंने परिवार के हाथों सत्ता सौंप दी तो लोग चौकन्ने हुए. लालूजी को एक ही कारगर सूत्र पकड ाया जिसके द्वारा उन्होंने सदियों से प्रताडि त पिछड ों का साथ देकर उसे सवर्णों के समानांतर खड ा कर दिया. उनके प्रतिशोध को बल दिया. इससे पिछड े इतने खुश हुए कि लालूजी को सत्ता में बनाये रखने के लिए अपनी अशिक्षा, गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी सबको भुला दिया. पहली बार उसे अपमान का बदला लेने का मौका हाथ आया था. लेकिन इसके बाद उनकी मूलभूत समस्या हल होनी चाहिए थी, जो लालू के हाथों संभव नहीं थी, क्योंकि इस गरीब के पास धनार्जन की अपार प्यास थी. इनसे टूटकर अलग हुए शकुनी चौधरी ने गाँधी मैदान की एक सभा में कहा था-'मैंने सोचा था कि गरीब का बच्चा है, गरीबों की पीड़ा को समझेगा लेकिन इस ग्वाले के बेटे ने पूरे बिहार को दूह लिया.' लालू-भ्रम का अंत यहाँ हो गया. नीतीशजी ने उस चीज का वादा किया जो लालूजी नहीं दे पाये थे. उन्होंने परिवारवाद के खिलाफ विकासवाद का नारा दिया. अराजकता के विरुद्ध सुशासन का प्रलोभन दिया और सत्ता हासिल की. फिलहाल इनको चुनौती देने वाला कोई दल नहीं है. अगला विधानसभा चुनाव भी ये जीतेंगे और २०१५ तक निष्कंटक राज्य करेंगे. इस बीच अगर कोई इनके तथाकथित विकास की पोल खोलने में कामयाब हुआ तो २०१५ में ये सत्ता गँवा सकते हैं. अगर बेहतर लोग राजनीति में आ पायें तो बिहार आगे निकल सकता है, वरना कोल्हू के बैल की तरह प्रगतिहीन यात्रा चलती रहेगी.
भोलारामः- आप तो सर एक ज्योतिषी की तरह बात करने लगे. कौन जानता है कि २०१० में क्या होगा और २०१५ में क्या होगा ?
मटुकः- ज्योतिषी सी बात नहीं. निरीक्षण की बात है. अभी बिहार में नीतीश का विकल्प पैदा नहीं हुआ है. इसलिए कह रहा हूँ. यही बिहार का दुर्भाग्य भी है. नये प्रकार की राजनीति की कहीं सुगबुगाहट तक नहीं है. इसके लिए कुछ हिम्मती लोगों को आगे आना होगा और सत्ता का लोभ त्यागकर जनजागरण की राजनीति करनी होगी. ऐसे लोग ही सत्ता को साधन बना पायेंगे और लोकहित को साध्य. अभी तो समाज के तमाम गलत किस्म के लोग राजनीति की ओर उन्मुख हैं. साधुओं का राजनीति में कोई रस नहीं. वे अपने निजी संसार में मग्न हैं. कौन झमेले में पड े!
भोलारामः- आपका मतलब बाबा रामदेव जैसे साधुओं से तो नहीं है ?
मटुकः- इधर से बाबा रामदेव जरूर उछल कूद कर रहे हैं. मुझे लगता है कि वे राजनीति में आयें तो इनसे बेहतर हो सकते हैं. लेकिन वे अपनी ब्रह्‌मचर्य वाली बीमारी को भी लादना शुरू करेंगे. उनकी गलत नैतिकता का दुराग्रह सहन करना कठिन होगा. उनका संकीर्ण राष्ट्रवाद भी हावी होगा. साधु से मेरा मतलब दाढ ी, बाल और गेरुआ वाले साधु से नहीं. जो स्वभाव से साधु हों, सरल, सहज, निश्छल और परदुखकातर हों.
भोलारामः-मैंने रामानंद की बात उठायी थी और आप दूर चले गये ?
मटुकः- रामानंद तो खिलौना हैं भोलाराम. खिलाड़ी महत्वपूर्ण हैं. मेरा ध्यान फुटबॉल पर नहीं, उन पैरों की कुशलता पर है जो गोल तक उसे पहुँचाने के लिए अपनी-अपनी कलाबाजी और शक्ति-प्रदर्शन कर रहे हैं. इन राजनेताओं के पदतल में करोड ों जनता फुटबॉल की तरह इधर-उधर हो रही है और निर्जीव होने के कारण सब सह रही है. उन्हें जरा सजीव बनाने का प्रयास करो भोला. तब देखो कैसे खेल का नजारा बदल जाता है!
मटुक नाथ चौधरी
११.०९.०९

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