अनुभव के मूलतः तीन तल होते हैं - काम (सेक्स), प्रेम और परम प्रेम. तीसरे तल को ईश्वरीय प्रेम, भक्ति या आध्यात्मिक प्रेम भी कहा जाता है. इस संबंध में खास बात यह है कि जो आदमी जिस तल पर जीता है, उसी तल की बात समझ पाता है. उससे भिन्न तल की बात ठीक-ठीक समझना लगभग असंभव है. अधिकांश मनुष्य काम-तल पर जीते हैं. इसलिए वे प्रेम नहीं समझ पाते. भक्ति को समझने की स्थिति तो प्रेम को समझने के बाद ही शुरू होती है.
प्रेम का दिव्य रूप तो हमें स्वीकार्य है, किन्तु उसके मानवीय रूप को लेकर असमंजस है. हम कहते हैं ईश्वर से प्रेम करो. लेकिन हम ईश्वर को कहाँ खोजेंगे ? हम कहते हैं देश से प्रेम करो, लेकिन देश हमें कहाँ मिलेगा ? जो भी मिलेंगे वे स्त्री-पुरुष होंगे. जो प्रेम का चरम रूप है, वही से हम आरंभ करना चाहते हैं ! हम एक ही बार सीढ़ी के आखिरी पायदान पर पाँव रखना चाहते है ! क्या यह संभव है ? अगर यह संभव होता तो आज सभी भारतवासी प्रेमपूर्ण हो गये होते. लेकिन वे घृणा , क्रोध, द्वेष, प्रतिस्पद्र्धा, प्रतिशोध, ईष्र्या, हिंसा आदि में डूबे हुए हैं. गलती कहाँ हुई है ? जिस मिट्टी में प्रेम जन्म लेता है, उसे हमने अस्वीकार कर दिया. प्रेम की जन्मभूमि देह के प्रति हमने घृणा पैदा कर दी. शारीरिक प्रेम कहकर हमने उसकी उपेक्षा की. परिणाम हुआ- व्यक्तित्व का विघटन. मनुष्य दो टुकड़ों में बँट गया- भीतर और बाहर. प्रकृति ने स्त्री-पुरुष के प्रति पारस्परिक आकर्षण दिया. संस्कृति ने उस आकर्षण को गलत बताया. फलतः मनुष्य भीतर से प्रकृति और बाहर से संस्कृति है. उसका व्यक्तित्व दुहरा हेा गया. जटिल व्यक्तित्व में प्रेम की संभावना नहीं होती. इसके लिए सरलता चाहिए. सरलता आती है प्रकृति की सहज स्वीकृति से. आज सरल व्यक्ति लुप्तप्राय प्रजाति हो गया ! दुनिया में सारे उपद्रव जटिल व्यक्तियों के द्वारा होते हैं. ये सरल व्यक्तियों का शिकार करते हैं, जैसे जंगल में हिंसक पशु हिरण का शिकार करते हैं. जटिल व्यक्ति यानी अशांत व्यक्ति. अशांत व्यक्ति दूसरे को शांत नहीं होने देता. जटिल व्यक्ति यानी दुखी व्यक्ति. दुखी व्यक्ति संसार को दुख के सिवा और क्या दे सकता है ? सरल व्यक्ति प्रसन्न रहता है. संसार को देने के लिए उनके पास प्रसन्नता है, शांति है, आनंद है.
सरल व्यक्ति दो प्रकार के होते हैं- एक वे जिन्होंने सेक्स को सहज रूप में स्वीकार किया और उसी को जीवन का सत्य समझकर वहीं ठहर गये. दूसरे वे जिन्होंने काम के ताल-तलैया से प्रेम की नदी में छलांग लगा दी. प्रेम उच्चतर आनंद है. वह काम का ऊपरी तल है. जीवन का नियम है कि जो आदमी जिस तल पर जीता है, उसी तल पर बात समझता है. दूसरे तल की बात वह अपने तल पर लाकर ही समझता है और यहीं पर सब गुड़ गोबर हो जाता है; क्योंकि वह कृष्ण को भी अपने जैसा ही आदमी समझने की भूल कर बैठता है, जबकि कृष्ण मनुष्यता का चरम विकास हैं. मेरे समर्थक मित्र मुझसे कहते हैं - ‘‘ आपने कोई गलत काम नहीं किया है. आपने वही किया है जो सब करते हैं. अंतर सिर्फ इतना है कि दूसरे छिपकर करते हैं और आपने डंके की चोट पर किया. आपने साहस का परिचय दिया. आपने सच कहकर पटना और बिहार का गौरव बढ़ाया.’’ मैं ऐसे प्यारे मित्रों की बात सुनकर प्रसन्न होता हूँ. उनके प्रति मन ही मन कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ, यह जानते हुए भी कि मेरे मित्र ने मुझे अभी ठीक से समझा नहीं है. जब वे कहते हैं, आपने जो किया है, वह कौन नहीं करता है तो मेरी उनसे असहमति हो जाती है. मैं मौन रहता हूँ, क्योंकि मेरे तल पर आये बगैर वे मुझे नहीं समझ पायेंगे. मेरा बोलना वृथा होगा. फिर भी कभी-कभी किसी मित्र को कह देता हूँ, मैंने जो किया है, वह कहाँ कोई करता है ? काम-लोलुपता विश्वविद्यालय में व्याप्त है, गंभीर प्रेम कहाँ है ? यह भ्रम न हो कि सभी एक ही क्रिया में संलग्न होते हैं. काम में उतरते हैं सभी, लेकिन कामी और प्रेमी के उतरने में बड़ा भारी गुणात्मक फर्क हो जाता है. प्रेमी काम को गरिमा प्रदान करता है. काम के प्रति उनकी दृष्टि उतनी ही पावन होती है जितनी किसी मंदिर में पूजा के लिए प्रवेश करते हुए किसी सच्चे पुजारी की. उनकी सांसों में एक शांति, एक लय होती है. उनके तन-मन में समर्पण होता है. वह किसी का उपयोग नहीं कर रहा है, परस्पर अपने को लीन कर रहा है. वह कृतज्ञता से भरा होता है. कामियों में ठीक इसके विपरीत स्थिति होती है.
दूसरा बड़ा अंतर एक और है. कामी जितना ही भोगता है, उतना ही अतृप्त होता चला जाता है. प्रेमी तृप्त होता है; क्योंकि प्रेम काम केा गलाता है, मिटाता है. दूसरे शब्दों में कहँू , ज्यों-ज्यों आनंद उच्चतर होता जाता है, त्यों-त्यों निम्नतर सुख छूटता चला जाता है. जैसे दस हजार की नौकरी मिले तो सौ रुपये की नौकरी छूट जाती है.
प्रेम का सुख इतना बड़ा है और उसके अभाव का दुख इतना गहन है कि उसकी रक्षा के लिए साहस स्वयमेव आ जाता है. साहस प्रेम का सहचर है. प्रेमी विद्रेाही होता है, कामी नहीं हो सकता, क्योंकि विशुद्ध काम-सुख इतना बड़ा नहीं होता कि उसके लिए कोई खतरा मोल लिया जाय. धनवान कहेंगे वह तो कुछ पैसों में मिल जाता है, उसके लिए अपनी प्रतिष्ठा, पद, परिवार आदि क्यों गँवाया जाय ? गँवाना तो प्रेमी भी नहीं चाहता है. लेकिन जहाँ चुनाव करना ही पड़ जाय, प्रेम के मुुकाबले कुछ भी ऐसा नहीं है, जिसको चुना जा सके. इसलिए मैं अपने प्यारे समर्थकों से कहूँगा कि वे समझने की कोशिश करें कि जो मुझसे हुआ है और हो रहा है, वह कहाँ किसी से हो रहा है ? मगर होना चाहिए.
अभी तो जटिल प्रकृति वालों से समाज भरा है. वे काम की निंदा करते हैं. प्रेमियों को देखकर भड़कते हैं; यद्यपि इनके बीच आप अगर रहें तो पता चलेगा कि काम को छोड़कर ये और कोई चर्चा नहीं करते. ये उल्टे ढंग से काम से जुड़े होते हैं. स्वस्थ व्यक्ति किसी की निंदा करते नहंीं देखे जाते. वे अपने में मगन रहते हैं, जबकि रुग्ण व्यक्ति दूसरों के जीवन में रस लेते हैं.
जटिल प्रकृति के लोग भी दो प्रकार के होते हैं- पहला उग्र, अधीर, ईष्र्यालु इत्यादि. इनकेा असभ्य कह सकते हैं. दूसरे उग्र नहीं होते, परहेजी होते हैं और धैर्य बनाये रखते हैं, लेकिन ईष्र्या , द्वेष , अमर्ष उनमें भी उतना ही होता है. इनको सभ्य व्यक्ति कह सकते हैं. जो अधीर और उग्र होते हैं, वे सरल लोगों और खासकर प्रेमियों पर तल्ख टिप्पणियाँ करते हैं, देखकर हँसते हैं और अट्टाहास करते हैं. अगर अधिक असभ्य रहे तो डंडा चला देते हैं. अगर पावर में रहे तो फट से उसका उपयोग कर देते हैं. मुझे ऐसे लोगों को झेलना पड़ा है और आगे भी झेलना पड़ेगा; क्येाकि प्रेम की यात्रा अनंत है, वह रुकने वाली नहीं है. इस मार्ग में गले में हार भी मिलेगा और मुख पर कालिख भी. लोग मार्ग में काँटे भी बिछायेंगे और पलक पाँवड़े भी. मेरी छाती छलनी होती रहेगी- चाहे किसी की मीठी बोली से या किसी की कड़वी बोली से या पीतल की गोली से. मुझे सब स्वीकार्य है, क्योंकि यह मार्ग प्रभु की ओर जाता है.
यह गलत शिक्षा बंद होनी चाहिए कि परमात्मा से प्रेम करो. सही शिक्षा यह है कि जिससे भी आपका प्रेम होता है, वही परमात्मा है. परमात्मा से प्रेम नहीं होता, बल्कि प्रेम से परमात्मा होता है. तुलसी सच कहते हैं- ‘प्रेम तें प्रकट होहिं मैं जाना’.
निष्कर्ष यह कि सरल चित्त शोभन है, जटिल चित्त अशोभन. काम का स्वस्थ रूप शोभन है, रुग्ण रूप अशोभन. प्रेम शोभन है, उसका विरोध अशोभन. और विरोध के लिए तमाम गलत हथकंडे अपनाना परम अशोभन है.
मई, 2008
जीवन का नियम है कि जो आदमी जिस तल पर जीता है, उसी तल पर बात समझता है. दूसरे तल की बात वह अपने तल पर लाकर ही समझता है और यहीं पर सब गुड़ गोबर हो जाता है,
जवाब देंहटाएंये सत्य है। शुभकामनायें
ये शब्द पुष्टिकरण हटायें
जवाब देंहटाएंपहले डेश बोर्ड मे जाये -फ़िर सेटिंग मे- फ़िर टिप्पणी मे- फ़िर नीचे शब्द पुष्टिकरण को हाँ से ना मे बदल दें, इतना सा काम है,टिप्पणी करने वाले के समय की बचत हो जायेगी,
धन्यवाद,
बहुत सही लिखा है।पढ़कर अच्छा लगा।आभार।
जवाब देंहटाएंआदरनीय सर
जवाब देंहटाएंसचमुच आपके तल पर आये बगैर आपको समझ पाना सम्भव नही है।
यह गलत शिक्षा बंद होनी चाहिए कि परमात्मा से प्रेम करो. सही शिक्षा यह है कि जिससे भी आपका प्रेम होता है, वही परमात्मा है. परमात्मा से प्रेम नहीं होता, बल्कि प्रेम से परमात्मा होता है।
प्रेम ही परमात्मा है।
"जिससे भी आपका प्रेम होता है, वही परमात्मा है"
जवाब देंहटाएंप्रणाम स्वीकार करें
सच कहा आपने ,प्रेम तो कहीं भी दिख सकता है!इसे परमात्मा से जोड़ना उचित नहीं है!प्रेम को लेकर आज भी समाज में बहुत सी भ्रांतियां है,जिन्हें दूर करने की जरूरतहै! ब्लॉगजगत में आपका स्वागत है!!!!
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