मैट्रिक के परीक्षार्थियों का तनाव देखकर यशपाल कमिटी को दया आयी और उसने न केवल बोर्ड को वैकल्पिक कर दिया बल्कि ग्रेडिंग सिस्टम को लागू करने का भी सुझाव दिया. अफसोस, बीमारी का इलाज यह नहीें है. उससे भी ज्यादा अफसोस की बात यह है कि साँचे में ढले शिक्षकों को शिक्षा का पुराना ढर्रा ही पसंद है. 'हिन्दुस्तान' में बड़े स्कूलों के पाँच प्राचार्यों के पंचामृत परोसे गये हैं जो प्रतिस्पर्द्धा के प्रबल पक्षधर हैं. उनका तर्क है कि तनाव बच्चों को भविष्य की चुनौतियों का सामना करने में मदद करेगा. दूसरे प्राचार्य कहते हैं कि अगर विद्यालय के शिक्षक ही ग्रेडिंग देंगे तो कौन अपने बच्चों को कम ग्रेड देना चाहेगा ? हमें यह अनुभव से ही सीखना पड ेगा कि जिस चुनौती का सामना हम तनावपूर्वक करते हैं उसमें टूट जाने का, विफल हो जाने का खतरा अधिक रहता है. लेकिन जिस चुनौती का सामना हम आनंद से करते हैं, उसमें हर हालत में सफलता साथ-साथ चलती है. एक शिक्षक के लिए यह अपमानजनक बात है कि वह अपने बच्चों को अधिक ग्रेड दे दे. सब बच्चों को समान प्रेम शिक्षक की बुनियादी विशेषता है. ईमानदारी शिक्षक का स्वभाव होना चाहिए. इसी कारण तो शिक्षक राष्ट्रनिर्माता कहलाता है. अगर वह धुरफंदी में लगा रहेगा तो शिक्षक को श्रेष्ठ किस आधार पर माना जा सकता है ? लेकिन उस प्राचार्य महोदय ने एक सच्चाई जरूर व्यक्त की है. जो आज की शिक्षा का घिनौना सच है. इसी से उबरने के लिए मौलिक शिक्षा की कल्पना करनी होगी और उस शिक्षा के केन्द्र से प्रतिस्पर्द्धा को हटाकर प्रेम को स्थान देना होगा.
शिक्षा का काम मस्तिष्क का ढाँचा निर्धारित करना है. शिक्षा द्वारा निर्धारित ढाँचे पर ही मस्तिष्क चिंतन-मनन करता है. उससे छूटना महाकठिन करीब-करीब असंभव होता है. केवल थोड े से साहसी लोग उस ढाँचे से मुक्त हो पाते हैं. इस शिक्षा ने गलत ढाँचा दे दिया है जिसका भयानक परिणाम पीढ ी-दर-पीढ ी भुगतती रही है. इस शिक्षा से विकृत मनुष्य पैदा हो रहे हैं. दूसरों से बड़ा होने की होड हमारी शिक्षा का मूल ढाँचा है जो प्रथम होगा, वह पुरस्कृत होगा, जो पीछे पड ेगा वह अपमानित होगा. प्रथम होगा तो स्कूल में आदर मिलेगा, परिवार में आदर मिलेगा, समाज में आदर मिलेगा. मीडिया में आदर मिलेगा. फोटो छपेंगे, इंटरव्यू छपेगा. अतः दूसरों से आगे होने में बच्चे अपनी पूरी शक्ति झोंक देते हैं. २०-२५ साल तक यह दौड चलती है. इस तरह दूसरों से आगे होने का स्थायी बुखार उनको लग जाता है. जब शिक्षा प्राप्त कर व्यक्ति गार्हस्थ्य जीवन में आता है, तो वही बुखार उसका पीछा करता है. अध्यापक है तो जल्दी से जल्दी प्रधानाध्यपक बन जाना चाहता है, प्राध्यापक है तो प्राचार्य बनने के लिए बेताब है, कुलपति बनने के रास्ते खोज रहा है. बड ा मकान, बड ी दुकान, बड े सम्मान के पीछे पड ा हुआ है. सारी जिंदगी एक पागल दौड में बदल जाती है. आदमी जहाँ भी पहुँचे उससे आगे पहुँचना हमेशा शेष रहता है. यह दुनिया एक गोल चक्कर है, आप जहाँ भी रहिये हमेशा कोई न कोई आपसे आगे दिखेगा. और जब तक कोई आगे है, तब तक शांति कैसे मिल सकती है ? शांति का किसी के आगे होने से कोई संबंध नहीं है.
इस शिक्षा की बुनियाद में ईर्ष्या है. जब हम किसी बच्चे से कहते हैं देखो, अमुक कितना तेज है, तुम कितने भुसगोल हो, उनके जैसा बनो. उसी वक्त हम उसमें जलन पैदा करते हैं, ईर्ष्या जगाते हैं. अहंकार को मजबूत करते हैं. विडंबना यह है कि नैतिक शिक्षा के द्वारा साथ-साथ यह भी सिखाते हैं कि ईर्ष्या मत करो, मारपीट मत करो, हिंसा मत करो, विनम्र बनो. शिक्षा का यह आधार बुनियादी रूप से गलत है. शिक्षा का आधार बनना चाहिए प्रेम. प्रेम का मतलब है विषय से प्रेम. जिस विषय को हम पढ ना चाहते हैं, उसके प्रति प्रेम. उसको सीखने में तल्लीनता, उसको सीखने का आनंद. हम विद्यार्थियों को साहित्य से प्रेम सिखा सकते हैं, संगीत से प्रेम सिखा सकते हैं, गणित , विज्ञान, समाजविज्ञान, मनोविज्ञान, दर्शन, कानून आदि विषयों से प्रेम सिखा सकते हैं. उन विषयों के प्रति प्रेम पैदा कर सकते हैं. सीखना तल्लीनता के कारण होता है और तल्लीनता सहज प्रेम से पैदा होती है. प्रतिस्पर्द्धा जन्य तनाव तल्लीनता को बार-बार तोड ता है. सबसे बड़ा दुर्भाग्य है कि कोई विषय हम इस तरह नहीं पढ ते हैं कि वह हमारे जीवन में काम आयेगा, उसे परीक्षा पास करने के लिए पढ ते हैं, बाद में फिर उससे कोई नाता नहीं रह जाता. जैसे अगर हम हिन्दी साहित्य के विद्यार्थी हैं तो पंत का प्रकृति-वर्णन आनंद के लिए, अपने सौन्दर्य-बोध के विस्तार के लिए नहीं पढ ते, उसे रटकर परीक्षा में लिखने के लिए पढ ते हैं. यही प्रणाली तनाव को जन्म देती है. इसे बदलने की जरूरत है.
जब शिक्षा का आधार प्रेम होगा तो वह विषय के साथ हर मनुष्य से प्रेम करने का मार्ग प्रशस्त करेगा. इससे ऊँच-नीच और बड े-छोटे का भाव खत्म होगा. इस शिक्षा ने पेशे को प्रतिष्ठा से जोड दिया है. जो सूअर चराता है वह छोटा है, जो प्रधानमंत्री बनता है, वह बड ा है. प्रेमपूर्ण शिक्षा में दूसरा व्यक्ति हमारे सामने नहीं होगा, न दूसरों जैसा होना हम चाहेेंगे. हम जो हैं, वह काफी है. सिर्फ हर व्यक्ति के भीतर जो व्यक्तित्व छिपा है, वह प्रकट हो जाय. तभी शांति और आनंद प्राप्त हो सकता है. वह शिक्षा सुुंदर है जो प्रेम, शांति, आनंद, सौहार्द, दया, करुणा, सहानुभूति और सहयोग पैदा करे. वह प्रेमाधारित शिक्षा ही हो सकती है. प्रतिस्पर्द्धा आधारित शिक्षा को अलविदा कहने की जरूरत है.
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